बांग्लादेशः वेतन की मांग करते कपड़ा उद्योग कर्मचारी
१९ अप्रैल २०२०
बांग्लादेश में कोरोना वायरस के कारण यहां का कपड़ा उद्योग भी ठप्प है. कर्मचारी बिना काम के घर पर बैठे हैं. ऐसे में वे अब वेतन की मांग करने के लिए बाहर निकल जा रहे हैं.
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कोरोना वायरस महामारी से निपटने के लिए बांग्लादेश में भी लॉकडाउन लागू है और लोगों से सामाजिक दूरी बनाए रखने को कहा जा रहा है. लेकिन शनिवार को सैकड़ों की संख्या में कपड़ा फैक्ट्री में काम करने वाले कर्मचारी सड़कों पर आकर वेतन और काम की मांग करने लगे. चीन के बाद बांग्लादेश में ही सबसे ज्यादा कपड़े बनते हैं. कोरोना वायरस के कारण रिटेलर्स अपने ऑर्डर रद्द कर रहे हैं और ऐसे में देश को 6 अरब डॉलर का नुकसान हो सकता है. यह दावा देश के दो उद्योग संगठनों ने किया है. शनिवार 18 अप्रैल को देश में कोरोना वायरस के 306 नए मामले सामने आए और अब तक इस वायरस से 84 लोगों की मौत हो चुकी है. हालांकि यह आंकड़े यूरोप के कुछ प्रभावित क्षेत्र, चीन और अमेरिका जैसे देशों के मुकाबले कम है.
हालांकि स्वास्थ्य अधिकारियों ने चेतावनी दी है कि देश में संक्रमण फैल सकता है. बांग्लादेश में लाखों की संख्या में लोग झुग्गी बस्तियों में रहते हैं और देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की हालत नाजुक है. बांग्लादेश में लॉकडाउन को लागू कराने के लिए सेना को सड़कों पर उतारना पड़ा है. देश में तालाबंदी के दौरान यात्राएं और लोगों को जमा होने से रोकने के लिए सेना की मदद ली जा रही है. चटगांव में कर्मचारियों की भीड़ ने कहा कि वे अब तक पिछले महीने (मार्च) के वेतन का इंतजार कर रहे हैं. समाचार एजेंसी रॉयटर्स को स्थानीय पुलिस अधिकारी मोहम्मद जमीरुद्दीन ने बताया कि प्रशासन ने एक फैक्ट्री मालिक से वेतन के बारे में बात की है और उसने 28 अप्रैल तक पगार देने का वादा किया है.
विरोध प्रदर्शन के दौरान सामाजिक दूरी का पालन नहीं.तस्वीर: bdnews24.com
बांग्लादेश की सरकार ने पिछले महीने कपड़ा उद्योग की मदद के लिए 588 मिलियन डॉलर के राहत पैकेज की घोषणा की थी. सरकार ने वित्तीय सहायता के जरिए कपड़ा उद्योग को कर्मचारियों को वेतन देने को कहा था. हालांकि फैक्ट्री मालिकों का कहना है कि यह पर्याप्त नहीं है. चीन के बाद बांग्लादेश दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कपड़ा सप्लायर है. वह अधिकतर बड़े ब्रांडों पर निर्भर रहता है. बांग्लादेश में कपड़ा उद्योग में 40 लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ है, जिनमें ज्यादातर महिलाएं हैं. कोरोना वायरस से निपटने के लिए एक के एक बाद कई देशों में सख्त प्रतिबंध लागू हैं जिसके कारण कामकाज और कारोबार बंद हो गया है.
एए/एनआर (रॉयटर्स)
क्या मलेरिया की दवा से ठीक होता है कोरोना?
डॉनल्ड ट्रंप ने भारत से मलेरिया की दवा हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन मंगाई थी. लेकिन क्या यह दवा वाकई कोविड-19 का इलाज कर सकती है?
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किस दवा की बात हो रही है?
डॉनल्ड ट्रंप भारत से जो दवा मंगाना चाहते हैं उसका नाम है हाइड्रॉक्सी-क्लोरोक्वीन. 1940 के दशक से इस दवा का इस्तेमाल मलेरिया का इलाज करने के लिए होता रहा है.
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मलेरिया और कोरोना का क्या नाता है?
मलेरिया मच्छर के काटने से होता है और कोविड-19 वायरस से. इसलिए दोनों का एक दूसरे से कोई लेना देना नहीं है. ऐसा नहीं है कि जिन लोगों को मलेरिया का खतरा ज्यादा होता है उन्हें कोविड-19 का खतरा भी होगा.
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कोरोना के लिए मलेरिया की दवा क्यों?
