42 सालों तक जड़ जीवन काटने के बाद अरुणा शानबाग पर मौत को तरस आ ही गया. लगता है उनके दुश्वारियों भरे जीवन से हमने कोई सीख नहीं ली. शानबाग से शुरु हुई इच्छा मृत्यु की बहस और यौनशोषण की यंत्रणा का आज भी कोई अंत नहीं दिखता.
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27 नवंबर 1973 को मुंबई के एक अस्पताल में अपने ही एक सहकर्मी की यौन हिंसा की शिकार बनी अरुणा अपना 68वां जन्मदिन देखने से कुछ ही दिनों से चूक गईं. बीते 42 सालों की ही तरह जून के पहले हफ्ते में उनके जन्मदिन और उनके जीवित होने की सुध लेने वाले वही गिने चुने लोग होते, जो कई दशकों से उनकी सेवा करते आए हैं. ये उनके परिवार वाले नहीं बल्कि केईएम अस्पताल की कुछ नर्सें और अस्पताल प्रशासन था, जिसने सबके भुला देने के बावजूद शानबाग की आखिरी दम तक देखभाल की.
शानबाग की अंतिम सांस के साथ ही कईयों के मन से एक बोझ हट गया. जिन्हें भी उस जड़ हो चुकी महिला से जरा भी हमदर्दी थी, अपने शोक में आज वे कहीं ना कहीं राहत भी महसूस कर रहे हैं. राहत इस बात की कि कम से कम अरूणा को जीने का और बोझ तो नहीं ढोना पड़ेगा. पत्रकार पिंकी वीरानी ने 2011 में भारत के सुप्रीम कोर्ट में शानबाग के लिए इच्छा मृत्यु की मांग को लेकर याचिका दायर की थी, जिसे खारिज कर दिया गया. भारत का सर्वोच्च न्यायालय इच्छामृत्यु को गैरकानूनी मानता है.
हाल ही में फिर से इसे कानूनी मान्यता देने की बहस शुरु हुई है. लेकिन भारत के लोगों की चरम सकारात्मकता और चमत्कारों में उनके विश्वास के चलते यूथेनेसिया को स्वीकार करना कठिन हो जाता है. यूथेनेसिया ग्रीक भाषा का एक शब्द है जिसका मतलब है - एक अच्छी मौत. इसका आशय जानबूझ कर गले लगाई जाने वाली ऐसी मौत से है, जब कोई व्यक्ति लाइलाज और असह्य शारीरिक पीड़ा के कारण जीवन से एक गरिमामय मुक्ति चाहता हो. स्विट्जरलैंड और बेल्जियम जैसे कई देशों में इसे कानूनी मान्यता मिली हुई है.
अरूणा शानबाग को जीवन भर इस अकल्पनीय पीड़ा की स्थिति में डालने वाले दोषी सोहनलाल को अस्पताल प्रशासन और डॉक्टरों की मिलीभगत से बचा लिया गया था. अरूणा के साथ हुए बलात्कार और हत्या के प्रयास जैसे जघन्य अपराध के सबूतों को छुपा कर अदालत को गुमराह किया गया. आरोपी को केवल लूटपाट और हिंसा का दोषी मानकर 7 साल की जेल मिली. सोहनलाल ने सजा काटी और अपने अपराध से मुक्त हो गया. दूसरी ओर, उसके अपराध की शिकार बनी और दुनिया में सबसे लंबे समय तक कोमा में रहने वाली शानबाग को घटना के 42 साल बाद जाकर मौत के हाथों ही मुक्ति नसीब हुई. ना कानून और ना ही समाज ने उसे किसी तरह की राहत दी.
पिंकी वीरानी ने अरूणा शानबाग की पीड़ा को अपनी किताब - अरूणाज स्टोरी - में भी दर्ज किया था. वीरानी ने उनको इच्छामृत्यु की अनुमति दिए जाने की याचिका में दलील दी थी कि अरूणा “मरे हुए के समान” हैं, जिसे कोर्ट ने नहीं माना. सच तो यह भी है कि हम सब एक कोमा में जी रहे हैं, पूरा समाज कोमा में है जिसे आसपास होने वाली नृशंस हत्याओं, हिंसा, बलात्कार और अत्याचार से कोई फर्क नहीं पड़ता. और सदियों से चली आ रही हमारी तन्द्रा है जो टूटने का नाम ही नहीं लेती.
क्यों होते हैं बलात्कार?
भारत में रोजाना औसतन 92 महिलाओं का बलात्कार होता है. जब भी किसी महिला के साथ यह जघन्य अपराध होता है, कभी सवाल उसके कपड़ों तो कभी देर रात घर से बाहर रहने पर उठाए जाते हैं. क्या महिलाओं पर बंदिशें लगाना ही है उपाय?
