बर्लिन के मशहूर फिल्म फेस्टिवल में मची है मराठी फिल्म की धूम
२१ फ़रवरी २०२३
भारत बहुत से धर्मों, त्योहारों और भाषाओं का देश है. इसी तरह भारत संयोगों पर विश्वास करने का देश भी है. सिर्फ 75 साल पहले अपना भविष्य खुद तय करने की छूट पाए लोगों में दुनिया पर अपनी छाप छोड़ने की ललक कूट-कूट कर भरी है. यह छाप छोड़ने की ललक भी कई बार संयोगों पर विश्वास करने की वजह बनती है.
ऐसे ही प्रयास में ऐतिहासिक घटनाक्रमों को अपने मुख्य किरदार की जिंदगी से जोड़ती है फिल्म, आत्मपॅम्फ्लेट. फिल्म असल में है क्या, ये पूछने पर निर्देशक आशीष भेंडे ने डीडब्ल्यू को बताया, "यह एक कॉमेडी फिल्म है, जो ऊपर-ऊपर से लव स्टोरी दिखती है, लेकिन यह बर्लिनाले में चुनी गई है तो जाहिर है कि यह सिर्फ लव स्टोरी ही नहीं, बल्कि राजनीतिक व्यंग्य भी है.”
"देश भी मेरी तरह मील के पत्थर पार कर रहा था”
फिल्म में मुख्य किरदार के जीवन की घटनाओं को इमरजेंसी से नब्बे के पूरे दशक की ऐतिहासिक घटनाओं से जोड़ा गया है. इसकी शुरुआत देखकर मिडनाइट्स चिल्ड्रेन की याद आती है, लेकिन फिल्म आगे बढ़ने के साथ ही साफ हो जाता है कि ऐतिहासिक घटनाओं का किरदारों से जोड़ा जाना सिर्फ भारतीय समाज में संयोगों पर विश्वास की अहमियत दिखाने के लिए है और असल में फिल्म संयोगों में विश्वास करने की सोच का मजाक उड़ा रही है.
फिल्म का नाम आत्मपॅम्फ्लेट इसलिए है कि आत्मकथा लिखे जाने के लिए आमतौर पर इंसान का बहुत महत्व का होना जरूरी होता है, ताकि दूसरे भी उसके जीवन की कहानियों से सीख लेकर महत्वपूर्ण बन सकें. लेकिन आत्मपॅम्फ्लेट का मुख्य किरदार इतने महत्व का नहीं है, उसकी कहानी कोई कथा न बनकर पैम्फ्लेट छपने लायक भर ही है. हालांकि अब उस पर पूरी फिल्म ही बन चुकी है.
गांधी-गोडसे, अंबेडकर-सावरकर पर भी करती है बात
फिल्म 80 और 90 के दशक में किशोरावस्था के प्यार को दिखाती है, लेकिन इसके साथ ही वह उस दौर की राजनीतिक गतिविधियों पर टिप्पणी भी करती जाती है. फिल्म की कहानी निर्देशक आशीष भेंडे ने खुद ही लिखी है, लेकिन स्क्रीनप्ले लिखवाया है हरिश्चंद्रची फैक्ट्री जैसी मशहूर फिल्म के लेखक-निर्देशक रहे परेश मोकाशी से.
बिना इंटरनेट वाले दौर में रची-बसी यह फिल्म बच्चों के दुनिया की जटिलताओं को समझने की कोशिशों को बखूबी कैप्चर करती है. आत्मपॅम्फ्लेट का साधारण बच्चे के संघर्ष को मजाकिया अंदाज में पेश करना, फॉरेस्ट गंप की याद दिलाता है. बाकी बची-खुची जरूरत इसका महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाक्रमों का जिक्र करना और धर्म, जाति, व्यक्तिपूजा जैसे विषयों पर टिप्पणी करना पूरी कर देता है.
‘लिखाई सटीक थी, तो शूट करने में लगे बस 36 दिन'
हालांकि ट्रीटमेंट के मामले में यह काफी अलग है. किरदार को ऐतिहासिक घटनाओं से जोड़ने के बाद भी हम किरदार को किसी ऐतिहासिक घटना के बीच नहीं देखते. वो सिर्फ इसके प्रभाव झेल रहा होता है. मजे की बात यह है कि फिल्म को शूट भी बेहतरीन ढंग से किया गया है. निर्देशक आशीष भेंडे ने डीडब्ल्यू को बताया कि उन्होंने फिल्म को मात्र 36 दिनों में ही शूट कर लिया था. आशीष कहते हैं, "फिल्म को इतने अच्छे से शूट किया गया था कि इसका पहला कट 95 मिनट का बना था और रिलीज करते हुए यह 90 मिनट की है. इसका मतलब कि फिल्म में सिर्फ 5 मिनट के सीन ही काटने की जरूरत पड़ी.”
आत्मपॅम्फ्लेट इस मामले में भी पहली मराठी फिल्म है, जिसमें तीन बड़े प्रोड्यूसर जी स्टूडियोज, आनंद एल राय और भूषण कुमार साथ आ रहे हैं. बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में निर्देशकों की मुलाकात फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर्स से भी होती है. यह भी एक मौका होगा फिल्म को ज्यादा दर्शकों तक पहुंचाने का.