करारी हार से बचे बाइडेन ने कहा, लोकतंत्र के लिए अच्छा रहा
१० नवम्बर २०२२
अमेरिका के मध्यावधि चुनाव के नतीजे डेमोक्रैटिक पार्टी के लिए उतने बुरे नहीं रहे जितने की आशंका थी. पार्टी हाउस ऑफ रिप्रजेंटिव में भले ही पिछड़ गई है लेकिन कुल मिलाकर उसे निराशा नहीं मिली है.
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अमेरिका में मध्यावधि चुनावों के नतीजे आने शुरू होने के बाद से अपने पहले भाषण में वहां के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा कि सब कुछ "लोकतंत्र के लिए अच्छा रहा.”
बाइडेन ने कहा, "हाल के सालों में हमारे लोकतंत्र की परीक्षा हुई है. लेकिन अपने मतदान के साथ अमेरिकी लोगों ने फैसला सुना दिया है और एक बार फिर साबित किया है कि हमारी पहचान लोकतंत्र है. हालांकि मीडिया और पंडित एक विशाल लाल लहर की भविष्यवाणी कर रहे थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ.”
अधिकतर नतीजे आने के बाद स्पष्ट है कि बाइडेन की डेमोक्रैटिक पार्टी ने मंगलवार के चुनावों में भारी पराजय की आशंका को टाल दिया है. हालांकि अभी यह नहीं कहा जा सकता कि 2024 के बाद भी उनके लिए उम्मीदें बची हुई हैं.
अब तक कई भारतीय मूल के लोग दुनिया भर की सरकारों में तमाम अहम पद संभाल चुके हैं. अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा से लेकर मॉरीशस, फिजी, गुयाना जैसे देशों में भी भारतवंशी नेताओं का लंबा इतिहास रहा है.
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ऋषि सुनक
ऋषि सुनक ब्रिटेन के पहले प्रधानमंत्री बन रहे हैं जो भारतीय मूल के हैं. कंजरवेटिव पार्टी के सदस्य ऋषि सुनक फरवरी 2020 से ब्रिटिश कैबिनेट में वित्त मंत्री रहे हैं. इसके पहले वह ट्रेजरी के मुख्य सचिव थे. ऋषि सुनक 2015 में रिचमंड (यॉर्क) से संसद सदस्य के रूप में चुने गए थे. सुनक भारत की कंपनी इन्फोसिस के सह-संस्थापक नारायण मूर्ति और लेखिका सुधा मूर्ति के दामाद हैं.
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कमला हैरिस
अमेरिका में नवंबर में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों में डेमोक्रैट पार्टी की ओर से उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवार चुनी गई हैं कमला हैरिस. वह डेमोक्रैट पार्टी की ओर से अमेरिकी कांग्रेस में पांच सीटों पर काबिज भारतीय मूल के सीनेटरों में से एक हैं. कमला हैरिस की मां का नाम श्यामला गोपालन है. किशोरावस्था तक कमला हैरिस अपनी छोटी बहन माया हैरिस के साथ अकसर तमिलनाडु के अपने ननिहाल में आया करती थीं.
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निक्की हेली
संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की दूत रह चुकीं निक्की हेली का नाम बचपन में निमरता निक्की रंधावा था. 2016 में अमेरिका के राष्ट्रपति बने डॉनल्ड ट्रंप के प्रशासन में जगह पाने वाली वह भारतीय मूल की पहली राजनेता बनीं. इससे पहले वह दो बार साउथ कैरोलाइना की गवर्नर रह चुकी थीं. उनके पिता अजीत सिंह रंधावा और मां राजकौर रंधावा का संबंध पंजाब के अमृतसर जिले से है. शादी के बाद उन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया.
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बॉबी जिंदल
भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक के रूप में सबसे पहले बॉबी जिंदल लुइजियाना के गवर्नर बने थे. इस तरह निक्की हेली अमेरिका में किसी राज्य की गवर्नर बनने वाली भारतीय मूल की दूसरी अमेरिकी नागरिक हुईं. जिंदल एक बार रिपब्लिकन पार्टी की ओर से अमेरिका के राष्ट्रपति पद के लिए दावेदारी भी पेश कर चुके हैं. उनके माता पिता भारत से अमेरिका जाकर बसे थे.
