फुटबॉल से वर्जनाओं को ठोकर मारती ब्रिटिश-भारतीय लड़कियां
स्वाति बक्शी
२० अगस्त २०२१
लंदन के लिटिल इंडिया कहे जाने वाले इलाके में लड़कियों की पहली फुटबॉल टीम लड़कियों के लिए नया अवसर लाई है. ब्रिटेन में फुटबॉल क्रिकेट की तरह लोकप्रिय है लेकिन ब्रिटिश भारतीय लड़कियों के लिए इस खेल में मौके नहीं रहे हैं.
फुटबॉल क्लब- साउथॉल एथलेटिक एफसी (साउथॉल एएफसी) की महिला टीमतस्वीर: Swati Bakshi
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ब्रिटेन में फुटबॉल की पेशेवर दुनिया में ब्रिटिश-एशियाई खिलाड़ियों का नाम गिना जाए तो चंद पुरुषों के नाम जुबान पर भले आ जाएं लेकिन ब्रिटिश-भारतीय महिलाओं का एक भी नाम गिन पाना मुमकिन नहीं होगा. ये वर्ग फुटबॉल की दुनिया से नदारद है. इस स्थिति के पीछे सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचों की भूमिका है लेकिन ये सूरत बदल सकती है, इसकी उम्मीद जगा रही है एक सामुदायिक फुटबॉल क्लब- साउथॉल एथलेटिक एफसी (साउथॉल एएफसी) की महिला टीम. पश्चिमी लंदन में बसा साउथॉल भारत के पंजाब राज्य से ताल्लुक रखने वाली आबादी का गढ़ है. ये क्लब फुटबॉल खेलने की चाह रखने वाली यहां की ब्रिटिश-भारतीय लड़कियों के लिए नया अवसर बनकर उभरा है.
क्लब की महिला टीम इसी साल अस्तित्व में आई है और नई प्रतिभाएं निखारने की उम्मीदों से भरी हुई है. लड़कियों की टीम बनाने के फैसले पर बात करते हुए मैनेजर सिंतु सुब्रह्मण्यम बताते हैं, "हमारे क्लब में लड़कों की टीम का बढ़िया प्रदर्शन रहा है. जब क्लब की गतिविधियां बढ़ाने का सवाल आया तो हमें लगा कि सबसे बड़ी जरूरत लड़कियों को मौका देने की है. ऐसा नहीं है कि लड़कियों की खेलों में दिलचस्पी नहीं है, दिक्कत इस बात की है कि उन्हें पता ही नहीं था कि शुरूआत कहां से हो सकती है."
ब्रिटेन में महिला फुटबॉल, केन्द्रीय नियामक संस्था इंग्लिश फुटबॉल एसोसिएशन (एफए) के नियंत्रण में गैर-व्यावसायिक स्तर पर खेला जाता है. एफए में महिला फुटबॉल के विकास के लिए जिम्मेदार रेचल पैवलू ने हाल ही में बीबीसी से कहा कि एफए की कोशिश है कि ब्रिटिश एशियाई लड़कियों के सामने रोल मॉडल पेश करने के साथ-साथ महिलाओं के फुटबॉल क्लबों के जरिए ये पता लगाया जाए कि उन्हें किस चीज की जरूरत है. 1863 में बने दुनिया के सबसे पुराने फुटबॉल संगठन के पास ये जानकारियां अब तक ना होना ही अपने आप में असहज करने वाली बात है.
मिलिए खेलों की कुछ सुपर महिलाओं से
महिलाएं खेलों में पुरुषों के साथ बराबरी के लिए दशकों से लड़ रही हैं. कई सफल महिला खिलाड़ियों के इस संघर्ष ने खेलों की दुनिया को हिला के रख दिया, लेकिन कई क्षेत्रों में वो सफलता ज्यादा वक्त तक चली नहीं.
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एक बड़ी लैंगिक बाधा ध्वस्त
10 अप्रैल, 2021 को रेचल ब्लैकमोर ने खेलों की दुनिया की सबसे बड़े लैंगिक बाधाओं में से एक को तोड़ दिया. वो इंग्लैंड की कठिन ग्रैंड नेशनल प्रतियोगिता को जीतने वाली पहली महिला जॉकी बन गई हैं. आयरलैंड की रहने वाली 31 वर्षीय ब्लैकमोर ने जीत हासिल करने के बाद उन्होंने कहा, "मैं अभी पुरुष या महिला जैसा महसूस ही नहीं कर रही हूं. बल्कि मैं अभी इंसान जैसा भी महसूस नहीं कर रही हूं. यह अविश्वसनीय है."
