ऑस्ट्रेलिया में जन्मी चार साल की एक तमिल बच्ची ने देश की सरकार और शरणार्थियों को लेकर उसकी नीति पर सवाल खड़े कर रखे हैं.
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प्रिया मुरुगप्पन, उनके पति और दो बच्चियां दो साल बाद आखिरकार खुली हवा में सांस ले सकेंगे. हालांकि ऐसा ज्यादा समय के लिए नहीं होगा क्योंकि ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने इस तमिल परिवार को अस्थायी तौर पर ही हिरासत केंद्र से रिहा करने के आदेश दिए हैं.
मंगलवार को ऑस्ट्रेलिया के आप्रवासन मंत्री आलेक्स हॉक ने मीडिया से बातचीत में कहा कि परिवार को अस्थायी तौर पर रिहा किया गया है और इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि इस परिवार को वीजा मिल जाएगा.
तमिल शरणार्थी मुरुगप्पन परिवार को यह रिहाई तब मिली है जब उनकी छोटी बेटी, चार साल की थारनिका गंभीर रूप से बीमार हो गई और उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा. हालांकि इस फैसले में भी ऑस्ट्रेलिया की सरकार को कई दिन लगे हैं. तीन दिन पहले ही थारनिका ने अपना चौथा जन्मदिन मनाया. हालांकि इस बार वह पर्थ के अस्पताल में भर्ती है और न्यूमोनिया और सेप्सिस से जूझ रही है, जिस कारण मरीज की जान भी जा सकती है.
थारनिका को पिछले हफ्ते तब क्रिसमस आईलैंड से पर्थ के बाल अस्पताल ले जाया गया, जब उसे बीमार हुए दस दिन हो गए थे. उसके साथ उसकी मां प्रिया भी थीं जबकि पिता और उसकी बड़ी बहन कोपिका हिरासत केंद्र में ही रह रहे हैं. ऑस्ट्रेलिया के मानवाधिकार कार्यकर्ता परिवार की रिहाई की मांग कर रहे थे. अब सरकार ने उन्हें भी परिवार के पास भेजने का फैसला लिया है.
इमिग्रेशन मंत्री ऐलेक्स हॉक ने कहा, "यह फैसला करते हुए मैं सरकार की मजबूत सीमा सुरक्षा नीति का बच्चों के हिरासत केंद्र में होने की स्थिति में उचित सहानुभूति के साथ संतुलन बना रहा हूं."
क्या है मुरुगप्पन परिवार की कहानी
नादेसलिंगम मुरुगप्पन श्रीलंकाई मूल के तमिल हैं. 2012 में वे श्रीलंका से भागकर नाव से ऑस्ट्रेलिया आ गए थे और यहां उन्होंने शरण मांगी थी. 2018 में नादेसलिंगम ने कोर्ट को बताया कि उन्हें 2001 में श्रीलंका के उग्रवादी संगठन लिट्टे का सदस्य बनने के लिए मजबूर किया गया था और वापस स्वदेश जाने पर उनकी जान को खतरा है.
प्रिया का कहना है कि उनके गांव के कुछ लोगों समेत तत्कालीन मंगेतर को सेना ने जिंदा जला दिया था, जिसके बाद वह देश से भागकर 2013 में ऑस्ट्रेलिया आ गई थीं. उन्होंने भी यहां शरण मांगी थी. हालांकि दोनों की ही शरण की अर्जी को गैरकानूनी मानकर खारिज कर दिया गया. लेकिन उन्हें अस्थायी वीजा दिया गया और वे क्वीन्सलैंड के बिलोला कस्बे में रहने लगे जहां उन्होंने शादी कर ली. 2015 में उनकी पहली बेटी कोपिका का जन्म हुआ. 2017 में छोटी बेटी थारनिका जन्मी.
बिलोएला से हिरासत तक
4 मार्च 2018 को इस परिवार का अस्थायी वीजा खत्म हो गया और सीमा बल के अधिकारियों ने उन्हें उनके घर से हिरासत में ले लिया. तब उन्हें मेलबर्न के एक हिरासत केंद्र में रखा गया. इस कदम का बिलोएला के लोगों ने खासा विरोध किया और एक अभियान भी शुरू किया जिसमें इस परिवार को घर वापस लाने की अपील की गई थी.
