बिहार के गांव, जिनमें नहीं दिखते हैं पुरुष
११ नवम्बर २०२५
जहानाबाद के नसरत गांव में हर जगह केवल महिलाएं दिखाई देंगी. शादी के तुरंत बाद पुरुष काम के लिए घर छोड़ देते हैं. जूली देवी की शादी वर्ष 2017 में अनिल कुमार से हुई. अगले ही महीने अनिल बेंगलुरु चले गए. जहां वह इलेक्ट्रीशियन का काम करते हैं.
बिहार में रोजगार की तलाश में आप्रवासनआम बात है. दिल्ली, महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब और दक्षिण भारत इलाकों में काम करने वाले मजदूरों में बिहार के पुरुषों की संख्या काफी ज्यादा है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग 74.54 लाख लोग बिहार से बाहर काम करने जाते हैं.
जहां प्रवास पुरुषों के लिए आर्थिक अवसर लाता है. वहीं महिलाओं पर भी इसका काफी ज्यादा असर पड़ता है. नसरत जैसे बिहार के ऐसे सैकड़ों गांव हैं जहां पति अपनी पत्नियों को गांव में ही छोड़ गए हैं. वे केवल छठ जैसे पर्व या किसी विशेष अवसर पर ही घर लौटते हैं.
क्या बिहार में सिर्फ वोटर बनकर रह जाएंगी महिलाएं
मजदूरों के तौर पर होता है शोषण
नसरत पटना से केवल 50 किलोमीटर दूर है. गांव में महिलाएं अपने पतियों के भेजे पैसों से घर चलाती हैं. यहां एक किराना दुकान है. इस दुकान में लगभग हर महिला का उधार खाता चलता है. क्योंकि घर के खर्च भेजे गए पैसों से पूरे नहीं होते.
पति के बिना अकेली महिलाओं पर काम का बोझ भी बढ़ जाता है. जूली के पति महीने का पंद्रह हजार रूपए कमाते हैं. हर महीने वह दस हजार रूपए घर भेजते हैं. जूली बताती हैं कि बच्चों की पढ़ाई, सास-ससुर की देखभाल और पूरा घर संभालने की जिम्मेदारी उन्हीं की है.
जूली ने डीडब्लू से बातचीत में कहा, "दस हजार रुपये में पांच लोगों का खर्च नहीं चलता. बच्चे की पढ़ाई और सास की दवाई का खर्च बहुत होता है. घर चलाने के लिए हर महीने कम से कम बीस हजार रूपए चाहिए. देवर और ननद पढ़े-लिखे हैं, पर नौकरी नहीं मिल रही. इसलिए मुझे ही घर से बाहर जाकर कुछ पैसे कमाने पड़ते हैं.”
जूली कहती हैं कि जब कोई महिला अकेली होती है, तो खेत के जमींदार उसका फायदा उठाते हैं. महिलाएं अपने हक या सही मजदूरी की मांग नहीं कर पातीं. उन्हें डर रहता है कि अगर कुछ बोलेंगी तो काम छिन जाएगा. गांव में खेती के काम के अलावा महिलाओं के पास कमाई करने का और कोई विकल्प भी नहीं है.
जूली कहती हैं, "मैं और मेरी सास दोनों खेत में दिनभर काम करते हैं. सुबह 9 बजे निकलते हैं. शाम 6 बजे तक खेत में ही रहते हैं. इतने लंबे काम के बदले हमें सिर्फ सौ रुपये मिलते हैं. जबकि मर्दों को तीन सौ रुपये दिए जाते हैं. सब मालिक ऐसा ही करते हैं. अगर हम कुछ कहें, तो फिर हमें काम ही नहीं मिलेगा.”
पति से दूर रहने वाली जितनी भी महिलाओं से हमने बाद की, उन्होंने इस मसले पर दुख जाहिर किया. जूली के पति साल में सिर्फ एक बार, जनवरी में घर आते हैं और होली के बाद फिर बेंगलुरु लौट जाते हैं.
उदास चेहरे के साथ जूली कहती हैं, "जब पति साथ होते हैं, काम बांटने में आसानी होती है. अपने सुख-दुख साझा कर सकते हैं. बच्चों की परवरिश बेहतर होती है. उनके बिना मेरा ख्याल रखने वाला कोई नहीं है. अगर मैं बीमार हो जाऊं तो डॉक्टर के पास खुद ही जाती हूं, दवा लेती हूं और ठीक होते ही फिर काम पर लग जाती हूं. अब तो बस फोन पर ही उनसे बात होती है. छठ जैसे त्योहारों पर उनके बिना बहुत खालीपन महसूस होता है."
गांव में महिलाओं को यह डर भी रहता है कि अगर उनके पति वापस ना लौटे तो? कई राज्यों में बिहार के आप्रवासियों पर होने वाले हमले और मारपीट की खबरें इन्हें परेशान करती हैं. जूली कहती हैं कि नीतीश सरकार ने कुछ नहीं किया. वो कहती हैं, "अगर गांव में कंपनियां होतीं, तो यह सवाल ही नहीं उठता कि पति के बिना हम कैसे रहें.”
