भारत नेपाल सीमा पर पिथौरागढ़ घाटी की काली नदी पर बन रहे पंचेश्वर बांध के खिलाफ पर्यावरणवादी और मानवाधिकार कार्यकर्ता आवाज उठा रहे हैं. स्थानीय लोगों में इस विशाल बांध परियोजना को लेकर भय और आशंका है.
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फिलहाल इस बांध की पर्यावरणीय मंजूरी के लिए जन सुनवाई के दौर चल रहे हैं. इन सुनवाइयों में भी आरोप है कि जनता के सवालों और सरोकारों की अनदेखी की जा रही है.
ये विशालकाय बांध, शिव के प्राचीन पंचेश्वर मंदिर से दो किलोमीटर नीचे सरयु और काली नदियों के संगम पर बनाया जाना है. संगम के बाद इस नदी को नेपाल में महाकाली और भारत में शारदा के नाम से जाना जाता है. 22 हजार करोड़ रुपये वाली पंचेश्वर बहुउद्देश्यीय जल बिजली परियोजना, भारत और नेपाल के बीच 1996 में हुई महाकाली नदी संधि के तहत प्रस्तावित है. साढ़े छह हजार मेगावाट बिजली उत्पादन के लक्ष्य वाला, 311-15 मीटर की प्रस्तावित ऊंचाई और 116 वर्ग किलोमीटर जलाशय क्षेत्र वाला ये दुनिया का दूसरा सबसे ऊंचा रॉक-फिल बांध होगा और आकार में टिहरी बांध से करीब तीन गुना अधिक होगा. इसका डूब क्षेत्र भी व्यापक है.
आरोप है कि जनसुनवाइयों में पुनर्वास की बातें उठाकर स्थानीय लोगों का ध्यान मुआवजे और धनराशि की ओर मोड़ा जा रहा है जबकि बांध निर्माण से होने वाले सामाजिक और पर्यावरणीय नुकसान के बारे में उन्हें अंधेरे में रखा गया है. अलग अलग स्तरों पर जनसंगठन, लेखक-पत्रकार और राजनीतिक कार्यकर्ता परियोजना का यह कहकर विरोध करते आ रहे हैं कि इससे भूगोल ही नहीं बल्कि स्थानीय संस्कृति भी छिन्नभिन्न हो जाएगी.
क्यों खतरे में पड़ते हैं विशालकाय बांध
विशाल बांध बेहतरीन इंजीनियरिंग का नमूना हैं. लेकिन अमेरिका में सामने आए संकट ने अब दुनिया भर के इंजीनियरों को नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया है.
तस्वीर: Reuters/California Department of Water Resources/William Croyle
सोचा भी नहीं था ऐसा संकट
विशाल बांध अच्छा खासा भूकंप सह सकते हैं लेकिन इंजीनियरों ने यह नहीं सोचा था कि कभी रिलीजिंग कैपिसिटी से भी बहुत ज्यादा पानी जमा हो सकता है.
तस्वीर: Reuters/California Department of Water Resources/William Croyle
280 मीटर की ऊंचाई ने दी ताकत
ओरोविल बांध के लबालब होने के बाद पानी बांध के ऊपर से बहने लगा. 280 मीटर की ऊंचाई से गिरते पानी ने नींव को काटना शुरू कर दिया. जहां हल्की कमजोरी दिखी वहीं उफनते पानी ने दरार डाली.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/California Department of Water Resources/A. Madrid
हालत खराब
जलस्तर को कम करने के लिए अधिकारियों ने बांध के सारे गेट खोल दिये. इस दौरान निकले तेज रफ्तार पानी ने गेट के नीचे की मिट्टी काटनी शुरू कर दी और संकट ज्यादा भयावह हो गया.
