भारत के इन 4 राज्यों में बेतहाशा भूजल निकाला जा रहा है
रजत शर्मा
२३ दिसम्बर २०२१
भारत में भूजल खपत का राष्ट्रीय औसत 63 प्रतिशत है. यानी जितना पानी एक साल में जमीन के अंदर जाता है, उसका 63 प्रतिशत निकाल लिया जा रहा है. देश के कई राज्य ऐसे हैं जहां भूजल खपत के आंकड़े राष्ट्रीय औसत से ज्यादा हैं.
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भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक यानी कैग ने एक रिपोर्ट में बताया है कि भारत के 4 राज्य भूजल की 100 प्रतिशत से ज्यादा खपत कर रहे हैं. यानी जितना पानी एक साल में जमीन के अंदर जमा होता है, उससे ज्यादा पानी निकाला जा रहा है. ये चार राज्य हैं - पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान. संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान ये रिपोर्ट पेश की गई.
इस रिपोर्ट के मुताबिक, देश में भूजल खपत का राष्ट्रीय औसत 63 प्रतिशत है. देश के 13 राज्यों में भूजल खपत राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है. अगर जिला स्तर पर देखा जाए तो देश के 267 जिलों में राष्ट्रीय औसत से ज्यादा भूजल निकाला गया है. कुछ हिस्सों में खपत 385 प्रतिशत के बेहद खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है. संसद में पेश ये आंकड़े वर्ष 2004 से 2017 तक के डाटा पर आधारित हैं.
पानी में घुली धातुएं
रिपोर्ट में केंद्रीय भूमिगत जल बोर्ड के हवाले से बताया गया है कि देश के कई इलाकों में मौजूद भूजल में आर्सेनिक, फ्लोराइड, नाईट्रेट, लोहा और खारापन तय सीमा से ज्यादा है. जिन राज्यों में ये स्थिति पाई गई, वहां पर भूजल संबंधित विभागों में कर्मचारियों की कमी है.
कैग ने रिपोर्ट में टिप्पणी की है कि भूजल संरक्षण के इरादे से दिसंबर 2019 तक देश के 19 राज्यों में कानून बनाया गया था. लेकिन सिर्फ आज तक सिर्फ चार राज्यों में ये कानून आंशिक तौर पर लागू हो पाया है. बाकी राज्यों में या तो कानून बना नहीं या फिर लागू नहीं हो पाया.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत में भूजल की 89 प्रतिशत खपत सिंचाई क्षेत्र में होती है. 9 प्रतिशत भूजल घरेलू और 2 प्रतिशत व्यावसयिक उद्देश्य से इस्तेमाल किया जाता है.
बजट था, लेकिन खर्च नहीं पाए
'भूजल प्रबंधन और विनयमन' योजना साल 2012 से 2017 के बीच 12वीं पंचवर्षीय योजना के वक्त चलाई गई थी. इसका अनुमानित खर्च 3,319 करोड रुपये था. मकसद था कि देश में मौजूद भूलज स्रोतों का सही तरीके से पता लगाना और प्रबंधन करना. 2017-2020 तक भी ये योजना जारी रही. बजट में बाकायदा 2,349 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया. लेकिन संबंधित मंत्रालय इसमें से 1,109 करोड़ यानी करीब आधा बजट ही खर्च कर पाए. कैग के जांच रिपोर्ट में ये भी कहा है कि स्थानीय समुदायों के जल प्रबंधन तरीकों को मजबूत करने के लिए कोई काम नहीं किया गया है.
ऐसा ही चला तो पड़ जाएंगे पीने के पानी के लाले
भले ही अभी आपके घर के नल में पानी आता हो लेकिन हमेशा ऐसे ही चलेगा, यह सोचना गलतफहमी होगी. जनसंख्या के साथ बढ़ती जा रही मांग, खेती और जलवायु परिवर्तन के कारण कई इलाकों में अभी ही पानी की बेहद कमी हो चुकी है.
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पानी बिच मीन पियासी
हमारी धरती के दो-तिहाई हिस्से के पानी से ढके होने के बावजूद पानी की कमी की बात अविश्वसनीय लगती है. कुल मिलाकर धरती पर एक अरब खरब लीटर पानी से भी अधिक है. लेकिन समस्या यह है कि इसका ज्यादातर हिस्सा नमकीन पानी का है और इंसान की प्यास बुझाने के काम नहीं आ सकता.
