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साहित्यभारत

औरतों को तो सरहदें लांघ कर ही आगे जाना हैः गीतांजली श्री

मानसी गोपालकृष्णन
२ जून २०२२

अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से सम्मानित हिन्दी उपन्यास 'रेत समाधि' की लेखिका गीतांजली श्री से डीडब्ल्यू ने की खास बातचीत. 'रेत समाधि' का अनुवाद अंतरराष्ट्रीय जगत के सामने 'टूंब ऑफ सैंड' के नाम से सामने आया था.

2022 International Booker Prize | Geetanjali Shree und Daisy Rockwell
अंग्रेजी में अनुवाद करने वाली डेजी रॉकवेल के साथ बुकर पुरस्कार स्वीकार करतीं हिन्दी लेखिका गीतांजली श्री तस्वीर: David Parry/PA Wire/empics/picture alliance

हिन्दी लेखिका गीतांजली श्री का उपन्यास किसी भारतीय भाषा में लिखी गई वह पहली किताब है जिसने अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीता है. उनकी ‘रेत समाधि' का अंग्रेजी अनुवाद जानी मानी अनुवादक डेजी रॉकवेल ने किया है जो ‘टूंब ऑफ सैंड' के नाम से प्रकाशित हुई.

इसमें एक बुजुर्ग महिला की कहानी है जो अपने पति की मौत के बाद अवसाद में घिर जाती है. फिर एक दिन वह पाकिस्तान जाकर 1947 के बंटवारे के समय के अपने दुख और सदमे का सामना करने का फैसला करती है. इस दौरान एक महिला और मां होने के नाते उस पर क्या क्या गुजरती है इसी की दास्तान इस किताब में है. डीडब्ल्यू ने गीतांजली श्री से इस पुरस्कार के साथ साथ साहित्य और समाज के बारे में खास बातचीत की.

'रेत समाधि' में आपने महिला होने को हमेशा सरहदों में जीने जैसा बताया है. इससे आपका क्या आशय है?

सदियों से औरत को जैसे गढ़ा गया है, उसकी बहुत सी सीमाएं और सरहदें बनाई गई हैं कि ये होती है औरत, ऐसा होना चाहिए औरत को. सरहद और सीमा तो उसके व्यक्तित्व में बहुत मायने रखते हैं. लेकिन मैं कह रही हूं कि जब सरहदें और सीमा है तो उन्हें लांघना भी बहुत मायने रखता है. औरत होना ही एक तरह से सरहदों में बंधना है, वही आपको उसे लांघने को भी उकसाता है और उसे लांघ कर ही कहीं और निकलते भी हैं.

अंग्रेजी में "माई: साइलेंट मदर"के नाम से आए आपके एक उपन्यास से आपको काफी प्रसिद्धी मिली. उसमें आपने महिलाओं की तीन पीढ़ियों की कहानी कही है. आपकी 'रेत समाधि' में भी अलग अलग पीढ़ियों की महिलाओं और उनके आपसी संबंधों का जिक्र है. आपको ऐसे विषय इतना आकर्षित क्यों करते हैं?

मांएं तो महत्वपूर्ण होती ही हैं. एक औरत होने के नाते मैं औरतों के जीवन को अपने तरीके से समझते हूं. कुछ चीजें होती हैं जो आपके या अपने करीबियों के अनुभवों से निकल कर आती हैं, लेकिन ये भी देखिए कि मेरा उपन्यास 'हमारा शहर उस बरस' में मैंने हिन्दू, मुसलमान पर लिखा है. तो मेरी कल्पना में, मेरे अनुभवों में, मेरे जीवन में जो कुछ भी अहम लगता है वही मेरे लेखन में आता है.

अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के लिए चुने जाने पर आपको कैसा लगा?

मैं भारत में रह कर हिन्दी में काम करती हूं. इस दुनिया में तो मैंने बुकर प्राइज के बारे में सोचा भी नहीं था. मेरे लिए यह सब बहुत दूर की बात थी, जैसे किसी और दुनिया की. जब मुझे खबर मिली कि मैं लॉन्ग लिस्ट में हूं तो मुझे उसकी अहमियत भी नहीं पता थी बस नाम सुना था. फिर लोगों के फोन आने लगे और मेरे काम के बारे में लिखा जाने लगा तब धीरे धीरे समझ में आया कि ये एक बड़ी बात है. जब तक शॉर्ट लिस्ट में आई तब तक इसके मायने पूरी तरह समझ चुकी थी.

आजकल भारत में हिन्दी किताबों का बाजार कैसा है?

मिला जुला हाल है. याद रखिए कि भारत के हिन्दी बोलने वाले इलाके काफी गरीब भी हैं. शिक्षा की समस्या है. पढ़े लिखे भी हैं और अनपढ़ लोग भी हैं. केरल जैसे (शत प्रतिशत साक्षरता वाले) राज्य से तुलना करें तो वहां लोगों में साहित्य के लेकर जैसी जागरुकता है वैसी हिन्दी भाषी क्षेत्रों में नहीं मिलेगी. लोग पढ़ना तो चाहते हैं और यह भी कि उन्हें और चीजें मिलें पढ़ने के लिए, लेकिन लाइब्रेरी जाकर पढ़ना सबके लिए आसान नहीं.

क्या आपको लगता है कि आपके बुकर पुरस्कार से हिन्दी किताबों के बाजार को मदद मिलेगी?

जब कुछ ऐसा होता है और आप रोशनी की जद में आ जाते हैं तो वो रोशनी फिर आपके आसपास भी पड़ती है. इस समय हिन्दी साहित्य जगत पर वह रोशनी पड़ रही है. तो यह ख्याल आ गया कि हिन्दी में भी कुछ है. हिन्दी के साथ साथ दूसरी भारतीय भाषाओं को लेकर भी जिज्ञासा और उत्साह तो बढ़ा ही होगा.

लेकिन यह याद रखना चाहिए कि लेखन का काम अपने आप में बहुत शांत और निजी है. लेखन वैसे ही चलता रहेगा जैसे आज तक चलता आया है, चाहे वो इतना सामने लाया जा सके या नहीं.

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