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प्रीति पटेल
ब्रिटेन की पहली भारतीय मूल की गृह मंत्री बनीं पटेल हिंदू गुजराती प्रवासियों के परिवार से आती हैं. माता-पिता पहले अफ्रीका के युगांडा जाकर बसे थे जहां उनका जन्म हुआ. 1970 के दशक में उनका परिवार ब्रिटेन आकर बसा. 2010 में कंजर्वेटिव पार्टी से चुनाव जीतकर ब्रिटिश संसद पहुंची प्रीति पटेल खुद बाहर से आकर देश में शरण लेने के इच्छुकों के प्रति काफी सख्त रवैया रखती हैं.
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अनीता आनंद
कनाडा की कैबिनेट में भारतीय मूल के लोगों की भरमार है. पब्लिक सर्विसेज एंड प्रोक्योरमेंट की केंद्रीय मंत्री अनीता इंदिरा आनंद कनाडा की कैबिनेट में शामिल होने वाली पहली हिंदू महिला हैं. इससे पहले वह टोरंटो विश्वविद्यालय में कानून की प्रोफेसर थीं. भारत से आने वाले इनके माता पिता मेडिकल पेशे से जुड़े रहे. मां स्वर्गीया सरोज राम अमृतसर से और पिता एसवी आनंद तमिलनाडु से आते हैं.
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नवदीप बैंस
ट्रूडो कैबिनेट में साइंस, इनोवेशन एंड इंडस्ट्री मंत्री नवदीप बैंस कनाडा के ओंटारियो प्रांत में जन्मे थे. सिख धर्म के मानने वाले इनके माता पिता भारत से वहां जाकर बसे थे. 2004 में केवल 26 साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला चुनाव जीता और कनाडा की संसद में लिबरल पार्टी के सबसे युवा सांसद बने. अपने राजनीतिक करियर में बैंस ने हमेशा इनोवेशन को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा देने की दिशा में काम किया है.
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हरजीत सज्जन
भारत के पंजाब के होशियारपुर में जन्मे हरजीत सज्जन इस समय कनाडा के रक्षा मंत्री हैं. कनाडा की सेना में लेफ्टिनेंट-कर्नल के रूप में सेवा दे चुके सज्जन इससे पहले 11 सालों तक पुलिस विभाग में भी काम कर चुके हैं. पंजाब में ही जन्मे नेता हरबंस सिंह धालीवाल 1997 में कनाडा की केंद्रीय कैबिनेट के सदस्य बनने वाले पहले भारतीय-कनाडाई थे.
तस्वीर: Reuters/C. Wattie
महेन्द्र चौधरी
दक्षिणी प्रशांत महासागर क्षेत्र में बसे द्वीपीय देश फिजी में भारतीय मूल के लोग ना केवल सांसद या मंत्री बल्कि देश के प्रधानमंत्री तक बने हैं. यहां की 38 फीसदी आबादी भारतीय मूल की ही है. लेबर पार्टी के नेता चौधरी को 1999 में देश का प्रधानमंत्री चुना गया. लेकिन एक साल के बाद ही एक सैन्य तख्तापलट से सरकार गिर गई. एक बार फिर 2006 के संसदीय चुनाव जीत कर वह वित्त मंत्री बने.
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लियो वरादकर
2017 में आयरलैंड के सबसे युवा प्रधानमंत्री बने लियो वरादकर कंजरवेटिव फिन गेल पार्टी से आते हैं. डब्लिन में पैदा हुए और पेशे से डॉक्टर वरादकर 2007 में पहली बार सांसद बने. 2015 में समलैंगिक विवाह पर आयरलैंड में हुए जनमत संग्रह के दौरान उन्होंने सार्वजनिक तौर पर घोषित किया कि वे खुद समलैंगिक हैं. उनके पिता अशोक मुंबई से आए एक डॉक्टर थे और आयरलैंड में मिरियम नाम की एक नर्स के साथ शादी कर वहीं बस गए.