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बिन पानी सब सून
धरती पर मौजूद कुल जल का केवल ढाई प्रतिशत ही ताजा पानी है. इसमें से भी दो-तिहाई हिस्सा ग्लेशियर और बर्फीली चोटियों के रूप में कैद है. इसका मतलब हुआ कि इंसान के पीने, खाना पकाने, जानवरों को पिलाने या कृषि के लिए उपलब्ध पानी की मात्रा बहुत ही कम है.
पानी का चक्कर
असल में पानी एक नवीकरणीय स्रोत है. प्रकृति में जल चक्र चलता रहता है जिससे हमारे पृथ्वी ग्रह पर जल यानी H2O की मात्रा हमेशा एक समान बनी रहती है. इसलिए पानी के पृथ्वी से खत्म होने का खतरा नहीं हैं. असल खतरा इस बात का है कि भविष्य में हमारे पास सबकी जरूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त साफ पानी होगा या नहीं.
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पाकिस्तान तो गया
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट दिखाती है कि भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान 2025 तक सूख जाएगा. जर्मनी के एक जल विशेषज्ञ योहानेस श्मीस्टर बताते हैं कि "स्थानीय स्तर पर समस्या बहुत गंभीर है" और "आंकड़ें और अवलोकन यही दिखाते हैं कि हालात और बिगड़ते ही जाएंगे."
सिर उठाता स्थानीय जल संकट
सन 2016 की एक स्टडी के मुताबिक, नीदरलैंड्स की यूनिवर्सिटी ऑफ ट्वेंटे ने पाया है कि चार अरब लोगों को हर साल कम से कम एक महीने के लिए पानी की गंभीर कमी झेलनी पड़ेगी. कुछ इलाकों में लोग आज ही सूखे और जल संकट की चपेट में आ चुके हैं. हॉर्न ऑफ अफ्रीका इलाके में लगातर पड़ते सूखे के कारण भूखमरी और बीमारी का प्रकोप है.
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जलवायु परिवर्तन का बड़ा हाथ
इस पर्यावरणीय घटना के कारण दुनिया भर में मौसमों का चक्र और जल चक्र प्रभावित होगा. इससे भी कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ आयेगी. कही कहीं तापमान के बहुत ज्यादा बढ़ जाने से भी पानी की कमी झेलनी पड़ेगी.
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प्रकृति ही नहीं लापरवाही भी कारण
विशेषज्ञ पानी की कमी को "इकोनॉमिक" संकट भी बताते हैं. इसका मतलब हुआ कि इंसान उपलब्ध पानी का किस तरह से प्रबंधन करता है यह भी अहम है. जैसे कि भूजल का बहुत ज्यादा दोहन करना, नदियों और झीलों को सूखने देना और बचे खुचे साफ पानी के स्रोतों को इतना प्रदूषित कर देना कि उनका पानी इस्तेमाल के लायक ना रहे.
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कैसे करें मुकाबला
वॉटरएड के विंसेंट केसी कहते हैं कि साफ पानी के 'इकोनॉमिक' संकट से निपटने के लिए सरकारों को पानी की सप्लाई और संग्रह के ढांचे में और ज्यादा निवेश करना होगा. इसके अलावा खेती को ऐसा बनाना होगा जिसमें पानी की खपत कम हो. कुल ताजे पानी का करीब 70 फीसदी फिलहाल खेतों में सिंचाई और पशु पालन में खर्च होता है.
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बढ़ चुकी हैं जरूरतें
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, एक इंसान हर दिन केवल खाना पकाने और बुनियादी हाइजीन में औसतन 20 लीटर ताजे पानी का इस्तेमाल करता है. कपड़े धोने और नहाने में लगने वाला पानी इसके ऊपर है. जो देश जितने विकसित हैं उतनी ही ज्यादा उनकी पानी की जरूरतें हैं. जैसे जर्मनी में प्रति व्यक्ति रोजाना औसतन 140 लीटर पानी का खर्च है, 30 लीटर तो केवल शौचालय के फ्लश में जाता है.
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कुछ प्रत्यक्ष तो कुछ छिपे हुए खर्चे
आंखों से दिखने वाले पानी की सामान्य खपत के अलावा कई इंसानी गतिविधियों से अप्रत्यक्ष बर्बादी भी होती है. एक डब्बा कॉफी उगाने में 840 लीटर पानी तो एक जींस बनाने में 8,000 लीटर पानी लग जाता है. इन सभी जरूरी कामों में पानी की खपत कम करने के तकनीकी उपाय भी तलाशने होंगे. (काथारीना वेकर/आरपी)