ऑस्ट्रेलिया का मीथेन उत्सर्जन आधिकारिक से दोगुनाः रिपोर्ट
१३ जून २०२२यूरोप स्थित शोध संस्थान एंबर को ‘लॉक द गेट अलायंस' नामक एक पर्यावरणीय संस्था ने सरकार द्वारा और अन्य स्रोतों से उपलब्ध आंकड़ों का विश्लेषण करने की जिम्मेदारी सौंपी थी. एंबर ने ऑस्ट्रेलियन ग्रीनहाउस एमिशंस इन्फॉर्मेशन सिस्टम (AGEIS), क्लीन एनर्जी रेग्युलेटर (CER), ऑस्ट्रेलियन चीफ इकनॉमिस्ट (ACE), प्राकृतिक संसाधन विभाग, ग्लोबल एनर्जी मॉनीटर और अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों का अध्ययन और विश्लेषण किया.
मीथेन एक बेहद शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है जिसका ग्लोबल वॉर्मिंग में योगदान कार्बन डाई ऑक्साइड से 25 गुना ज्यादा हो सकती है. कार्बन डाइ ऑक्साइड के बाद सबसे प्रमुख ग्रीनहाउस गैस मीथेन ही है. इसमें गर्मी को रोकने की क्षमता कार्बन डाइ ऑक्साइड से ज्यादा होती है और यह वातावरण में अधिक तेजी से मिल जाता है. यह प्राकृतिक गैस का सबसे प्रमुख घटक है. सामान्य अवस्था गैसीय होने के कारण इसे जमा कर भंडार करना तकनीकी रूप से थोड़ा मुश्किल काम है.
कारों से ज्यादा खतरनाक
रिपोर्ट में पता चला कि 2019 में ऑस्ट्रेलिया में ऊर्जा उद्योग ने कुल जितना मीथेन उत्सर्जन किया, उसमें से 68 प्रतिशत सिर्फ कोयला खदानों की वजह से हुआ. यानी कुल उत्सर्जन में इनकी हिस्सेदारी तेल और गैस से भी ज्यादा थी. रिपोर्ट की लेखिका डॉ. सबीना आसां ने कहा कि ऑस्ट्रेलिया की कारें पर्यावरण को जितना नुकसान पहुंचा रही हैं, कोयला खदानों का नुकसान उससे दोगुना है.
डॉ. आसां ने कहा, "पर्यावरण पर यह असर बहुत ज्यादा है, जबकि कोयले के जलने से होने वाले कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जन की तो हम बात ही नहीं कर रहे."
एंबर रिपोर्ट कहती है कि क्वीन्सलैंड की हेल क्रीक कोयला खदान आधिकारिक तौर पर दी गई जानकारी से दस गुना ज्यादा मीथेन उत्सर्जन कर रही है. ‘लॉक द गेट' का कहना है कि ऑस्ट्रेलिया में मीथेन उत्सर्जन असलियत से बहुत कम रिपोर्ट किया जा रहा है.
कई बातें बताती है रिपोर्ट
क्लाइमेट जस्टिस के लिए काम करने वालीं डॉ. रुचिरा तालुकदार ने सिडनी की यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी से पीएचडी की है. ऑस्ट्रेलिया स्थित साउथ एशियान क्लाइमेट सॉलिडैरिटी प्रोजेक्ट (SAPNA) की सह-संस्थापक डॉ. तालुकदार कहती हैं कि राष्ट्रीय अकाउंटिंग फ्रेमवर्क में ही दिक्कत है और इसके लिए सरकार व उद्योग दोनों जिम्मेदार हैं.
डीडब्ल्यू से बातचीत में डॉ. तालुकदार ने कहा, "यह रिपोर्ट बताती है कि उत्सर्जन की राष्ट्रीय प्रक्रिया काम नहीं कर रही है. जब कोयला खदान मालिकों को यह बताना होता है कि वे कितना उत्सर्जन कर रहे हैं, तो वे चुनिंदा आंकड़े इस्तेमाल कर रहे हैं. इस रिपोर्ट में उत्सर्जन को आंकने के नए तरीकों का इस्तेमाल किया गया है. उन्होंने उपग्रह से मिले डाटा का इस्तेमाल किया है. और जैसे कि एक विशेषज्ञ ने कहा भी है कि आकलन का आधार विस्तृत होना चाहिए ताकि सही तस्वीर पता चल सके."
रिपोर्ट ने अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के नए आंकड़े भी उजागर किए हैं जिनके मुताबिक ऑस्ट्रेलिया की कोयला खदानों से 2021 में 18 लाख टन से ज्यादा मीथेन का उत्सर्जन हुआ होगा, जो कि आधिकारिक आंकड़ों से दोगुना है.
डॉ. तालुकदार कहती हैं कि दरअसल पूरी कवायद के केंद्र में मुख्य मुद्दा यही है कि कोयले का इस्तेमाल बंद होना चाहिए, जो कार्बन उत्सर्जन का सबसे बड़ा स्रोत है. ऑस्ट्रेलिया कम उत्सर्जन के इन आंकड़ों का इस्तेमाल यह कहकर करता है कि वह बहुत बड़ा उत्सर्जक नहीं है.
डॉ. तालुकदार इस प्रक्रिया के दो पहलू समझाती हैं. वह कहती हैं कि ऑस्ट्रेलिया का कोयला भारत जाता है और उससे जो उत्सर्जन होता है, वह भारत के खाते में गिना जाता है. डॉ. तालुकदार कहती हैं, "एक तो यूं भी ऑस्ट्रेलिया का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन बहुत ज्यादा है."
ऑस्ट्रेलिया और भारत का कोयला-संबंध
भारत को ऑस्ट्रेलिया का कोयला निर्यात लगातार बढ़ रहा है. 2014 में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऑस्ट्रेलिया का दौरा किया था जिसके बाद भारतीय उद्योगपति गौतम अडाणी की कंपनी को ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड में कोयला खनन का ठेका मिला. यह ठेका और खदान लगातार ऑस्ट्रेलिया में विवादों का विषय रहे हैं और राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक मुद्दा भी बने हैं.
इसके बावजूद ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच कोयले का व्यापार लगातार बढ़ रहा है. ऑस्ट्रेलिया और चीन के रिश्ते खराब होने व भारत में घरेलू कोयला उत्पादन घटने का भी इसे खासा फायदा मिला है. हालांकि इस साल की शुरुआत में यह निर्यात कुछ घटा था जिसकी वजह बढ़ी कीमतों को माना गया. लेकिन विशेषज्ञों को उम्मीद है कि इसी साल अप्रैल में हुए, भारत-ऑस्ट्रेलिया व्यापार समझौते के बाद आयात-निर्यात कर में कटौती का इस उद्योग को भरपूर फायदा मिलेगा.
डॉ. तालुकदार कहती हैं कि ऑस्ट्रेलिया में निकाला गया कोयला यदि भारत में जलाया जाता है तो भारत का उत्सर्जन बढ़ता है लेकिन यह रिपोर्ट इस बात को रेखांकित करती है कि कोयले का उत्पादन अपने आप में ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए बहुतायत में जिम्मेदार है इसलिए इस पर उत्पादन के स्तर पर ही नियंत्रण की जरूरत है.