विजय का कसूर बस इतना था कि जो समोसे वह बना रहे थे, उनमें खाने का रंग ज्यादा गिर गया था. इसके लिए दुकान के मालिक ने विजय को रॉड से पीटा और उनकी टांग पर गर्म तेल डाल दिया. उस वक्त विजय की उम्र 15 साल थी.
वह बताते हैं, "चार साल में मैंने इस घाव पर सब कुछ लगा कर देख लिया." अब कुछ ही हफ्तों में उनकी सर्जरी होने वाली है. विजय की टांग को कटने से बचाने का बस यही तरीका बचा है. विजय तमिलनाडु के डिंडीगुल जिले के रहने वाले हैं. उनकी मां को 15 हजार रुपए देकर कोई उन्हें महाराष्ट्र ले गया था. तमिलनाडु में लड़कों को इस तरह तस्करी के जरिए देश के पश्चिमी या उत्तरी इलाकों में ले जाया जाता है. वहां उनसे खूब काम कराया जाता है और पर्याप्त मेहनताना भी नहीं दिया जाता.
विजय बताते हैं, "मैं ना तो अपनी दोनों बहनों की शादी पर घर जा सका और न ही अपनी दादी के मरने पर. मैंने रोज होने वाली गाली गलौज को अनदेखा किया. अपने ऊपर अकसर गर्म तेल डाले जाने की भी मैंने परवाह नहीं की. लेकिन उस दिन बात बर्दाश्त से बाहर हो गई थी."
सितंबर 2016 में विजय उस दुकान से सबेरे सबेरे भाग निकलने में कामयाब रहे. उन्होंने बिना टिकट यात्रा की और तीन दिन में डिंडीगुल जिले में अपने गांव पहुंच गए. सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि सस्ते श्रम की तलाश में एजेंट गरीब, अनपढ़ और दलित परिवारों को हर साल कोई एकमुश्त राशि का वादा कर उनके बच्चों को काम करने के लिए ले जाते हैं.
हर साल 12 जून को बाल श्रम विरोधी अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाता है. लेकिन दुनिया भर में अब भी करीब 17 करोड़ बच्चे मजदूरी कर रहे हैं. 1999 में विश्व श्रम संगठन (आईएलओ) के सदस्य देशों ने एक संधि कर शपथ ली कि 18 साल के कम उम्र के बच्चों को मजदूर और यौनकर्मी नहीं बनने दिया जाएगा.
तस्वीर: imago/Michael Westermannदक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु में बाल मजदूर. इस फैक्ट्री में तौलिये बनाए जाते हैं. मजदूरी करने वाला यह बच्चा करोड़ों बाल मजदूरों में एक है. आईएलओ के मुताबिक एशिया में ही 7.80 करोड़ बच्चे मजदूरी कर रहे हैं. पांच से 17 साल की उम्र की युवा आबादी में से करीब 10 फीसदी से नियमित काम कराया जाता है.
तस्वीर: imago/imagebrokerपढ़ाई लिखाई या खेल कूद के बजाए ये बच्चे ईंट तैयार कर रहे हैं. भारत में मां-बाप की गरीबी कई बच्चों को मजदूरी में धकेल देती है. भारत के एक ईंट भट्टे में काम करने वाली इस बच्ची को हर दिन 10 घंटे काम करना पड़ता है, बदले में मिलते हैं 60 से 70 रुपये.
तस्वीर: imago/Eastnewsभारत की जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक देश में 1.26 करोड़ बाल मजदूर हैं. ये सड़कों पर समान बेचते हैं, सफाई करते हैं, या फिर होटलों, फैक्ट्रियों और खेतों में काम करते हैं. व्यस्क मजदूरों की तुलना में बाल मजदूर को एक तिहाई मजदूरी मिलती है.
तस्वीर: imago/imagebrokerआईएलओ की 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक 50 फीसदी बच्चे खतरनाक परिस्थितियों में काम करते हैं. कई रात भर काम करते हैं. कई बच्चों को श्रमिक अधिकार भी नहीं मिलते हैं. उनकी हालत गुलामों जैसी है.
तस्वीर: AFP/Getty Imagesबांग्लादेश में बाल मजदूरी काफी प्रचलित है. यूनिसेफ के मुताबिक देश में करीब 50 लाख बच्चे टेक्सटाइल उद्योग में मजदूरी कर रहे हैं. टेक्सटाइल उद्योग बांग्लादेश का सबसे बड़ा एक्सपोर्ट सेक्टर है. यहां बनने वाले सस्ते कपड़े अमीर देशों की दुकानों में पहुंचते हैं.
तस्वीर: imago/Michael Westermannकंबोडिया में प्राइमरी स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या सिर्फ 60 फीसदी है. स्कूल न जाने वाले ज्यादातर बच्चे अपने माता-पिता के साथ काम करते हैं. हजारों बच्चे ऐसे भी है जो सड़कों पर अकेले रहते है. राजधानी नोम पेन्ह की ये बच्ची सामान घर तक पहुंचाती है.
