'भारत जोड़ो यात्रा' कांग्रेस पार्टी का एक बेहद महत्वाकांक्षी राजनीतिक अभियान है. इसके तहत पार्टी के कई नेता और कार्यकर्ता मिल कर कन्याकुमारी से कश्मीर तक पदयात्रा करेंगे. नेता 12 राज्यों से गुजरते हुए 150 दिनों में करीब 3,500 किलोमीटर की दूरी तय करेंगे.
अभियान से जुड़े पोस्टरों और सोशल मीडिया सामग्री पर पूर्व पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी का चेहरा छाया हुआ है. संदेश स्पष्ट है कि यात्रा उन्हीं की अगुआई में आयोजित की जा रही है, हालांकि ऐसा आधिकारिक रूप से कहा नहीं गया है. अभियान की वेबसाइट पर 'भारत पदयात्रियों' की सूची में सबसे ऊपर उन्हीं का नाम है.
सूची में गांधी के अलावा 114 अन्य कांग्रेस नेताओं के भी नाम हैं. साथ ही पार्टी ने यह भी दावा किया है कि इसमें पूरे देश से दूसरे राजनीतिक दलों के नेता, सामाजिक कार्यकर्ता, विचारक, लेखक, कलाकार और अन्य जाने माने लोग भी शामिल होंगे. कुछ दिनों पहले इस अभियान को लेकर पार्टी ने सिविल सोसाइटी संगठनों के साथ एक बैठक आयोजित की थी, जिसमें योगेंद्र यादव, अरुणा रॉय आदि जैसे कई जाने माने लोग शामिल हुए थे.
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सत्ता गंवाती जा रही कांग्रेस
ये लोग यात्रा में भी शामिल होंगे या नहीं यह देखना होगा. इस यात्रा को 2024 के लोक सभा चुनावों के लिए कांग्रेस पार्टी के चुनावी बिगुल के रूप में देखा जा रहा है. लेकिन पार्टी इस समय जितनी आंतरिक समस्याओं से जूझ रही है, उन्हें देख कर इस समय यह कहना मुश्किल है कि अगर इस समय देश में चुनाव हो जाएं तो पार्टी अपने मुख्य प्रतिद्वंदी बीजेपी को कोई टक्कर दे सकेगी.
जरा एक नजर पार्टी के हाल पर डालिए. लोक सभा में पार्टी के पास इतने सांसद भी नहीं है जिससे उसके किसी सांसद को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा मिल सके. अपने दम पर पार्टी की सरकार सिर्फ दो राज्यों में है - राजस्थान और छत्तीसगढ़. तीन और राज्यों -बिहार, झारखंड और तमिलनाडु - में पार्टी सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा है.
बीजेपी की चौबीसों घंटे सक्रिय राजनीतिक मशीनरी के आगे बेबस कांग्रेस एक एक कर राज्यों में सत्ता खोती भी जा रही है. इस क्रम में वो कर्नाटक, मध्य प्रदेश और हाल ही में महाराष्ट्र में सत्ता गंवा बैठी. झारखंड में भी जेएमएम-कांग्रेस सरकार मानो एक दुर्बल कलाबाज की तरह बस किसी तरह एक पतली सी तार पर चल रही है.
इसके अलावा संगठन और नेतृत्व के मोर्चे पर भी पार्टी बड़े संकटों का सामना कर रही है. हाल ही में पार्टी के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद के इस्तीफा से यह संकट एक बार फिर रेखांकित हुआ. आजाद कई दशकों से कांग्रेस के साथ थे और मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष रह चुके हैं. वो अकेले नहीं गए बल्कि उनके साथ कश्मीर के कम से कम 64 नेताओं ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया.
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कौन करे नेतृत्व
आजाद दो साल पहले कांग्रेस के अंदर बने एक बागी गुट में शामिल थे. "जी-23" के नाम से जाने जाने वाले 23 नेताओं के इस गुट में कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, आनंद शर्मा आदि जैसे पूर्व केंद्रीय मंत्री और भूपिंदर सिंह हुड्डा जैसे जनाधार वाले पूर्व मुख्यमंत्री तक शामिल थे. सिब्बल ने भी हाल ही में पार्टी छोड़ दी.
एक तरफ पार्टी का संगठन कमजोर होता जा रहा है और दूसरी तरफ पार्टी नेतृत्व के संकट में भी कसती चली जा रही है. पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी अब सक्रिय नहीं रहतीं. मीडिया के सामने अकसर रहने वाले पार्टी के नेताओं की जुबान पर राहुल गांधी का ही नाम रहता है लेकिन गांधी हैं कि अध्यक्ष पद स्वीकारते ही नहीं.
यह अजीब सी स्थिति है जिसमें पार्टी के नेता जिसे अपना अध्यक्ष बनाना चाह रहे हैं वो पद को स्वीकार ही नहीं रहा है. ना ही शशि थरूर जैसे नेताओं द्वारा की गई पारदर्शी आंतरिक चुनावों की मांग को स्वीकारा जा रहा है. इन मूल चुनौतियों को जीते बिना कांग्रेस के मजबूती से आगे बढ़ने की क्या संभावना है?
और असली लड़ाई तो इस लड़ाई के बाद है. बीजेपी के मौजूदा स्वरूप और रणनीति ने ऐसे चुनावी मॉडल को जन्म दिया है जो भारतीय राजनीति में पहले कभी देखा नहीं गया. पार्टी हमेशा चुनावी मोड में रहती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पार्टी का हर बड़ा नेता निरंतर सक्रिय रहता ही है, कार्यकर्ताओं की एक विशाल फौज भी लगातार पार्टी के विस्तार में लगी रहती है.
चुनावों में हार कर भी पार्टी हार नहीं मानती और सत्ताधारी को उपलब्ध हर हथकंडे का इस्तेमाल कर अंत में और सत्ता हासिल कर लेती है. इस तरह के प्रतिद्वंदी से बखूबी वही पार्टी लड़ सकती है जो इतनी ही मेहनत अपनी राजनीति में झोंके. कांग्रेस अभी इस स्थिति में आने से कोसों दूर है.
ऐसे में 'भारत जोड़ो' नारा कितना भी लुभावना लगे, सच्चाई यही है कि कांग्रेस को पहले कांग्रेस को ही जोड़ने की जरूरत है.