तस्वीर: Reuters/California Department of Water Resources/William Croyle
कैसे बिगड़े हालात
आमतौर पर ओरोविल बांध में कम ही पानी रहता था. बांध के ऊपर बनी सड़क तक पानी कभी नहीं पहुंचता था. लेकिन इस साल हुई भयंकर बारिश और बर्फबारी ने जलस्तर रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचा दिया.
तस्वीर: Reuters/M. Whittaker
कंक्रीट भी साफ
पानी की ताकत को नींव का कंक्रीट भी नहीं सह पाया. कंक्रीट के कई बड़े हिस्से बह गये. अब हेलीकॉप्टरों के जरिये वहां पत्थर भरे जा रहे हैं. बोल्डर जल कटाव के खिलाफ हमेशा कारगर माने जाते हैं.
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दुनिया भर के लिए चेतावनी
अब तक माना जाता था कि बांधों को ऊपर से बहने वाले पानी से खास खतरा नहीं होता. लेकिन मौसम के बदलते मिजाज से अगर बहुत ज्यादा पानी जमा हो जाए तो ऐसी स्थिति कहीं भी सामने आ सकती है.
तस्वीर: Reuters/M. Whittaker
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टिहरी बांध का उदाहरण भी दिया जाता है और नर्मदा का भी, जहां विस्थापित आबादी अपनी मिट्टी से उखड़कर दरबदर है. पुनर्वास के नाम पर एक विराट सरकारी अभियान जरूर चला लेकिन विकास की एक बहुत बड़ी कीमत विस्थापितों ने चुकायी है. टिहरी बांध से 2400 मेगावाट बिजली का वादा किया गया था. अभी तक इसकी जो टरबाइनें चल पायी हैं उनसे 1000 मेगावाट बिजली ही निकल पा रही है. उत्तराखंड के हिस्से में 12 फीसदी बिजली आती है.
सरकारें और निर्माण एजेंसियां पंचेश्वर को विकास की एक अभूतपूर्व परियोजना के रूप में पेश कर रही हैं. उनकी दलील है कि पर्यावरणवादी और मानवाधिकार कार्यकर्ता जानबूझकर तबाही का डर फैला रहे हैं जबकि बांध पिछड़े इलाकों के पानी को दिन रात की समृद्धि में तब्दील कर देने वाला है. सरकार की दलील की रोशनी में टिहरी का अनुभव तो कुछ और ही कहता है जो न सिर्फ भूगर्भीय लिहाज से कमजोर हुआ है बल्कि पारिस्थितिकीय असंतुलन का शिकार हो गया है.
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बांध से बनी झील से अत्यधिक सीलन, जैव विविधता का नाश, पेड़ों और मिट्टी की कटान और जलवायु में परिवर्तन मुख्य समस्याएं हैं जिनके दूरगामी दुष्प्रभाव हैं. स्थानीय लोगों को रोजगार के जो सपने दिखाये गये थे उसके तहत कुछेक लोगों को मामूली नौकरियां ही मिल पायीं. लेकिन खुदाई और निर्माण ने जिस ठेकेदारी व्यवस्था को बढ़ावा दिया गया उससे हिमालयी क्षेत्र में भ्रष्टाचार की नयी संस्कृति का जन्म हुआ.
भूगर्भविज्ञानियों के मुताबिक पंचेश्वर बांध जिस इलाके में प्रस्तावित है वह भूकंप के लिहाज से भी अत्यंत संवेदनशील है. और वे सब समस्याएं जो टिहरी बांध की थीं वे यहां ज्यादा विकराल और ज्यादा बड़े भूभाग में संभावित हैं. ऐसे बांधों की उम्र भी लंबी नहीं बतायी जाती क्योंकि समय के साथ इनमें गाद भरती जाती है जो बांध के ढांचे को कमजोर करती है. क्या सरकारें और उनके विशेषज्ञ इससे अंजान है? ऐसा तो नहीं लगता. फिर इतने बड़े बांध क्यों बनाये जा रहे हैं? जवाब यही है कि विकास के जिस मॉडल को फॉलो किया जा रहा है उसमें बुनियादी गड़बड़ी है. टिकाऊ और समावेशी विकास जनता को लालच नहीं देता, उन्हें भागीदार बनाता है.
