बिहार: एक बार फिर बड़े भाई की भूमिका में नीतीश कुमार
४ जून २०२४बिहार के लोकसभा नतीजों से साफ हो गया है कि नीतीश कुमार का वोटबैंक उनके साथ मजबूती से खड़ा है. अति पिछड़ी जातियों और महिलाओं ने उन्हें एक बार फिर जमकर वोट दिया है. वहीं लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी के वादों पर भी काफी हद तक एतबार जताया है.
उधर चार सीटें जीतकर लालू प्रसाद की पार्टी आरजेडी को संजीवनी तो मिल गई, किंतु तेजस्वी यादव की ताबड़तोड़ जनसभाओं का अपेक्षित परिणाम पार्टी को नहीं मिला. एम-वाई समीकरण भी दरकता हुआ नजर आया. प्रदेश की हॉट सीटों में शुमार पूर्णिया निर्दलीय, समस्तीपुर एलजेपी, सारण बीजेपी और काराकाट वामदल के खाते में गई.
पूर्णिया ऐसी सीट रही, जहां पप्पू यादव ने अपनी जन अधिकार पार्टी इस उम्मीद के साथ कांग्रेस में विलय कर दी कि उन्हें वहां से टिकट मिल जाएगा. लेकिन बंटवारे में यह सीट आरजेडी के खाते में चली गई. फिर पप्पू यादव ने वहां से बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ा. उनका दावा था कि आरजेडी ने उन्हें टिकट देने का वादा किया था, लेकिन बाद में जेडीयू से आईं विधायक बीमा भारती को टिकट दे दिया गया.
आखिरकार संसद पहुंचेंगी मीसा भारती
इस बार आरजेडी ने 23 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे. लालू प्रसाद के लिए निजी तौर पर राहत की बात यह रही कि उनकी बड़ी बेटी मीसा भारती लगातार दो लोकसभा चुनाव हारने के बाद पाटलिपुत्र सीट जीतने में कामयाब रहीं. यहां उन्होंने बीजेपी के रामकृपाल यादव को हराया. लेकिन, दूसरी ओर लालू को किडनी देने वाली उनकी बेटी रोहिणी आचार्य को सारण में बीजेपी के राजीव प्रताप रूडी के हाथों हार का सामना करना पड़ा. रोहिणी के लिए लालू ने सारण में रहकर जोरदार प्रचार किया था. वहीं मीसा के लिए मोर्चा मां राबड़ी देवी ने संभाल रखा था. पर सारण में लालू का तिलिस्म बेटी की नैय्या पार नहीं लगा सका.
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बिहार में इंडिया गठबंधन के अन्य सहयोगियों- कांग्रेस, वीआईपी और वामदलों का प्रदर्शन भी कुछ खास नहीं रहा. हालांकि, उन्हें जितनी सीटों पर जीत मिली है, वह 2019 की तुलना में उपलब्धि ही मानी जाएगी. आरजेडी को पूरी चार, भाकपा-माले को दो और कांग्रेस को दो सीटों का फायदा हुआ है. पिछले आम चुनाव में एनडीए की 39 सीटों के मुकाबले विपक्ष से सिर्फ कांग्रेस ने इकलौती सीट किशनगंज से जीती थी.
इंडिया गठबंधन को कैसे मिली सफलता?
इंडिया गठबंधन के एक अन्य सहयोगी मुकेश सहनी की विकासशाली इंसान पार्टी तीनों सीट पर पिछड़ गई. तेजस्वी ने मुकेश के साथ पूरे बिहार में खूब दौरे किए थे. उम्मीद थी कि मुकेश निषाद जाति के लोगों के वोट आरजेडी को दिलाने में कामयाब होंगे.
राजनीतिक समीक्षक अरुण कुमार चौधरी कहते हैं, ‘‘जिन सीटों पर इस बार इंडिया गठबंधन को जीत मिली है, वहां कुछ न कुछ स्थानीय कारण प्रभावी रहे. जहानाबाद में अरुण कुमार के खड़े हो जाने के कारण वोट बंटा. बक्सर में अश्विनी चौबे का टिकट काटना और बाहरी प्रत्याशी थोपना मंहगा पड़ा. वहीं काराकाट में भोजपुरी अभिनेता पवन सिंह ने लड़ाई को त्रिकोणीय बना दिया. पाटलिपुत्र में रामकृपाल यादव और आरा में केंद्रीय मंत्री आरके सिंह की हार भी जातिगत ध्रुवीकरण के कारण ही हुई. लालू द्वारा मोदी का डर दिखाना भी कारगर नहीं हो सका.''
फिर बड़े भाई की भूमिका में नीतीश
अब राज्य में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक बार फिर बड़े भाई की भूमिका में दिखेंगे. हालांकि, उनकी पार्टी जेडीयू ने 12 सीट पर ही जीत दर्ज की है, लेकिन बीजेपी को भी इतनी ही सीटें मिली हैं. जेडीयू ने 14 और बीजेपी ने 17 उम्मीदवार उतारे थे. जेडीयू का स्ट्राइक रेट बीजेपी से बेहतर रहा. इनकी सहयोगी व चिराग पासवान की पार्टी एलजेपी ने पांच जगहों पर चुनाव लड़ा था और सभी पर जीत दर्ज की. 2019 की तुलना करें, तो बीजेपी को पांच और जेडीयू को चार सीट का नुकसान हुआ है.
पत्रकार शिवानी सिंह कहती हैं, ‘‘केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय, गिरिराज सिंह व आरके सिंह को जिस तरह कड़ी टक्कर मिली है, उस पर बीजेपी को चिंतन करना चाहिए. आरके सिंह तो हार ही गए. साथ ही, यह भी देखने की जरूरत है कि बीजेपी को जेडीयू का वोट किस हद तक ट्रांसफर हो सका. अगर जमीन पर ऐसा वाकई हुआ होगा, तो उसे पांच सीटों का नुकसान नहीं होता.''
वैसे बिहार के चुनावी नतीजों में यह साफ दिख रहा कि अगर बीजेपी नीतीश कुमार को वापस अपने खेमे में नहीं लाती, तो उसे उत्तर प्रदेश की तरह ही खासा नुकसान संभव था. बीजेपी को अब नीतीश कुमार को मजबूती से अपने साथ जोड़े रखना पड़ेगा. इसमें कोई दोराय नहीं कि नीतीश केंद्र की सरकार के साथ-साथ आगामी बिहार विधानसभा चुनाव के लिए भी बीजेपी की मजबूरी बन चुके हैं. पर उनके अतीत को देखते हुए अटकलें एक बार फिर तेज हैं कि कहीं नीतीश फिर से न पलट जाएं.