तस्वीर: picture-alliance/dpaहालांकि दुनिया भर में सन 2000 के बाद बाल मजदूरों की संख्या गिरी है लेकिन एशिया के ज्यादातर देशों में हालात नहीं सुधरे हैं. बांग्लादेश, अफगानिस्तान, नेपाल, कंबोडिया और म्यांमार में अब भी ज्यादा पहल नहीं हो रही.
तस्वीर: AFP/Getty Images एक गैर सरकारी संगठन चाइल्ड वॉइस चलाने वाले एस अन्नादुरई कहते हैं, "डिंडीगुल के 30 गांवों में हमारे एक रैंडम सर्वे में पता चला कि 122 बच्चों को बाहर ले जाया गया है. 20 प्रतिशत मामलों में माता-पिता को पता ही नहीं होता कि उनके बच्चे को कहां ले जाया गया. वे बस गुम हो गए हैं"
2011 में पश्चिमी और उत्तर भारत के विभिन्न हिस्सों से तमिलनाडु के 40 लड़कों को बचाया गया. विजय के साथ सूर्य प्रकाश भी काम करते थे. उन दोनों को एक एजेंट महाराष्ट्र ले गया था जबकि कुछ लड़कों को गुजरात और उत्तर प्रदेश ले जाया गया था. इनमें से कुछ की उम्र तो मुश्किल से 10 साल थी. इन बच्चों को सवेरे पांच बजे जगा दिया जाता है और देर रात तक वे काम करते हैं. ये समोसे-कचौड़ी तलने, मिठाई बनाने और फिर उन्हें पैक करने का काम करते हैं.
विजय बताते हैं, "एक दिन में हम 75 किलो बालूशाही और गुलाब जामुन और चिप्स बनाते थे." डिंडिगुल जिले में अपने गांव सौंदर्यापुरम में घर के बाहर बैठे विजय कहते हैं, "हमें घर की बहुत याद आती थी. घर जाना चाहते थे लेकिन वे आने नहीं देते थे."
भारत सरकार ने बाल मजदूरी कानून में बदलाव लाने का फैसला किया है. 14 साल से कम उम्र के बच्चे अब स्कूल के बाद और छुट्टियों में घर से जुड़े उद्यमों में काम कर सकेंगे. शर्त यह है कि पारिवारिक उद्यमों में जोखिम वाले काम न हों.
तस्वीर: DW/J. Singhभारत का मौजूदा कानून 14 साल से कम उम्र के बच्चों को 18 तरह के जोखिम वाले काम करने से ही रोकता है पर अब 18 साल तक के बच्चे भी इस तरह के काम नहीं कर पाएंगे. लेकिन घर पर चल रहे काम खतरनाक हैं या नहीं, इसे कौन तय करेगा?
तस्वीर: DW/J. Singhकुटीर उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि पारंपरिक हुनर कम उम्र में ही सिखाना जरूरी है. अगर संसद ने बाल श्रम कानून बदल दिया तो भारत द्वारा वर्ष 2016 तक बाल श्रम के उन्मूलन के द हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन में किए गए वायदे का क्या होगा?
तस्वीर: DW/J. Singhबाल अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे कार्यकर्ताओं का कहना है कि अगर बाल श्रम पर नया कानून अस्तित्व में आया तो भारत के मौजूदा सवा करोड़ से भी ज्यादा बाल श्रमिकों की संख्या और बढ़ जाने की आशंका है.
तस्वीर: DW/J. Singhपिछले साल ही बाल मजदूरों को बंधुआगिरी कराने वालों के शिंकजे से निकालने का अभियान चला रहे भारत के कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार दिया गया. उनके देश में कॉपी-किताबों की जगह होगी बच्चों के लिए मां बाप की दुकान.
तस्वीर: DW/J. Singhदुनिया भर में सवा सौ करोड़ बाल श्रमिक हैं. बच्चों को पढ़ने लिखने का और बेहतर जिंदगी का मौका देने की तो बहुत बात होती है लेकिन इस समस्या को जड़-मूल से नष्ट करने का कोई ठोस हल अब तक नहीं निकला है.
तस्वीर: DW/J. Singhढाबा, होटल, दुकान, खान या फैक्ट्री में काम नहीं, हमारे लिए तो कंधे पे बस्ते का भार है सही. बच्चों को परिवार चलाने की जिम्मेदारी नहीं पढ़ने लिखने और व्यक्तित्व का विकास करने की संभावना चाहिए.
तस्वीर: DW/J. Singhबाल श्रम से निजात पाने के लिए स्कूल के बाद काम की बेड़ियां नहीं खेलों और पुस्तकों की ज़रुरत है. पर लोग करें भी क्या? उद्योग में नए रोजगार बन नहीं रहे और बढ़ती आबादी और बच्चों का लालन पालन भी तो सब से बड़ी परेशानी है.