उत्तरी अफ्रीका में तैर कर सरहद पार करते शरणार्थी
उत्तरी अफ्रीका में हजारों लोग मोरक्को छोड़ कर पड़ोस में स्थित स्पेन के एन्क्लेव सेउता चले गए हैं. कुछ नाव से गए, कुछ तैर कर तो कुछ समुद्र के छिछले इलाके में पैदल ही सरहद पार कर गए.
तस्वीर: Javier Fergo/AP Photo/picture alliance
तैर कर यात्रा
करीब 6,000 लोग मोरक्को से स्पेन के छोटे से एन्क्लेव सेउता चले गए हैं. उनमें से कई तैर कर गए तो कुछ लोगों ने रबर की डिंगियों का इस्तेमाल किया. इन कोशिशों में कम से कम एक व्यक्ति डूब गया.
तस्वीर: Fadel Senna/AFP
छिछले समुद्र में पैदल यात्रा
कुछ स्थानों पर पानी का स्तर इतना कम था कि कुछ लोग सेउता से कुछ ही किलोमीटर दूर स्थित तटों से छिछले पानी में पैदल चल कर ही आ गए.
तस्वीर: Fadel Senna/AFP
यूरोप की सीढ़ी
अफ्रीका से जाने वाले प्रवासी लंबे समय से सेउता को यूरोप जाने की सीढ़ी के रूप में देखते रहे हैं, लेकिन इससे पहले कभी इतनी तेजी से लोगों का आगमन नहीं हुआ. स्थानीय लोगों का आरोप है कि स्पेन के साथ चल रहे एक झगड़े की वजह से मोरक्को ने अपनी सीमाओं पर नियंत्रण ढीले कर दिए हैं. मोरक्को के एक बागी नेता को स्पेन के एक अस्पताल में उपचार की अनुमति मिलने के बाद से दोनों देशों के बीच रिश्ते खराब हो गए.
तस्वीर: Fadel Senna/AFP
मोरक्को में निडेक के तट से शुरू होती है यात्रा
कई प्रवासी अपनी यात्रा की शुरुआत उत्तरी मोरक्को के शहर निडेक की पहाड़ियों पर चढ़ कर करते हैं. 17 मई को जब मोरक्को ने सीमाओं पर नियंत्रण ढीले किए तो सीमा पार करने के इच्छुक लोगों ने मौका लपक लिया.
तस्वीर: Fadel Senna/AFP
पहुंचने पर गिरफ्तार
लेकिन सेउता पहुंचते ही स्पेन के सुरक्षाकर्मियों ने इन लोगों को गिरफ्तार कर लिया. स्पेन मोरक्को के रहने वालों को शरणार्थी दर्जा नहीं देता है. सिर्फ बिना अभिभावकों के आए नाबालिग सरकार की देख-रेख में देश में रह सकते हैं.
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सेउता में मानवीय संकट
हजारों शरणार्थियों के अचानक आ जाने से सेउता में तैनात स्पेन की सेना, सिविल गार्ड और आपातकालीन कर्मियों पर दबाव बढ़ गया है. 85,000 लोगों की आबादी वाले इस शहर में स्पेन की सरकार को अतिरिक्त 200 अधिकारी भेजने पड़े. इनमें दंगा-विरोधी पुलिस दस्ता और सीमा नियंत्रण लागू करने वाले कर्मी भी शामिल हैं.
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तुरंत वापस भेजना चाहता है स्पेन
स्पेन में मोरक्को से आ रहे वयस्कों को एक फुटबॉल स्टेडियम में ले जाया गया. उन्हें वापस मोरक्को भेजा जाएगा और प्रक्रिया के पूरा होने तक उन्हें स्टेडियम में ही इंतजार करना पड़ेगा.
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बच्चे और किशोर भी पहुंचे
सेउता पहुंचने वालों में कई नाबालिग बच्चे भी शामिल थे. ऐसे बच्चों को रेड क्रॉस जैसे समूहों द्वारा चलाए जा रहे केंद्रों में भेज दिया गया. (बीट्रीस क्रिस्टोफारु)
तस्वीर: Javier Fergo/AP Photo/picture alliance
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मेलबर्न से इस परिवार को श्रीलंका निर्वासित किया जाना था जिसके खिलाफ उन्होंने फेडरल सर्किट कोर्ट में अपील की. जून 2018 में अदालत ने उनकी अपील खारिज कर दी. कोर्ट ने सरकार की इस परिवार को रिफ्यूजी का दर्जा ना देने की वजहों को जायज माना था. इनमें एक कारण यह भी था कि नादेसलिंगम ऑस्ट्रेलिया आने के बाद तीन बार श्रीलंका की यात्रा कर चुके थे जिससे उनका यह दावा प्रभावित हुआ कि उन्हें श्रीलंका के अधिकारियों से खतरा है.