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टेनिस की दुनिया का चमकता सितारा
1970 के दशक में बिली जीन किंग ने टेनिस में पुरुष और महिला खिलाड़ियों को एक जैसी पुरस्कार राशि देने के लिए संघर्ष किया था. 12 ग्रैंड स्लैम जीत चुकीं किंग ने कुछ और महिला खिलाड़ियों के साथ विरोध में अपनी अलग प्रतियोगिताएं ही शुरू कर दीं, जो आगे जाकर महिला टेनिस संगठन (डब्ल्यूटीए) बनीं. उनके संघर्ष का फल 1973 में मिला, जब पहली बार यूएस ओपन में एक जैसी पुरस्कार राशि दी गई.
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हर चुनौती को हराया
कैथरीन स्विटजर बॉस्टन मैराथन में भाग लेने वाली और उसे पूरा करने वाली पहली महिला थीं. उस समय महिलाओं को इस मैराथन में सिर्फ 800 मीटर तक भाग लेने की इजाजत थी, जिसकी वजह से स्विटजर ने अपना पंजीकरण गुप्त रूप से करवाया था. इस तस्वीर में जैकेट और टोपी पहने गुस्साए हुए रेस के निर्देशक ने स्विटजर का रेस नंबर फाड़ देने की कोशिश की थी. उनके विरोध के कुछ साल बाद महिलाओं को लंबी दूरी तक दौड़ने की अनुमति मिली.
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दर्शकों की पसंद
इटली की साइक्लिस्ट अल्फोंसिना स्ट्राडा ने 1924 की जीरो दी इतालिया के लिए अल्फोंसिन स्ट्राडा के नाम से पंजीकरण करवा कर आयोजनकर्ताओं को चकमा दे दिया. उन्हें पता ही नहीं चला कि वो एक महिला हैं. बाद में जब उन्हें पता चला तो उसके बावजूद स्ट्राडा को रेस में भाग लेने की अनुमति दे दी गई और इस तरह वो पुरुषों की रेस को शुरू करने वाली अकेली महिला बन गईं.
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छू लो आकाश
1990 के दशक तक महिलाएं स्की जंपिंग में हिस्सा नहीं ले सकती थीं, लेकिन 1994 में एवा गैंस्टर पहली महिला "प्री-जंपर" बनीं. 1997 में वो ऊंचे पहाड़ से छलांग लगाने वाली पहली महिला जंपर बनीं. पहला विश्व कप 2011 में आयोजित किया गया और ओलंपिक में यह खेल पहली बार 2014 में खेला गया.
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आइस हॉकी में महिलाएं
मेनन ह्यूम ने 1992 में उत्तरी अमेरिका के लोकप्रिय नेशनल हॉकी लीग में हिस्सा लेने वाली पहली महिला बनकर इतिहास रच दिया. उन्होंने एक प्री सीजन मैच में एक पीरियड के लिए खेला लेकिन बाद में उसी साल वो बाकायदा सीजन में प्रोफेशनल मैच में खेलने वाली पहली महिला भी बनीं.
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फुटबॉल में रेफरी
1993 में स्विट्जरलैंड की निकोल पेटिनात पुरुषों के चैंपियंस लीग फुटबॉल मैच में रेफरी बनने वाली पहली महिला बनीं. वो स्विस लीग, महिलाओं के विश्व कप और यूरोपीय चैंपियनशिप के फाइनल में भी रेफरी बनीं. हालांकि उनकी उपलब्धियों के बावजूद आज भी महिला रेफरियों की संख्या ज्यादा नहीं है. जर्मनी की बिबियाना स्टाइनहाउस इस मामले में अपवाद हैं.
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महिला ड्राइवर
इटली की मारिया टेरेसा दे फिलिप्पिस उन दो महिलाओं में से एक हैं जिन्हें फार्मूला वन रेस में गाड़ी चलाने वाली महिला होने का गौरव हासिल है. 1958 से 1959 के बीच, मारिया ने तीन ग्रां प्री में भाग लिया. इटली की ही लैला लोम्बार्दी उन्हीं के पदचिन्हों पर चलीं और 1974 से 1976 के बीच में 12 रेसों में हिस्सा लिया. उसके बाद से आज तक एफवन रेसों में महिलाएं हिस्सा नहीं ले पाई हैं.
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पुरुषों की कोच
कोरीन डाइकर चार अगस्त 2014 को पुरुषों की यूरोपीय फुटबॉल लीग में चोटी की दो श्रेणियों के एक मैच में कोच बनने वाली पहली महिला कोच बनीं. वो 2017 में फ्रांस की राष्ट्रीय महिला टीम की कोच भी बनीं. पुरुषों के फुटबॉल में आज भी उनकी अलग ही जगह है. आज भी कई महिला टीमों के कोच पुरुष हैं.
