क्या यूरोपीय देशों में इलेक्ट्रिक कारें सफल हो रही हैं?
१ जुलाई २०२२![Symbolbild E-Fahrzeuge an einer Ladesäule](https://static.dw.com/image/56354787_800.webp)
ऐसा लगता है कि यूरोपीय संघ के देशों में अब डीजल-पेट्रोल से चलने वाली गाड़ियों का अब कोई भविष्य नहीं है. 2035 से यहां नई कारें और वैन तभी बेची जा सकेंगी, जब वे जलवायु के अनुकूल हों और कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन न करें.
29 जून को यूरोपीय संघ के सदस्य देशों ने लंबी बहस और नोक-झोंक के बाद इस संबंध में एक समझौता किया कि अब सिर्फ ऐसी कारें ही बनेंगी, जो पूरी तरह उत्सर्जन-मुक्त हों. यह समझौता 27 देशों में साल 2035 तक गैसोलीन या डीजल से चलने वाली कारों की बिक्री पर रोक लगाएगा.
हालांकि, इस समझौते को अंतिम और विधायी रूप यूरोपीय संघ की संसद में दिया जाएगा, जिसमें सदस्य देशों की आशंकाओं और असहमतियों को दूर करने की कोशिश होगी. लेकिन, कानून की मूलभूत बातें यही होंगी, जो इस समझौते में तय हुई हैं.
ई-ईंधन को लेकर विवाद
जर्मनी समेत यूरोपीय संघ के कई देशों में इलेक्ट्रिक वाहनों को लेकर बहसें जारी हैं. जर्मनी के वित्त मंत्री क्रिश्चियन लिंडनर उम्मीद जताते हैं कि सिंथेटिक तरीके से बने और ज्यादा जलवायु-अनुकूल ईंधन, जिन्हें तथाकथित ई-ईंधन कहा जा रहा है, उन्हें 2035 के बाद भी परंपरागत कारों में इस्तेमाल किया जा सकेगा.
उनका तर्क है कि इससे नौकरियां बची रहेंगी और नई खोजों को भी बढ़ावा मिलेगा. दूसरी ओर जर्मनी के पर्यावरणविद और ग्रीन पार्टी के लोग विमानन और भारी वाहनों के संदर्भ में सिर्फ और सिर्फ ई-ईंधन के उपयोग की वकालत कर रहे हैं. ग्रीन लोगों को हाल की कुछ रिपोर्ट्स का भी समर्थन मिलता है, जिनमें दावा किया गया कि ई-ईंधन से चलने वाली कारें परंपरागत वाहनों की तुलना में बहुत कम मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करती हैं.
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यह रिपोर्ट ट्रांसपोर्ट एंड एनवायरनमेंट अलायंस ने तैयार की, जो यातायात के स्थाई तरीकों का समर्थन कर रहा है. रिपोर्ट के मुताबिक इलेक्ट्रिक कारें डीजल और पेट्रोल से चलने वाली कारों की तुलना में 80 फीसद कम कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करती हैं.
पेट्रोल-डीजल इंजनों पर प्रतिबंध लगाना सही है?
इंटरनेशनल असोसिएशन ऑफ सस्टेनेबल ड्राइवट्रेन एंड वीहिकल टेक्नोलॉजी रिसर्च यानी आईएएसटीईसी कंबस्चन इंजन यानी जलाकर ऊर्जा पैदा करने वाले इंजन की टेक्नोलॉजी का समर्थन करता है. संस्था ने यूरोपीय संघ के सांसदों को एक पत्र लिखकर दहन इंजनों पर प्रतिबंध लगाने को लेकर अपनी चिंता जताई है.
आईएएसटीईसी के विशेषज्ञ मेकेनिकल इंजीनियरिंग, प्रॉसेस टेक्नोलॉजी और रसायन जैसे क्षेत्रों से जुड़े हैं. ये लोग भी ई-ईंधन का समर्थन करते हैं, लेकिन उनका यह भी कहना है कि इलेक्ट्रिक कारों के कार्बन डाइऑक्साइड फुटप्रिंट उससे कहीं ज्यादा हैं, जितने आधिकारिक रूप से बताए गए हैं. ऐसा इसलिए, क्योंकि इनकी बैटरी को रीचार्ज करने के लिए बिजली की जरूरत होगी और फिलहाल बिजली का सबसे बड़ा स्रोत जीवाश्म ईंधन ही है.
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विशेषज्ञ यह चेतावनी भी देते हैं कि बिजली चालित वाहनों पर अत्यधिक ध्यान केंद्रित करने का एक दूरगामी परिणाम यह भी होगा कि हमारी चीन पर निर्भरता बढ़ जाएगी.
मौजूदा समय में यूरोपीय संघ में 25 करोड़ कारें रजिस्टर्ड हैं, जिनमें से 4.8 करोड़ कारें जर्मनी में हैं. 2035 की समय सीमा दहन इंजन वाली सिर्फ नई कारों की बिक्री पर प्रतिबंध लगाती है, न कि पहले बेची गई कारों पर. पुरानी कारों को खरीदने पर इस प्रतिबंध का असर नहीं पड़ेगा.