तस्वीर: DW/G. Reilly
एंतोनियो कॉस्ता
पुर्तगाल के प्रधानमंत्री एंतोनियो कॉस्ता भारत में गोवा से ताल्लुक रखते हैं. 2017 में वह प्रवासी भारतीय सम्मान से नवाजे गए थे. खुद सोशलिस्ट विचारधारा के समर्थन कॉस्ता ज्यादा से ज्यादा प्रवासियों के अपने देश में आने का स्वागत करते हैं. पहले उनके पिता गोआ से मोजाम्बिक गए और फिर उनका परिवार पुर्तगाल में बसा.
तस्वीर: Getty Images/AFP/K. Tribouillard
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इस बार के मध्यावधि चुनावों के नतीजे हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव में हार के बावजूद डेमोक्रैट पार्टी की आदर्श परंपरा से कुछ अलग हैं. राष्ट्रपति की पार्टी मध्यावधि चुनावों में इससे बड़ी हार देखती रही है. राष्ट्रपति की अप्रूवल रेटिंग 40 के आसपास रहने, अत्यधिक महंगाई को लेकर चिंता के बीच रिपब्लिकन पार्टी ने संसद के दोनों सदनों पर कब्जे का ख्वाब सजाया था जो लगता नहीं कि पूरा हो सकेगा. इन नतीजों ने यह सवाल उठा दिया है कि इसी महीने 80 साल के होने जा रहे अमेरिका के सबसे बुजुर्ग राष्ट्रपति क्या एक और कार्यकाल के लिए मैदान में उतरेंगे.
बाइडेन ने हालांकि ऐसा संकेत दिया है और कहा है कि वह अपने परिवार से इस बारे में सलाह मश्विरा करेंगे. जो बाइडेन इस मामले में अपने पूर्ववर्ती डेमोक्रैट राष्ट्रपतियों बराक ओबामा और बिल क्लिंटन से काफी अच्छी हालत में हैं. इन दोनों ने मध्यावधि चुनाव के काफी खराब नतीजों का सामना किया था. हालांकि फिर भी हाउस हाथ से निकल जाने के बाद बाइडेन के लिए मुश्किलें बढ़ेंगी.
ऐसे देश में जहां विभाजन बहुत ज्यादा है लंबे समय के सीनेटर और बाइडेन जैसे उदार डेमोक्रैट को भी रिपब्लिकन नेतृत्व वाले सदन को अपने साथ लाने के लिए काफी मशक्कत करनी होगी. उनके एजेंडे का एक बड़ा हिस्सा ऐसी स्थिति में अधूरा ही रह जायेगा.
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मुश्किलें बहुत हैं
एक सवाल यह भी है कि क्या रिपब्लिकन नेतृत्व राष्ट्रपति को जिम्मेदार ठहराने के अपने वादे पर टिका रहेगा क्योंकि भले ही बहुमत मामूली हो लेकिन उसे ऐसा करने का अधिकार तो मिल ही जायेगा. इसका नतीजा बाइडेन को निशाना बनाने वाले अंतहीन संसदीय जांचों के रूप में सामने आ सकती है.
हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव पर नियंत्रण के साथ रिपब्लिकन सांसद राष्ट्रपति पर संघीय बजट में कटौती के लिए दबाव बनायेंगे. जहां तक सीनेट का सवाल है तो उसके पास बड़ी ताकत तो है लेकिन उसका पलड़ा अब भी लगभग बराबरी पर झूल रहा है. इसके बाद भी बाइडेन और उनकी डेमोक्रैटिक पार्टी के सामने बड़ा सवाल यही है कि 2024 में पार्टी का झंडा कौन उठायेगा.
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अब तक राष्ट्रपति यही कहते रहे हैं कि वह दूसरे कार्यकाल के लिए दावा ठोकेंगे और इससे अलग कोई भी सुझाव से तत्काल उनका असर और अधिकार कम होगा. हालांकि अमेरिका की जनता और उनकी अपनी पार्टी में भी किसी अस्सी साल के कमांडर को फिर से व्हाइट हाउस की रेस में खड़ा करने की बहुत इच्छा नहीं दिख रही है.
दिग्गज डेमोक्रैट 2024 के लिए अपने इरादों के बारे में अमेरिका को कयास लगाने के लिए छोड़ सकते हैं लेकिन उनके प्रतिद्वंद्वी समय से पहले ही अपनी दावेदारी मजबूत करने में जुटे हैं. अगले मंगलवार को फ्लोरिडा में डॉनल्ड ट्रंप इसका ऐलान भी कर सकते हैं.