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महिलाओं के लिए जीवन समर्पित
जर्मन फुटबॉल कोच मोनिका स्टाब एक सच्ची पथ प्रदर्शक हैं. वो पूरी दुनिया में घूम घूम कर महिलाओं और लड़कियों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित कर रही हैं. उनका मानना है कि "खेलों में सकारात्मक फीडबैक आत्मविश्वास को बढ़ा देता है. जिंदगी से गुजरने के लिए यह आवश्यक है." - आंद्रेआस स्तेन-जीमंस
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फुटबॉल नहीं शादी अहम
ब्रिटेन में साल 2020 में हुए एक आधिकारिक सर्वे में सामने आया कि सोलह साल से ऊपर के आयु वर्ग में ब्रिटिश-एशियाई महिलाएं शारीरिक रूप से सबसे कम क्रियाशील समूह हैं. इसे सीधे तौर पर खेलों से जोड़कर देखा जा सकता है. लड़कियां बताती हैं कि भारतीय परिवारों में खेलने के लिए प्रोत्साहित करना तो दूर, उन्हें रोका जाता है. ज्यादातर घरों में बीस बरस से ऊपर की लड़कियों के लिए करियर के बजाय उनकी शादी ही एकमात्र प्राथमिकता बन कर रह जाती है.
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साउथॉल क्लब में खेलने वाली सिमरत कौर फ्लोरा स्कूल के दिनों से ही फुटबॉल में दिलचस्पी रखती हैं. अपना निजी अनुभव बांटते हुए वो कहती हैं, "मेरे घर में मुझे रोका तो नहीं गया खेलने से लेकिन मेरे साथ भारतीय परिवारों की लड़कियां थीं जो स्कूल के दिनों से ही घर में ये बता नहीं पाईं कि वो फुटबॉल खेलती हैं. उन्हें झूठ बोलना पड़ता था क्योंकि इसकी इजाजत नहीं मिलती.”
ये अनुभव ज्यादातर भारतीय लड़कियों के मामले में आम है जिन्हें जिम्मेदारी समझ कर मां-बाप घर से विदा कर देना चाहते हैं. लिहाजा खेल-कूद जिंदगी की इस स्कीम में फिट नहीं बैठता. एक दूसरी चिंता रंग-रूप की भी है जिसके बंधनों से भारतीय परिवारों की सोच आजाद नहीं हुई है. धूप में खेलने से लड़कियों की त्वचा का रंग गाढ़ा और शादी की संभावनाएं हल्की पड़ने का डर अब भी बरकरार है.
फुटबॉल के पावरहाउस में क्रिकेट खेलने वाली लड़कियां
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भेद-भाव और अवसरों की कमी
गौर करने लायक बात ये है कि फुटबॉल को एशियाई घर और संस्कृति से जोड़ने की रवायत दरअसल इसे समुदाय की अंदरूनी समस्या के तौर पर स्थापित करती है. सवाल ये है कि क्या बात वाकई खेलों से लड़कियों को दूर रखने की दिक्कत पर आकर खत्म हो जाती है? इसके जवाब में हमें फुटबॉल में रेसिज्म यानी जातीय भेद-भाव की परंपरा को खंगालना होगा. भेद-भाव की बात इस खेल की तरफ रुझान रखने वाले लगभग हर भारतीय से सुनी जा सकती है.
टीम मैनेजर सिंतु खुद बताते हैं कि "बहुत सी लड़कियों को स्कूली स्तर पर हुए अनुभवों ने आगे बढ़ने से रोक दिया. इसे भेद-भाव का नाम दें या कुछ और वजह रही हो लेकिन लड़कियों के लिए मौके पैदा नहीं किए गए. हमारे क्लब के बनते ही सोशल मीडिया के जरिए इस नए प्रयास ने उन्हें आकर्षित किया. चंद ही महीनों में करीब बीस लड़कियां हमसे जुड़ चुकी हैं.” भेद-भाव की मानसिकता से जुड़ा दूसरा दिलचस्प पहलू है भारतीय समुदाय को क्रिकेट से जोड़कर देखना. भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता का खामियाजा ये है कि ब्रिटिश-भारतीय समुदाय को सिर्फ उसी खेल के खांचे में फिट कर दिया गया है.