हाइड्रॉक्सी-क्लोरोक्वीन का इस्तेमाल मलेरिया के अलावा ऑटो-इम्यून बीमारियों को ठीक करने के लिए भी होता रहा है. कोरोना वायरस शरीर के इम्यून सिस्टम पर हमला करता है. इसलिए इस दवा से इम्यून सिस्टम को बचाने की बात हो रही है.
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क्या अमेरिका के पास नहीं है यह दवा?
ऐसी रिपोर्टें हैं कि अमेरिका में यह दवा पहले से ही भारी मात्रा में मौजूद है लेकिन डॉनल्ड ट्रंप इसे स्टॉक करना चाह रहे हैं. अमेरिका में बिना डॉक्टर की पर्ची के भी यह दवा खरीदी जा सकती है लेकिन इस बीच आम लोग इसे नहीं खरीद पा रहे हैं.
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डॉक्टरों का क्या कहना है?
खुद अमेरिका में ही डॉक्टरों की राय इस पर बंटी हुई है. ट्रंप के समर्थक इसे आजमाने की पैरवी कर रहे हैं लेकिन अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन की अध्यक्ष का कहना है कि वे इसके इस्तेमाल की सलाह नहीं देंगी.
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रिस्क क्या है?
इस दवा का साइड इफेक्ट होने पर दिल पर बुरा असर पड़ सकता है. ब्लड प्रेशर कम हो सकता है, मांसपेशियों और नसों को नुकसान हो सकता है. सीने में दर्द के साथ साथ धड़कनें कम हो सकती हैं.
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क्या पहले कभी इस्तेमाल हुई है?
राजस्थान में डॉक्टरों ने स्वाइन फ्लू, मलेरिया और एचआईवी की दवाओं को मिला कर इस्तेमाल किया और उन्हें सफलता मिली. हालांकि इस मिश्रण के बाकी मरीजों पर इस्तेमाल की बात सामने नहीं आई है.
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कहां से आया दवा के इस्तेमाल का आइडिया?
किसी भी दवा को मरीजों पर तब ही इस्तेमाल किया जाता है जब लैब में उस पर टेस्ट हो चुके हों. इस दवा के मामले में भी ऐसा ही है. कुछ ऐसे टेस्ट हुए जिनके परिणाम आशाजनक दिखाई दिए.
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रिसर्च क्या कहती है?
एक रिसर्च ने दिखाया कि इस दवा के सेवन से कोरोना वायरस का शरीर की कोशिकाओं में प्रवेश करना मुश्किल हो जाता है. एक अन्य रिसर्च के अनुसार इस दवा लेने से मरीजों को कोई फायदा नहीं हुआ. लेकिन यह रिसर्च सिर्फ 11 लोगों पर की गई.
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क्या ज्यादा लोगों पर भी हुई रिसर्च?
चीन में हुई एक रिसर्च ने दिखाया कि 10 अस्पतालों में कुल 100 मरीजों को जब यह दवा दी गई तो उनकी तबियत में सुधार आया. लेकिन तुलना करने के लिए इस रिसर्च में ऐसे मरीजों का कोई आंकड़ा नहीं था जिन्हें यह दवा नहीं दी गई.
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ट्रंप ने कौन सी रिसर्च पढ़ी?
डॉनल्ड ट्रंप ने कहा है, "फ्रांस में उन्होंने (रिसर्चरों ने) एक बहुत अच्छा टेस्ट किया है." इसी को आधार बनाते हुए उन्होंने अमेरिका में इसके इस्तेमाल की अनुमति दी है.
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कितनी विश्वसनीय है फ्रांस की रिसर्च?
मार्च में जब फ्रांस में कोरोना वायरस फैलने लगा तब वहां कुछ रिसर्चरों ने हाइड्रॉक्सी-क्लोरोक्वीन पर शोध शुरू किया. इस शोध पर अमेरिकी चैनल फॉक्स न्यूज पर हुई चर्चा के तुरंत बाद ट्रंप ने इसकी तारीफ शुरू कर दी.
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WHO का क्या कहना है?
विश्व स्वास्थ्य संगठन इस वक्त कोरोना वायरस पर छह अलग अलग दवाओं को टेस्ट कर रहा है. इस वायरस को ले कर जल्दी प्रतिक्रिया ना देने को लेकर WHO की काफी आलोचना हो रही है.
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अब आगे क्या?
कोरोना स्थिति को देखते हुए अमेरिका समेत कई देश लैब टेस्टिंग का इंतजार नहीं करना चाहते हैं. ऐसे में बहुत मुमकिन है कि मौजूदा मरीजों पर ही ट्रायल एंड एरर किया जाएगा और शायद उसके बाद ही पता चलेगा कि दवा कारगर है या नहीं.