परिवार ने इस फैसले के खिलाफ अपील की और इसकी सुनवाई तक वे हिरासत केंद्र में ही रहते रहे. ऊपरी अदालत से भी उनकी अपील खारिज होने के बाद 29 अगस्त 2019 को इस परिवार को हिरासत केंद्र से निकाल कर निर्वासन के लिए मेलबर्न हवाई अड्डे पर लाया गया. तब उनके समर्थन में बहुत से लोग भी हवाई अड्डे पर पहुंच गए थे. लेकिन अधिकारियों ने उन्हें विमान में बिठाया और विमान डार्विन की ओर उड़ चला, जहां से उन्हें श्रीलंका भेजा जाना था. हालांकि उसी वक्त कोर्ट ने एक अपील के आधार पर उन्हें देश से निकाले जाने के फैसले पर रोक लगा दी. विमान लौट आया और मुरुगप्पन परिवार को क्रिसमस आईलैंड स्थित हिरासत केंद्र में भेज दिया गया. हालांकि उसी साल जुलाई में इस हिरासत केंद्र को बंद कर दिया गया था इसलिए तब से वहां इस परिवार के अलावा और कोई नहीं है.
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मौजूदा अपील
इस तमिल परिवार की अपील है कि छोटी बेटी थारनिका को शरणार्थी वीजा की अपील का हक मिलना चाहिए. कोर्ट इस अपील पर सुनवाई कर रहा है इसलिए फिलहाल यह परिवार देश में ही हैं. लेकिन ऑस्ट्रेलिया की सरकार का कहना है कि इस परिवार को वीजा देने से ऐसे लोगों को हौसला मिलेगा, जो अवैध तरीके से ऑस्ट्रेलिया में आते हैं और शरणार्थी वीजा चाहते हैं. मौजूदा प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने पिछली सरकार में इमिग्रेशन मंत्री रहते हुए ‘नौकाओं को ना' की नीति बनाई थी जिसके तहत नाव से ऑस्ट्रेलिया आने वाले लोगों को शरण न देने की सख्ती बरतने का फैसला किया गया था.
लेकिन कार्यकर्ताओं का कहना है कि ऑस्ट्रेलिया की नीति अमानवीय है. रिफ्यूजी एक्शन कोएलिशन के इयान रितौल कहते हैं कि मुरुगप्पन परिवार की कहानी ऑस्ट्रेलिया की अमानवीय नीति की ही मिसाल है. डीडब्ल्यू से बातचीत में इयान ने कहा, "यह पूरा मामला इस बात का प्रतीक है कि ऑस्ट्रेलिया सरकार की नीति अमानवीय है. दो बच्चे जो यहां जन्मे हैं, यहां रहने का हक नहीं पा सकते. पूरा कस्बा इस परिवार को घर लाने के लिए अपील कर रहा है लेकिन सरकार वीजा देने को तैयार नहीं है. ऐसी नीति और किसी देश की नहीं है.”
मौजूदा मामले के बाद फिर से लोगों ने इस परिवार को वीजा देने की अपील की है.
भारत में किस हाल में रहते हैं हिंदू शरणार्थी
दिल्ली के आदर्श नगर के पास एक पाकिस्तानी हिंदू शरणार्थी बस्ती है. बस्ती में करीब 600 हिंदू शरणार्थी रहते हैं. नागरिकता संशोधन बिल के संसद में पास हो जाने के बाद भारत को अपना घर बनाने की उनकी इच्छा पूरी होती दिख रही है.
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नागरिकता की मांग
हिंदू शरणार्थी करीब 6 साल पहले वीजा लेकर भारत आए थे और दिल्ली के आदर्श नगर के पास बस गए. इस झुग्गी बस्ती में करीब 600 लोग रहते हैं जिनमें बच्चे, बूढे़ और महिलाएं शामिल हैं. शरणार्थियों का कहना है कि वह भारत में बसना चाहते हैं और भारत ही उनका मुल्क है.
