नर्सों की भयंकर कमी से जूझता ब्रिटेन
२९ अक्टूबर २०२१कोविड महामारी की शुरुआत में स्वास्थ्यकर्मियों के योगदान पर तालियां बजा रहे ब्रिटेन में अब चिंता है नर्सों की भयंकर कमी से उपजने वाली खराब स्थिति पर. आंकड़ों के मुताबिक राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा यानी एनएचएस अस्पतालों में नर्सों के लगभग चालीस हजार पंजीकृत पद खाली पड़े हैं. कोविड से बाहर निकलने की कोशिशों को इससे बड़ा झटका लग सकता है. इसका एक उदाहरण स्कॉटलैंड में देखने को मिला जहां कोविड के मद्देनजर नर्सों की जरूरत को पूरा करने के लिए हाल ही में सैन्यकर्मियों की तैनाती करनी पड़ी.
सामान्य स्वास्थ्य विभाग हों या आपात सेवाएं, समूचे ब्रिटेन के ज्यादातर अस्पतालों में एक शिफ्ट के दौरान नर्सों की जरूरी संख्या को पूरा कर पाना एक चुनौती बन गया है. ऑक्सफोर्ड शहर के जॉन रैडक्लिफ अस्पताल में नवजात शिशु विभाग के डॉक्टर अमित गुप्ता ने बातचीत में बताया कि "बाकी ब्रिटेन की तरह हमारे यहां भी काफी दिक्कत है. हमारा अस्पताल कमी को पूरा करने के लिए ब्रिटेन के बाहर से नर्सिंग स्टाफ भर्ती कर रहा है.”
नया नहीं है नर्सिंग संकट
नर्सिंग का ये संकट नया नहीं है. पिछले कुछ सालों में ब्रिटेन में बार-बार इस बात की चर्चा होती रही है कि महामारी के दौरान नर्सों की कमी से निपटा नहीं गया तो नतीजे बुरे होंगे. पिछले साल संसद की पब्लिक अकाउंट्स कमेटी ने कहा था कि देश के स्वास्थ्य विभाग को खबर ही नहीं है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा एनएचएस में कितनी, कहां और किस तरह की विशेषज्ञता वाला नर्सिंग स्टाफ चाहिए. सरकार ने 2025 तक पचास हजार नर्सों की भर्ती का वादा किया था लेकिन समिति का कहना था कि इसके लिए किसी तरह का सरकारी प्लान है ही नहीं.
प्रधानमंत्री बॉरिस जॉनसन की सरकार पर स्वास्थ्य जरूरतों को लेकर लगातार दबाव बना हुआ है. एक तरफ कोविड की चुनौती बरकरार है तो दूसरी तरफ इन सर्दियों में फ्लू से पंद्रह हजार से साठ हजार मौतों का अनुमान लगाती एकेडमी ऑफ मेडिकल साइसेंज की चेतावनी. हालात इशारा करते हैं कि नर्सों की कमी आगे ज्यादा भयानक रूप ले सकती है.
ब्रेक्जिट, कोविड और नर्सें
पिछले दिनों लॉरी ड्राइवरों की कमी के चलते पेट्रोल की किल्लत और खाने-पीने के सामान की आमद पर हुए असर से ब्रेक्जिट के जमीनी असर की एक झलक दिखाई दी. ब्रेक्जिट के आम जीवन पर असर का एक और चिंताजनक उदाहरण नर्सों की कमी को भी कहा जा सकता है. ब्रिटेन में पेशेवर नर्सों की नियामक संस्था नर्सिंग ऐंड मिडवाइफरी काउंसिल के आंकड़े बताते हैं कि यूरोपीय आर्थिक क्षेत्र से आकर ब्रिटेन में काम करने वाली नर्सों की संख्या में नब्बे फीसदी गिरावट आई है. काउंसिल रजिस्टर के मुताबिक मार्च 2016 तक ये संख्या 9,389 थी जो मार्च 2021 में गिरकर 810 तक पहुंच गई.
ईयू नागरिकता रखने वाले नर्सिंग स्टाफ में गिरावट की तस्दीक हाउस ऑफ कॉमंस लाइब्रेरी के आंकड़े भी करते हैं जिसके मुताबिक जून 2016 में ईयू से नर्सों की संख्या कुल नर्सों का 7.4 प्रतिशत थी. मार्च 2021 में संख्या गिरकर 5.6 प्रतिशत पर पहुंच गई. दिक्कतें यहीं नहीं थमी. जुलाई 2020 में रॉयल कॉलेज ऑफ नर्सिंग (आरसीएन) के एक सर्वे में ये सामने आया कि महामारी के तनाव भरे अनुभव के बाद हर तीन में से एक नर्स ने एक साल के भीतर एनएचएस छोड़ देने की इच्छा जताई. इसमें कम तनख्वाह के साथ-साथ नर्सों के योगदान को जरूरी सम्मान ना मिलने से उपजी हताशा भी सामने आई.