समाधि ले चुकी बस्तियां
प्राकृतिक आपदाएं और बांध कई कस्बों को निगल जाते हैं. लेकिन कुछ जिद्दी ढांचे ऐसे भी होते हैं जो देर सबेर बाहर आ ही जाते हैं.
तस्वीर: Imago/Chromorange
टिहरी, भारत
1815 में गंगा नदी के किनारे बसाया गया शहर टिहरी, 200 साल बाद जलमग्न हो गया. भारत के सबसे ऊंचे बांध ने भागीरथी नदी को 260 मीटर ऊंची दीवार से रोक दिया. पीछे एक विशाल झील बनी और टिहरी उसमें समा गया.
तस्वीर: Imago/Indiapicture
आजेल ब्रिज, जर्मनी
जर्मनी के हेसे प्रांत में जब बांध बनाया जा रहा था तो तीन गांव खाली कराये गये. पूरा इलाका पानी में डूब गया. तब किसी को उम्मीद नहीं थी कि एक दिन डूबा पुल फिर से बाहर आ जायेगा. लेकिन सूखे के चलते अब यह पुल बीच बीच में बाहर निकल आता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/U. Zucchi
चर्च टावर, इटली
इटली में बाढ़ ने 14वीं शताब्दी के एक गांव को डुबो दिया. 1950 की उस बाढ़ के चलते लोग ऊपरी इलाकों में बस गये. लेकिन आज भी सेंट काथेरीन्स पैरिस चर्च का टावर नीचे डूबे ग्राउन गांव की याद दिलाता है.
मध्य मेक्सिको में बना मालपासो बांध देश की बड़ी आबादी की प्यास बुझाता है. इससे बिजली भी मिलती है. लेकिन 1950 के दशक में बने इस बांध के चलते हजारों लोगों को विस्थापित होना पड़ा. 2002 और 2015 में बहुत ज्यादा सूखा पड़ने पर चार सौ साल पुराने मंदिर के अवशेष फिर से नजर आये.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/D. von Blohn
गेअमाना गांव, रोमानिया
1000 से ज्यादा बाशिंदो वाला गेआमाना गांव तांबे के खनन के चलते उजड़ गया. खनन उद्योग के मलबे के पानी में घुलने से पूरे गांव में गाद भर गयी. अब गांव की सिर्फ एक इमारत का सिर ही नजर आता है.
तस्वीर: Imago/Zumapress
फायोन गांव, स्पेन
चर्च का टावर गवाही देता है कि पानी के नीचे बहुत कुछ दबा हुआ है. 1960 के दशक में बार्सिलोना शहर को बिजली और पानी मुहैया कराने के लिए तीन बांध बनाए गए. इन बांधों ने भी गांव डुबोये. आज गांव के ऊपर मछुआरे नाव लेकर पहुंचते हैं. वहां काफी मछलियां मिलती हैं.
तस्वीर: Imago/Chromorange
साक्सोनी अनहाल्ट, जर्मनी
कभी जर्मनी की औद्योगिक क्रांति का इंजन माने जाने वाले इस इलाके में अब सन्नाटा है. ज्यादातर खदानें बंद हो चुकी हैं. खनन के चलते जमीन काफी कमजोर भी हो चुकी है. 1928 से अब तक यहां के बांशिदें अपना घर 1500 मीटर पीछे खिसका चुके हैं. इलाके में अक्सर भूस्खलन की घटनाएं होती रहती है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/J. Wolf
काल्याजिन, रूस
मॉस्को से 150 किलोमीटर दूर वोल्गा नदीं पर 140 किलोमीटर लंबा और चार किलोमीटर चौड़ा पानी का भंडार बनाया गया है. 100 मीटर गहराई वाले बांध के चलते 1940 में काल्याजिन इलाका डूब गया. अब वहां सिर्फ 1801 में बनाये गये एक चर्च का घंटाघर दिखता है.
