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जी-7 और आसियान की दोस्ती से है दोनों का फायदा

२० दिसम्बर २०२१

जैसे-जैसे इंडो-पैसिफिक अंतरराष्ट्रीय राजनीति का केंद्रबिंदु बनता जा रहा है, इस क्षेत्र के प्रमुख देशों और संगठनों की भूमिका भी पहले से कहीं बड़ी होती जा रही है.

तस्वीर: Carsten Rehder/dpa/picture alliance

पिछले दिनों जब जी-7 के विदेश मंत्रियों की बैठक में दक्षिणपूर्व एशियाई संगठन आसियान को भी न्योता दिया गया तो राजनीतिक विश्लेषक कयास लगाने लगाने लगे कि इसका क्या मतलब है. जी-7 दुनिया के सात सबसे अमीर और ताकतवर पश्चिमी देशों का समूह है. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद शीत युद्ध की पृष्ठभूमि में 1973 में बने इस समूह में अमेरिका, ब्रिटेन, इटली, फ्रांस, जर्मनी, कनाडा और जापान सदस्य हैं.

वैसे तो जी-7 और आसियान के बीच अभी तक पारस्परिक सहयोग बढ़ाने संबंधी कोई औपचारिक करार नहीं है लेकिन जी-7 के हर सदस्य देश का आसियान के साथ विकास, संवाद और सामरिक क्षेत्रों के कम से कम एक क्षेत्र में सहयोग है. ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से निकलने के बाद कुछ समय के लिए स्थिति बदली थी लेकिन कुछ महीने पहले जब ब्रिटेन को आसियान के डायलॉग पार्टनर का दर्जा मिला तो यह समीकरण फिर पूरे से हो गए. पिछले साल ही यूरोपीय संघ और आसियान के बीच भी सामरिक साझेदारी शुरू हुई है.

चीन से मुकाबला

जी-7 के देश इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में अपनी भूमिका को लेकर सजग हो रहे हैं और अपनी जिम्मेदारियों को बढ़ाना भी चाहते हैं. जी-7 के देशों की सबसे बड़ी चिंता चीन का गंभीर प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभरना है. चीन अपनी बेल्ट और रोड परियोजना के साथ न सिर्फ पश्चिमी देशों को कड़ी टक्कर दे रहा है बल्कि पूरी दुनिया में अपना वर्चस्व कायम करना चाहता है. इसलिए अमेरिका और पश्चिमी देश इस परियोजना को नवउपनिवेशवाद का ही एक रूप मानते हैं.

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चीन की चुनौती से निबटने के लिए इस साल जून में हुई जी-7 शिखर वार्ता में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने "बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड” की नीति पेश की थी. इसका उद्देश्य चीन की बेल्ट और रोड परियोजना का मजबूत विकल्प पैदा करना है. फिलहाल ये परियोजना फिलहाल कागज पर ही है. कनाडा और इटली जैसे देश इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में कितनी दिलचस्पी लेंगे यह कहना मुश्किल है लेकिन तय है कि फ्रांस, जापान, या अमेरिका के मुकाबले यह कम ही रहेगा.

दक्षिण चीन सागर में चीन और तमाम दक्षिणपूर्वी देशों के बीच संप्रभु अधिकार को लेकर चल रहे विवाद से आसियान चिंतित रहा है. पिछले कुछ सालों में चीन की बढ़ती आक्रामकता के चलते यह चिंताएं बहुत बढ़ी हैं. आसियान की मिन्नतों और चीन के तमाम वादों के बावजूद चीन ने अभी तक दक्षिण पूर्व सागर के  विवाद को सुलझाने के लिए कानूनी तौर पर बाध्यकारी कोड ऑफ कंडक्ट पर दस्तखत नहीं किए हैं.

क्या होगी जी-7 की भूमिका

चीन की छाया में जी रहे आसियान के छोटे छोटे देश जहां उसकी आक्रामकता से तंग हैं तो वहीं चीन के आर्थिक महाशक्ति के तौर पर उभरने से उन्हें सीधा फायदा भी हुआ है. यही वजह है कि आसियान के देश खुल कर चीन के खिलाफ जाने से डरते हैं. भले ही कहा जा रहा हो कि जी-7 और आसियान के संबंधों को सिर्फ चीन के आइने में नहीं देखा जाना चाहिए, लेकिन साफ है कि पश्चिमी देश चीन को रोकने के लिए इंडो पेसिफिक इलाके में दूरगामी रूप से तैयार हो रहे हैं.

जी-7 की सबसे बड़ी भूमिका साइबर और 5-जी टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में है. आसियान के देश साइबर सुरक्षा, सप्लाई चेन रेजिलिएंस, और डिजिटल इकोनॉमी के क्षेत्र में कमजोर हैं. इन देशों की अपेक्षा है कि जी-7 के देश डिजिटल तकनीक और साइबर क्षेत्र में उनकी मदद करें. यह आपसी सहयोग का नया आयाम बन सकता है.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं.)

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