तस्वीर: DW/J. Singh"घर से है मंदिर बहुत दूर, चलो यूं कर लें, एक रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए.” लेकिन कितने लोग हैं जो यह तय कर पाते हैं. इन बच्चों की हंसी में बेहतर जिंदगी की उम्मीद ठहाके लगा रही है लेकिन बहुत से बच्चों की उम्मीद पूरी नहीं होती.
तस्वीर: DW/J. Singh चार साल तक इन लड़कों से काम कराया गया. उन्हें कोई पैसा नहीं दिया गया. बाहर भी वे अकेले नहीं जा सकते थे. परिवार से बातचीत सिर्फ दुकान मालिक के फोन से ही संभव थी. मालिक का एक रिश्तेदार लड़कों के परिवारों को समय समय पर थोड़ी बहुत रकम देता था.
उन्हें राशन के गोदाम में ही सोना पड़ता था. उनका पूरा दिन कढ़ाई के सामने या फिर मिठाई की ट्रे के ऊपर झुके हुए बीतता था. उन्हें मिठाइयां काट कर उन्हें पैक करना होता था. प्रकाश का अब कोई अता पता नहीं है. विजय की शिकायत पर दुकान के मालिक को गिरफ्तार कर लिया गया है. पुलिस का कहना है कि मामले के दो संदिग्ध अब भी फरार हैं.
अमुधा पालानिसामी ने 2014 में अपने 15 साल के बेटे को काम करने के लिए भेजा था. तब से उन्होंने अपने बेटे को न तो देखा है और न ही यह जानती हैं कि वह कहां है. वह बताती हैं कि उन्हें 10 हजार रुपए एडवांस दिए गए थे और इन तीन सालों में उनके पास 70 हजार रुपए भेजे गए हैं. वह बताती हैं, "मुझसे कहा गया कि मैं या तो उससे मिल सकती हूं या फिर पैसे ले सकती हूं."
चाइल्ड वॉइस के अन्नादुरई कहते हैं कि इन लड़कों का एक महीने का वेतन आम तौर पर दो हजार रुपए होता है. उनके मुताबिक, "इतने कम पैसे के लिए, उनकी तस्करी होती है और सालों तक उनसे बंधुआ मजदूर की तरह काम लिया जाता है."
एके/एमजे (थॉमसन रॉ़यटर्स फाउंडेशन)
हर साल भारत में हजारों बच्चे गुमशुदा हो जाते हैं. कई का कभी दोबारा पता भी नहीं चलता. कुछ भाग जाते हैं, बाल मजदूरी करते हैं तो कई बंधुआ मजदूर बनाकर कैद में रखे जाते हैं.
तस्वीर: DW/B. Dasबचपन बचाओ आंदोलन द्वारा किए गए सर्वे के अनुसार भारत में हर घंटे करीब 11 बच्चे लापता हो रहे हैं जिनमें से चार कभी घर वापस नहीं लौट पाते.
तस्वीर: DW/B. Das16 साल की पिंकी को हाल ही में दिल्ली के एक घर से छुड़ाया गया जहां वह घरेलू काम के लिए बंधक बनाकर रखी गई थी.
तस्वीर: DW/B. Dasगुमशुदा बेटे की तस्वीर दिखाते हुए खुद पर काबू न रहा. उसकी मदद के लिए जो भी पैसे मिलते हैं उसके पिता उनसे सफर कर जगह जगह बेटे को ढूंढते है.
तस्वीर: DW/B. Dasज्यादातर घर से भागे हुए बच्चे किसी न किसी के पास बंधुआ मजदूर बनकर रह जाते हैं. कभी होटल, कभी खेत, गैराज या कभी कारखानों की नजर हो जाता है बचपन.
तस्वीर: DW/B. Dasइस भाई हाथ में गुमशुदा बहन की तसवीरें हैं. छह साल बाद ये तसवीरें उम्मीद टूटने नहीं देतीं कि एक दिन वह घर जरूर लौटेगी.
तस्वीर: DW/B. Dasबचपन बचाओ आंदोलन द्वारा बचाया गया यह लड़का अब ट्रांजिट होम में रह रहा है. वह जल्द से जल्द परिवार से मिलने के इंतजार में है.
तस्वीर: DW/B. Dasअर्जुन जब मां से मिला तो मां खुद पर काबू न रख सकी. उसने बताया कि उसे दो साल तक खेतों में काम करने के लिए बंधक बनाकर जंजीरों से कस कर रखा गया.
तस्वीर: DW/B. Dasअपनी एक संतान खो चुकी यह महिला अब अपने दूसरे बच्चे की उंगली छोड़ने से भी घबराती है कि कहीं उसके साथ भी वहीं न हो जाए.
तस्वीर: DW/B. Das