बदलाव की लंबी मियाद
मान लीजिए कि एक कार औसतन 14 साल तक चलती है, तो इसका मतलब यह हुआ कि यूरोपीय संघ में दहन इंजन से चलने वाली कोई भी कार 2040 तक चल सकेगी. विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि चूंकि ग्रीनहाउस उत्सर्जन वायुमंडल में लंबे समय तक बना रहता है, इसलिए विभिन्न ड्राइवट्रेन तकनीक द्वारा साल 2045 तक यूरोपीय संघ का जलवायु तटस्थता का लक्ष्य प्राप्त करना मुश्किल हो जाएगा.
विशेषज्ञों ने नीति निर्धारकों से अपील की है कि दहन इंजनों से चलने वाली कारों पर टैक्स बढ़ाए जाएं और पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम को और बेहतर किया जाए. उनका यह भी कहना है कि सार्वजनिक परिवहन को और प्रभावी बनाना होगा और कारों की संख्या को कम करना होगा.
इस मुद्दे पर लोग बंटे हुए हैं. जर्मनी के तमाम तकनीकी संगठनों के समूह का प्रतिनिधित्व करने वाले संघ टीयूवी असोसिएशन की ओर से कराए गए एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि सिर्फ 26 फीसद जर्मन लोग ही अपनी अगली कार के रूप में कोई इलेक्ट्रिक कार खरीदना चाहते हैं. सर्वेक्षण में शामिल ज्यादातर लोग दहन इंजनों पर प्रतिबंध लगाने के खिलाफ थे.
अन्य देश यूरोपीय संघ की योजना से काफी आगे हैं. उदाहरण के लिए नॉर्वे तो 2025 से ही अपने यहां पेट्रोल और डीजल से चलने वाली कारों पर प्रतिबंध लगाना चाहता है. ब्रिटेन, स्वीडन, डेनमार्क और नीदरलैंड भी 2030 तक इन कारों को प्रतिबंधित करने की योजना बना रहे हैं.
कार निर्माता लाभ की उम्मीद में
कुछ जानकार इस बात पर हैरान हैं कि वीडब्ल्यू और मर्सिडीज-बेंज जैसी बड़ी कार निर्माता कंपनियों ने 2035 तक दहन इंजन वाली कारों पर प्रतिबंध लगाने का स्वागत किया है. ऐसा लगता है कि ई-ईंधन की कारों में ये कंपनियां अपना फायदा देख रही हैं.
एक तरफ यूरोपीय संघ की जलवायु सुरक्षा जरूरतें कार निर्माताओं को कम कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन वाली गाड़ियां बनाने का दबाव बना रही हैं. उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकारें इलेक्ट्रिक कारों और चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर पर सब्सिडी दे रहे हैं, जिसका भार करदाताओं के ऊपर पड़ता है.
दूसरी ओर इलेक्ट्रिक कारों के उत्पादन के लिए बहुत कम श्रमिकों की जरूरत होती है, क्योंकि इलेक्ट्रिक वाहनों के इंजन में बहुत कम पुर्जे लगते हैं. कार निर्माता कंपनी बीएमडब्ल्यू के मैनफ्रेड स्टॉच कहते हैं, "आठ सिलिंडर के एक इंजन में 1200 पार्ट्स होते हैं, जिन्हें असेंबल करना होता है, जबकि एक इलेक्ट्रिक कार में सिर्फ 17 पार्ट्स होते हैं."
चीन पर निर्भरता
इलेक्ट्रोमोबिलिटी की ओर स्विच करने के आगे भी कुछ जोखिम हैं. यह अनुमान लगाना भी कठिन है कि इससे भविष्य में कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में कितनी कमी आएगी. यूक्रेन युद्ध का उदाहरण लीजिए. इसने एक नए ऊर्जा संकट को जन्म दिया है, जिसकी वजह से कोयले से और ज्यादा बिजली का उत्पादन करना पड़ रहा है. कुछ ऐसा ही इलेक्ट्रिक कार बनाने वाली कंपनियों की वजह से भी कार्बन डाइ ऑक्साइड में बढ़ोतरी होगी.
इसके अलावा ई-वाहनों के निर्माण के लिए जिन तमाम कच्चे माल की जरूरत होती है, उनमें से ज्यादातर के खनन और उनकी प्रॉसेसिंग का काम चीन में होता है. जाहिर है इस वजह से चीन के ऊपर इन देशों की निर्भरता बहुत ज्यादा बढ़ जाएगी. इलेक्ट्रिक वाहनों में कॉपर, कोबाल्ट, मैंगनीज और लीथियम जैसी दुर्लभ मृदा धातुओं की जरूरत परंपरागत वाहनों की तुलना में छह गुना ज्यादा पड़ती है. इंटरनेशनल एनर्जी एसोसिएशन के मुताबिक लीथियम का दाम एक साल के भीतर सात सौ फीसदी बढ़ गया.
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इलेक्ट्रिक कार के संभावित खरीदारों के लिए यह अच्छी खबर नहीं है, क्योंकि इससे वे और ज्यादा खर्च में पड़ जाएंगे. जर्मनी में इस वक्त एक कॉम्पैक्ट इलेक्ट्रिक कार कम से कम 20 हजार यूरो में आ रही है, जिसमें सब्सिडी भी शामिल है.
चूंकि कार कंपनियां महंगे प्रीमियम वाहनों की बिक्री से काफी मुनाफा कमाती हैं, इसलिए हो सकता है कि आने वाले दिनों में सस्ती कॉम्पैक्ट कारों का निर्माण कम हो जाए और विडंबना यह है कि इन कारों को जलवायु संरक्षण लक्ष्यों का शिकार होना पड़ेगा.