तस्वीर: Imago
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ज्यादा बेहतर तो यह होता कि नागरिक आबादी के साथ साथ पर्यावरण और संस्कृति का ख्याल रखते हुए विकास परियोजनाओं का स्वरूप छोटा किया जाता. 100-150 मेगावॉट की छोटी छोटी जल बिजली परियोजनाएं स्थानीय आबादी के हितों का पोषण कर सकती हैं. चेक डैम बनाये जाएं. नदियों का प्रवाह अवरुद्ध न किया जाए. अगर इस अपार जल राशि का दोहन करना ही है तो सिर्फ बड़े बांध ही इकलौता उपाय नहीं हैं. एक बहुत लंबे समय तक एक जीवंत भूभाग को धूल धुएं सीमेंट बजरी और पत्थर गारे के पहाड़ में तब्दील कर देना तो कहीं से तर्कसंगत नहीं लगता.
दुनिया में कई जगह अब बड़े बांधों से तौबा की जाने लगी हैं. पन-बिजली और एटमी ऊर्जा को छोड़कर वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों पर जोर दिया जा रहा है. ये सच है कि दुनिया की 15 फीसदी बिजली पानी से ही आ रही है और पवन चक्की और सौर ऊर्जा सिर्फ चार फीसदी है. लेकिन जर्मनी जैसे देशों ने बड़े बांध न बनाने का निश्चय कर लिया है. भारत और चीन ही इस मामले में अव्वल हैं. यह विडंबना है कि भारत में बड़े बांधों के निर्माण में जो मशीनरी और उपकरण इस्तेमाल हो रहे हैं वे ज्यादातर बड़े देशों की कंपनियों से ही आ रहे हैं.
बांधों को लेकर एक दूरगामी ठोस नीति की जरूरत है. देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने भले ही उन्हें भविष्य के मंदिर अपने एक भावनात्मक नजरिए में कह दिया हो लेकिन जो अनुभव हाल के निर्मित और निर्माणाधीन बांधों से जुड़े हैं, उन्हें देखकर इन्हें मंदिर तो नहीं कहा जा सकता. ये दलील भी आगे चलकर टिक नहीं पाती कि विकास के लिए कुछ कुरबानियां देनी ही पड़ती हैं. अगर विकास समावेशी होगा तो इस किस्म की ऊलजुलूल मांग नहीं करेगा.
"मछली जल की रानी है..."
कई मछलियां पहाड़ों से समुद्र तक की यात्रा करती हैं और फिर अंडे देने व दम तोड़ने के लिए वापस पहाड़ों में आती हैं. लेकिन बांध जैसे निर्माणों से यह सफर बाधित हो रहा है. इसे बचाने के लिए कुछ दिलचस्प कोशिशें की जा रही हैं.
पुरस्कार विजेता लिफ्ट
तस्वीर में दाहिनी तरफ दिखता ढांचा असल में मछलियों के लिए बनाई गई लिफ्ट है. इसे जलवायु व पर्यावरण का जर्मन इनोवेशन अवॉर्ड मिला. इस फिश एलिवेटर की मदद से निचले हिस्से की मछलियां ऊपर और ऊपर की मछलियां नीचे जा सकती हैं. पानी रोकने के बावजूद यह लिफ्ट मछलियों का सफर जारी रखती है.
तस्वीर: Baumann Hydrotec
ऐसे काम करती है लिफ्ट
जर्मन कंपनी बाउमन हाइड्रोटेक की यह लिफ्ट पानी से ही चलती है. इस दरवाजे की मदद से मछलियां पानी से भरे एक चैम्बर में जाती हैं. फिर दरवाजा बंद होता है और चैम्बर के बाहर पानी भरा जाता है. इससे मछलियों से भरा चैम्बर ऊपर आ जाता है और दरवाजा फिर से खुल जाता है.