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वीजा के झंझट से छुटकारा
शरणार्थी शिविर में रहने वाले लोगों का कहना है कि भारतीय नागरिकता मिल जाने के बाद उन्हें बार-बार वीजा बढ़ाने के लिए दौड़ भाग नहीं करना पड़ेगा. उनकी मांग है कि सरकार उन्हें नागरिकता दे और सही तरीके से उनका पुनर्वास करे.
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पाकिस्तान की कड़वी यादें
बस्ती में रहने वाली महिलाओं का कहना है कि पाकिस्तान में उनका सम्मान नहीं होता था और उनके साथ धार्मिक भेदभाव होता था. महिलाएं कहती हैं कि पाकिस्तान में हिंदुओं का रहना मुश्किल है और वह वापस नहीं लौटना चाहती हैं.
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जुदाई का दर्द
हिंदू शरणार्थी सोनारी के परिवार के कुछ सदस्य अभी भी पाकिस्तान में हैं और वह चाहती हैं कि उनके परिवार के बाकी सदस्य भी हिंदुस्तान आ जाएं ताकि सभी लोग साथ एक इसी देश में रह सके. सगे-संबंधियों का जिक्र आते ही उनकी पलकें भींग जाती हैं.
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'धार्मिक आजादी'
दिल्ली के इस शरणार्थी शिविर में रहने वाले लोग बताते हैं कि वह अब भारत में आजादी के साथ अपने धर्म का पालन कर सकते हैं. बस्ती में बने मंदिर में वह सुबह शाम पूजा भी करते हैं.
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उज्ज्वल होगा बच्चों का भविष्य
इस शरणार्थी शिविर में बच्चों की पढ़ाई के लिए एक छोटा स्कूल है जिसमें उन्हें प्राथमिक शिक्षा दी जाती है. कुछ बच्चों ने बताया कि वह पढ़ने के लिए सरकारी स्कूल में जाते हैं.
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मुश्किल से गुजारा
बस्ती में रहने वाले पुरुष मेट्रो स्टेशन के पास मोबाइल कवर जैसी छोटी मोटी चीजें बेचते हैं, कुछ लोग सब्जी बेचकर या फिर रिक्शा चलाकर अपना गुजारा करते हैं. जिनकी उम्र अधिक है वह बस्ती में ही रहते हैं और घर के काम में हाथ बंटाते हैं.
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सुविधा की कमी
महिलाएं खाना बनाने के लिए मिट्टी के चूल्हे जलाती हैं, बिजली या गैस कनेक्शन नहीं होने के कारण उन्हें खाना पकाते वक्त हानिकारक धुएं से भी जूझना पड़ता है. घरों में रोशनी का भी जरिया भी मिट्टी तेल से जलने वाली बत्ती ही है.
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तिनका-तिनका जिंदगी
पिछले 6 साल से हिंदू शरणार्थी कभी टेंट, कभी प्लास्टिक तो कभी टिन की चादरों से बनी छत के नीचे किसी तरह से गुजर बसर कर रहे हैं. वक्त के साथ शरणार्थियों ने मिट्टी और ईंट के सहारे चारदीवारी बना ली. बस्ती में सफाई की कमी के कारण कई बार लोग बीमार हो जाते हैं. सर्दी और बारिश के मौसम में इनकी मुश्किलें बढ़ जाती हैं.
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दिल्ली में हिंदू शरणार्थी
पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थियों की बस्तियां दिल्ली में कई जगह आबाद हैं. आदर्श नगर के अलावा मजनूं का टीला और सिग्नेचर ब्रिज के पास सैकड़ों शरणार्थी इसी तरह से रहते हैं.
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भारत में हिंदू शरणार्थी
दिल्ली के अलावा भारत के कई और इलाकों में भी पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थी रहते हैं. भारत पाकिस्तान की सीमा पर राजस्थान और दूसरे राज्यों में दसियों हजार ऐसे लोग रहते हैं. इन्हें स्थानीय लोगों के साथ रहने की इजाजत नहीं है. नागरिकता के लिए कम से कम 7 साल भारत में रहना जरूरी है.