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तन ढकने की जरूरत
मानव सभ्यता की शुरुआत से ही मौसम की मार से बचने के लिए शरीर को ढकने की जरूरत महसूस की गई. बीतते समय के साथ जानवरों की छाल पहनने से लेकर आज इतने तरह के कपड़े मौजूद हैं. जीवनशैली के आसान होने के साथ साथ कपड़ों के ढंग भी बदले हैं और अब यह अवसर, माहौल, पसंद और फैशन के हिसाब से पहने जाते हैं. फिर पूरे बदन को ढकने वाले कपड़ों पर जोर क्यों?
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अंग प्रदर्शन यानि बलात्कारियों को न्यौता
भारत में बलात्कार के ज्यादातर मामलों में पाया गया है कि पीड़िता ने सलवार कमीज और साड़ी जैसे भारतीय कपड़े पहने हुए थे. उनपर हमला करने वाले पुरुषों ने अपनी सेक्स की भूख के कारण संतुलन खो दिया. ऑनर किलिंग के कई मामलों में किसी महिला को सबक सिखाने के मकसद से उस पर जबरन यौन हिंसा की गई और फिर जान से मार डाला गया. इन सबके बीच कपड़ों पर तो किसी का ध्यान नहीं गया.
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कानून का डर नहीं
संयुक्त राष्ट्र ने 2013 में एशिया प्रशांत क्षेत्र में किए अपने सर्वे में पाया गया कि सर्वे में शामिल हर चार में एक पुरुष ने अपने जीवन में कम से कम एक बार किसी महिला का बलात्कार किया है. इनमें से 72 से लेकर 97 फीसदी मामलों में इन पुरुषों को किसी कानूनी कार्यवाई का सामना नहीं करना पड़ा था.
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मनोरंजन का साधन हैं यौन अपराध
उत्तर प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ इतने ज्यादा यौन अपराधों का कारण प्रदेश की पुलिस ने वहां मोबाइल फोनों के बढ़ते इस्तेमाल, पश्चिमी देशों के बुरे असर और छोटे कपड़ों को ठहराया. लोगों को सुरक्षा देने की अपनी जिम्मेदारी में पूरी तरह विफल पुलिस का कहना है कि मनोरंजन के बहुत कम साधन होने के कारण पुरुष यौन अपराधों को अंजाम देने लगते हैं.
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महिलाओं से मिल रही है चुनौती
सड़कों, ऑफिसों या किसी सार्वजनिक स्थान पर कई बार महिलाओं के कपड़े नहीं बल्कि उनके चेहरे से झलकता आत्मविश्वास, स्वच्छंद रवैया और अब तक पुरुषों के कब्जे में रहे कई क्षेत्रों में उनकी पहुंच कई पुरुषों को बौखला रही है. सदियों से स्थापित पुरुषसत्तात्मक समाज के समर्थक ऐसी औरतों को सामाजिक संतुलन को बिगाड़ने का जिम्मेदार मानते हैं और यौन हिंसा कर उन्हें समाज में उनकी सही जगह दिखाने की कोशिश करते हैं.
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महिलाओं को ज्यादा बड़ा खतरा किससे
दुनिया के सबसे युवा देश में आज बलात्कार महिलाओं के खिलाफ चौथा सबसे बड़ा अपराध बन चुका है. नेशनल क्राइम ब्यूरो की 2013 रिपोर्ट बताती है कि साल दर साल दर्ज होने वाले इन करीब 98 फीसदी मामलों में बलात्कारी पीड़ित का जानने वाला था. ज्यादातर मामले जो प्रकाश में आते हैं वे सार्वजनिक जगहों पर अनजान लोगों द्वारा किए गए होते हैं जिस कारण इस सच्चाई पर ध्यान नहीं जाता.
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एक कदम आगे, दो कदम पीछे
एक ओर पहले के मुकाबले ज्यादा लड़कियां पढ़लिख रही हैं और कार्यक्षेत्र में पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं. दूसरी ओर इस कारण वे शादी और बच्चे देर से पैदा कर रही हैं. भारत में शादी के पहले शारीरिक संबंध बनाने के मामले समाज के लिए असहनीय और खतरा बताए जाते हैं. इस कारण बहुत से युवा पुरुष को अपनी यौन इच्छा पूरी करने का कोई स्वस्थ तरीका नहीं मिलता और कई बार यही यौन हिंसा का कारण बनता है.
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हिंसा का चक्र गर्भ से ही शुरु
भारत में अजन्मे बच्चे की लिंग जांच कर मादा भ्रूण को गर्भ में ही मार देने की घटनाएं आम हैं. जो लड़कियां जन्म ले पाती हैं वे संख्या में इतनी कम हैं कि समाज का संतुलन बिगड़ गया है. स्त्री-पुरुष अनुपात के मामले में भारत 1970 से भी नीचे आ गया है. इसके अलावा बाल विवाह, कम उम्र में मां बनना, प्रसव से जुड़ी मौतें और घरेलू हिंसा के लिए भी क्या छोटे कपड़ों को ही जिम्मेदार मानेंगे.