तस्वीर: Baumann Hydrotec
पारिस्थिकीय तंत्र के लिए अहम
हिमालय की महाशीर भी खाने की तलाश में काफी नीचे तक यात्रा करती हैं और फिर वापस ऊपर की तरफ आती है. यूरोप और अमेरिका में पाई जाने वाली सैलमन तो समुद्र तक जाती है और फिर अंडे देने वापस पहाड़ों में आती हैं. अगर मछलियों का रास्ता साफ नहीं किया गया तो नदियों का इकोसिस्टम गड़बड़ा जाएगा.
तस्वीर: picture alliance/Arco Images GmbH
कहां है दिक्कत
नदी में अगर कोई बांध बना दिया जाए और मछलियों के लिए कोई रास्ता न निकाला जाए तो उनकी यात्रा वहीं खत्म हो जाती है. बांध से निकलने वाले पानी के तेज बहाव में अगर एक बार वो नीचे चली जाती हैं तो फिर वापस लौटने का कोई रास्ता नहीं बचता. ऐसा होने पर ज्यादातर मछलियां मारी जाती हैं.
तस्वीर: Getty Images/Jeff T. Green
मछलियों के लिए ट्रेन
मछलियों के सफर को बनाए रखने के लिए मोनोरेल जैसे प्रोजेक्ट्स पर भी काम हो रहा है. दक्षिण कोरिया का ह्वाशेओन बांध इसका उदाहरण है. 1944 में बने इस बांध में मछलियों को छोटी सी रेल के जरिए एक स्तर से दूसरे स्तर तक लाया जाता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Yonhap News
बड़ी मदद
मछलियों के लिए बहते पानी के भीतर बनी सीढ़ियां ज्यादा प्राकृतिक होती हैं. अपने सहज स्वभाव के जरिए मछलियां इन्हें आसानी से पार करती हैं. अब इनसे प्रेरणा लेकर मछलियों के लिए रास्ता तैयार करने की कोशिश की जा रही है.
तस्वीर: picture alliance/dpa/J. Büttner
हर दिन 25,000 मछलियां
अगर बांध या रिजर्व बहुत बड़ा और आर्थिक रूप से अहम हो तो मछलियों के लिए ऐसी सीढ़ियां बनाई जा सकती है. जर्मन शहर हैम्बर्ग में एल्बे नदी पर बनाई गई ये सीढ़ियां 550 मीटर लंबी हैं. इनमें लगातार हल्का पानी बहता रहता है. इसकी मदद से मछलियां बांध को पार करती हैं.
तस्वीर: dapd
घुमावदार सीढ़ियां
आम सीढ़ियों की तुलना में घुमावदार सीढ़ियां काफी कम जगह लेती हैं. अब मछलियों के लिए ऐसी ही घुमावदार सीढ़ियां बनाई जा रही हैं. इनमें मछलियों को चोट भी नहीं आती है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/J. Lübke
बड़ा लक्ष्य
उत्तरी जर्मनी के कील पनबिजली स्टेशन के पास ऐसी ही घुमावदार सीढ़ियां बनाई गई हैं. 200 मीटर के दायरे में फैली यह सीढ़ियां 36 पूलों की मदद से मछलियों को 3 फीसदी ऊपर उठाती हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/W. Pfeiffer
खास मदद की जरूरत
ईल जैसी कई मछलियां कमजोर तैराक होती हैं. वो सीढ़ियों में पानी के तेज बहाव के विरुद्ध बहुत देर नहीं तैर पाती हैं. ऐसे में उनके लिए खास तौर पर रेस्ट स्टेशन बनाए जाने की जरूरत है, ताकि वो बीच बीच में आराम कर आगे की यात्रा जारी रख सकें.