बद से बदतर होते हालात पर बात करते हुए आरसीएन की इंग्लैंड निदेशक पैट्रिशिया मार्किस ने हाल ही में बीबीसी से कहा कि "हम विदेश से आने वाले नर्सिंग स्टाफ का स्वागत करते हैं. वे ब्रिटेन के लिए बेहद अहम हैं लेकिन सरकार को देखना ये चाहिए कि जिन नर्सों ने महामारी के दौरान काम किया है उनकी शारीरिक और मानसिक स्थिति क्या है.” अस्पतालों में स्टाफ की कमी के चलते मरीजों की लंबी होती प्रतीक्षा और स्वास्थ्यकर्मियों के खिलाफ हिंसा की खबरें भी इस तस्वीर का एक और पहलू है जिसके खिलाफ ब्रिटेन की सबसे बड़ी नर्सिंग ट्रेड यूनियन यूनिसन समेत छह मेडिकल संस्थानों ने हाल ही में आवाज उठाई थी.
भारत और फिलीपींस की नर्सों पर दारोमदार
एक तरफ जहां यूरोपीय नर्सों की संख्या कम हुई है वहीं ईयू के अलावा दूसरे देशों से नर्सों की संख्या खासी बढ़ी है. एनएचएस अपने अस्पतालों में नर्सों की कमी पूरा करने के लिए ब्रिटेन और ईयू के बाहर से स्टाफ लेने की कोशिश में लगा है. इन देशों में भारत और फिलीपींस सबसे आगे हैं. हाउस ऑफ कॉमंस लाइब्रेरी के मुताबिक इस साल मार्च तक दर्ज आंकड़ों के मुताबिक चौंतीस हजार पांच सौ दस नर्सें एशियाई हैं और इनमें लगभग पचास फीसदी यानी सत्रह हजार आठ सौ बावन की नागरिकता भारतीय है.
कोविड की शुरूआत से लेकर अब तक लगातार ड्यूटी पर रहने वाली नीना जोसी, साल 2005 में केरल से लंदन आईं. रॉयल लंडन हॉस्पिटल में काम करने वाली नीना बताती हैं कि कोविड की पहली वेव के लिए कोई भी तैयार नहीं था. कम स्टाफ के साथ काम करने, और इतनी मौतें देखने के बाद परेशान होना लाजमी है लेकिन नौकरी छोड़ने का ख्याल कभी नहीं आया. वो दलील देती हैं कि "हम भारत में अपने परिवार छोड़कर यहां नौकरी करने ही तो आए थे. फिर यही जिंदगी बन गया, अब इसे छोड़कर दूसरा कोई काम करना मुमकिन नहीं है.”
नर्सों की कमी के दूसरे कारण
कोरोना से जूझने में गुजरे बेहद मुश्किल दिनों को याद करते हुए केरल से आईं एक और नर्स शैंटी जॉर्ज ने स्टाफ कम होते चले जाने के कई कारण गिनाए. लंदन के ही एक बड़े एनएचएस अस्पताल में नर्स शैंटी कहती हैं, "कुछ नर्सों को खुद बीमारियां थीं जिनके चलते उनका कोविड के दौरान काम करना सुरक्षित नहीं था. जो लोग रिटायरमेंट के करीब थे वो घबरा गए. जो महिला नर्स गर्भवती थीं उनको भी बुलाना नामुमकिन हो गया. ऐसे में दिक्कतें तो होनी ही थीं. जिन स्वास्थ्यकर्मियों को नर्सों की कमी पूरा करने के लिए लगाया भी जा रहा था वो प्रशिक्षित नहीं थे. अब नए लोग आ रहे हैं तो शायद हालात सुधरें”.
स्थिति सुधरने की आस में अपनी जिम्मेदारियों को निभाते चले जाने वाले नर्सिंग स्टाफ के सामने ज्यादा विकल्प हैं भी नहीं. डॉक्टर गुप्ता मानते हैं कि ब्रिटेन को इस मोड़ से आगे ले जाने के लिए नर्सों की बेहतर तनख्वाह, घरेलू प्रशिक्षित स्टाफ की संख्या बढ़ाना और विदेशी भर्तियों का मिला-जुला मॉडल अपनाना होगा. इस बीच फिलींपींस से नर्सों का एक नया जत्था ब्रिटेन पहुंच चुका है. जब तक सरकारी स्तर पर लंबी-अवधि के उपाय नहीं किए जाते तब तक ब्रिटेन की जमीन पर हर नर्स उम्मीद की एक किरण है.