फुटबॉल को त्वचा के रंग और जातीय विरासत से जोड़ने की इस प्रवृत्ति के चलते भारतीयों को सिर्फ क्रिकेट खेलने लायक ही समझा जाता है, इस बात को सिमरत कौर स्वीकार करती हैं. वो कहती हैं, "इसे रेसिज्म का ही एक रूप माना जाना चाहिए कि एक भारतीय को देखते ही कोई ये कहे कि तुम्हें तो क्रिकेट ही खेलना चाहिए. मुझे लगता है साउथॉल क्लब की सभी लड़कियों के सामने ये मौका है कि अपने बेहतर प्रदर्शन से इन सारी वर्जनाओं को तोड़ दें.” साउथॉल एफसी ने अवसर पैदा किया है और युवा लड़कियों में इरादा भी है. अवसर और इरादे का ये मेल ब्रिटिश फुटबॉल जगत में भारतीय लड़कियों की भागीदारी का रास्ता तैयार कर सकता है.
भारत को ओलंपिक में मेडल दिलाने वाली महिला खिलाड़ी
भारत में क्रिकेट खिलाड़ियों की जितनी चर्चा होती है उतनी ओलंपिक के सितारों की नहीं. यहां देखिए उन महिला खिलाड़ियों को जिन्होंने ओलंपिक में भारत का झंडा लहराया है.
तस्वीर: Pedro Pardo/AFP
मीराबाई चानू
टोक्यो ओलंपिक में मीराबाई चानू ने वेटलिफ्टिंग की 49 किलोग्राम श्रेणी में रजत पदक जीतकर भारत का खाता खोला था. चानू कहती हैं कि उन्होंने 2016 के ओलंपिक में पदक चूकने के बाद काफी मेहनत की थी. पांच साल की मेहनत सफल होने पर वे बहुत खुश हैं.
तस्वीर: picture-alliance/epa/S. Lesser
पीवी सिंधु
पीवी सिंधु ने साल 2016 के रियो दे जनेरो ओलंपिक में सिल्वर मेडल भारत के नाम किया. इसके बाद उन्होंने टोक्यो ओलंपिक में ब्रॉन्ज मेडल अपने नाम किया. वे लगातार दो ओलंपिक में मेडल जीतने वाली पहली भारतीय खिलाड़ी हैं. उनका पूरा नाम पुसरला वेंकट सिंधु है.
तस्वीर: Naomi Baker/Getty Images
कर्णम मल्लेश्वरी
कर्णम मल्लेश्वरी भारत को ओलंपिक में मेडल दिलाने वाली पहली महिला हैं. कर्णम को वेट लिफ्टिंग में कांस्य पदक मिला है. यह मेडल उन्होंने साल 2000 के सिडनी ओलंपिक में जीता था. उन्होंने स्नैच श्रेणी में 110 किलोग्राम और क्लीन एंड जर्क में 130 किलोग्राम भार उठा कर यह मुकाम हासिल किया. कर्णम का जन्म आंध्र प्रदेश में हुआ था.
तस्वीर: Martin Rose/Bongarts/Getty Images
साइना नेहवाल
साइना नेहवाल दूसरी भारतीय एथलीट हैं जिन्होंने साल 2012 के लंदन ओलंपिक में कांस्य पदक जीता. बैडमिंटन के लिए ओलंपिक पदक जीतने वाली वह पहली महिला हैं. साइना का जन्म हरियाणा में हुआ था. साइना नेहवाल की जिदंगी पर बॉलीवुड फिल्म `साइना` बन चुकी है. इस फिल्म में परिणीति चोपड़ा ने साइना का किरदार निभाया है.
तस्वीर: Lu Binghui/Imaginechina/imago images
मेरी कॉम
मेरी कॉम अकेली भारतीय महिला हैं जिन्होंने देश को बॉक्सिंग में मेडल दिलाया. मेरी को साल 2012 के लंदन ओलंपिक गेम्स में कांस्य पदक मिला था. इसके साथ ही मेरी कॉम ने छह विश्व खिताब भी अपने नाम किए हैं. मेरी का जन्म मणिपुर में हुआ था. मेरी कॉम पर बॉलीवुड में फिल्म भी बन चुकी है. इस फिल्म में प्रियंका चोपड़ा ने मेरी कॉम का किरदार निभाया था.
साक्षी मलिक ने ओलंपिक में कांस्य पदक हासिल किया है. यह मेडल उन्हें साल 2016 के रियो ओलंपिक में फ्रीस्टाइल कुश्ती के 58 किलो भार वर्ग के लिए मिला था. इसके साथ ही वह पहली महिला पहलवान हैं जिन्होंने ओलंपिक में एक पदक जीता है. साक्षी का जन्म हरियाणा में हुआ था.