कर्ज और उधार के बोझ तले महिलाएं
गांव में कई महिलाओं ने अपनी बेटी की शादी या पशु खरीदने के लिए उधार लिया है. अब उसे चुकाने की जिम्मेदारी उनकी अकेले की है. सुनैना देवी के पति चेन्नई में मजदूरी करते हैं. महीने का पांच से दस हजार घर भेजते हैं. सुनैना कहती हैं, "पिछले दो महीने से वो भी नहीं आ रहा."
चुनाव से ठीक पहले नीतीश सरकार ने बिहार ग्रामीण आजीविका परियोजना से जुड़ी जीविका दीदी के बैंक खातों में दस हजार रुपये की राशि ट्रांसफर की थी. सुनैना को भी इसका लाभ मिला है. पर इन गांव में कई महिलाएं ऐसी हैं जो शादी, बीमारी, इलाज या खेती‑बाड़ी के लिए माइक्रोफाइनेंस कंपनियों से कर्ज लेती हैं. सुनैना ने भी कर्ज लिया हुआ है. गांव में औसतन हर महिला पर बीस हजार रूपए तक का कर्ज बकाया है. ये कंपनियां आम तौर पर सालाना 20 से 30 प्रतिशत की दर से ब्याज वसूलती हैं.
सुनैना बताती हैं, "पिछले साल बेटी की शादी में छह लाख रूपए लोन लिया था. वो अभी चुकाना बाकी है. जीविका के पैसों से गाय खरीदी है. इसकी कीमत 12 हजार रूपए पड़ी. इसके लिए दो हजार रूपए उधार लिए. महिलाएं जब उधार लेती हैं, तो ब्याज ज्यादा लिया जाता है. हमारे परिवार पर कर्ज बढ़ गया है और अभी तीन बच्चों की शादी करनी है. मैं खेतों में मजदूरी कर कुछ पैसा कमा लेती हूं. लेकिन इतना काफी नहीं है. मेरे पति अब विदेश जाकर काम ढूंढने की तैयारी कर रहे हैं."
ऐसे गांव में नहीं करेंगे बेटी की शादी
सुनैना और जूली की तरह फरहाना फिरदौसी भी बिना पति के दिन गुजार रही हैं. उनके पति जहीर अंसारी साल में सिर्फ एक बार घर आते हैं. बाकी समय मुंबई में रहते हैं. वह धारावी की एक लेदर फैक्ट्री में पर्स बनाने का काम करते हैं. बिहार में रोजगार ना होने के कारण उन्हें रोजगार के लिए मुंबई में रहना पड़ता है.
घर पर फरहाना को अपने छह बच्चों की जिम्मेदारी अकेले संभालनी पड़ती है. जहीर हर महीने दस से बीस हजार रुपये तक कमा लेते हैं. लेकिन अब उनकी तबीयत ठीक नहीं रहती. जिससे उनके लिए काम करना मुश्किल होता जा रहा है.
फरहाना का मानना है कि बिहार में काम निश्चित नहीं है. आज फैक्ट्री खुली, कल बंद हो जाएगी. फिर बिहार में रोज की दिहाड़ी का काम ज्यादा है. जबकि मुंबई में एक जगह साल भर काम मिल जाता है. आंकड़े भी यही बताते हैं. ग्रामीण इलाकों में औपचारिक रोजगार बहुत कम हैं. राष्ट्रीय औद्योगिक सर्वेक्षण (2024-25) के अनुसार बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग कोई कारखाना नहीं है.
फरहाना कहती हैं, "रात के समय डर लगता है. अगर किसी की अचानक तबीयत खराब हो जाए, तो बहुत परेशानी होती है. मेरा छोटा बेटा एक बार तेज बुखार में था. लेकिन मैं रात को अकेले उसे अस्पताल नहीं ले जा सकती थी. हमें सुबह तक परेशान रहना पड़ा. पति होते तो वह बच्चे को तुरंत अस्पताल ले जाते. हम चाहते हैं कि सरकार बिहार में ही रोजगार दे और गांव का विकास करे.”
फरहाना की बेटी 15 वर्ष की है. घर के कामकाज में वो उनकी मदद करती है. फरहाना नहीं चाहती कि बेटी का विवाह ऐसे किसी गांव में हो. वो कहती हैं, "मैं नहीं चाहती कि जो मुश्किलें मैंने अपने पति के बिना झेली हैं, वही मेरी बेटी को भी सहनी पड़ें. जिनका पति बाहर रहता है, वे बहुत परेशानी में रहती हैं. बेटी की शादी ऐसे लड़के से करूंगी जो परिवार के साथ रहे.”
सुनैना, जूली और फरहाना का जीवन बिहार की हजारों महिलाओं का दर्द बयां करता है. सरकार ने उद्योगों को लुभाने के लिए कई विशेष आर्थिक पैकेज की घोषणा की है. लेकिन ग्रामीण इलाकों में अब भी बड़े उद्योगों की बजाय खेती और अस्थायी काम ही ज्यादा है. महिलाएं उम्मीद करती हैं कि नई सरकार गांवों में ही कंपनियां और फैक्ट्रियां स्थापित करे. ताकि उनके पतियों को काम के लिए घर से दूर ना जाना पड़े.