जातिगत भेदभाव को मान्यता देगा कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय
लेया कार्टर
१४ फ़रवरी २०२२
कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी सिस्टम ने अपनी गैर-भेदभाव नीति के तहत जाति को मान्यता दी है. लेकिन कुछ फैकल्टी इस आशंका से इस कदम का विरोध कर रहे हैं कि इससे दक्षिण एशियाई छात्रों के साथ भेदभाव हो सकता है.
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साल 2015 में प्रेम पेरियार नेपाल से अमेरिका जाने के लिए जब निकले तो उन्होंने सोचा कि वह जातिगत भेदभाव और जातीय हिंसा को पीछे छोड़ आए हैं.
पेरियार एक दलित सामाजिक कार्यकर्ता हैं जिन्हें दक्षिण एशिया में पहले ‘अछूत' समझा जाता था. दलित समुदाय सामाजिक पदानुक्रम में सबसे निचले पायदान पर हैं. उस समाज में उनकी दलित पहचान उनके जन्म से ही तय हो जाती है. यह व्यवस्था हजारों वर्षों से चली आ रही है और इस व्यवस्था ने हिंदुओं के धार्मिक और सामाजिक जीवन के लगभग हर पहलू को प्रभावित किया है.
कथित ऊंची जातियों के लोग, निम्न जातीय लोगों से अलग जीवन जीते थे, वे निचली जातियों का छुआ खाना-पीना स्वीकार नहीं करते थे और शादी-विवाह भी केवल अपनी जाति के ही भीतर करते थे. इनमें से कई प्रथाएं आज भी जारी हैं, खासकर ग्रामीण समुदायों में.
नेपाल में, पेरियार के कई रिश्तेदारों पर उनकी जाति की वजह से हमला किया गया था और इसके बावजूद अधिकारी इसकी जांच करने को तैयार नहीं थे. पेरियार को यह उम्मीद नहीं थी कि दुनिया भर में उनके साथ भेदभाव होगा. अमेरिका में हालांकि शारीरिक हमले आम नहीं हैं, लेकिन जानकारों का कहना है सामाजिक भेदभाव और पूर्वाग्रह पूरे अमेरिका में फैल चुका है.
यूनिफॉर्म सिविल कोड की 10 अहम बातें
हर थोड़े दिनों में यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता को लेकर राजनीतिक गलियारों में बहस शुरू हो जाती है. जानिए कि यह समान नागरिक संहिता है क्या और इसके लागू होने से क्या बदलाव आएंगे.
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एक देश, एक कानून
समान नागरिक संहिता या यूनिफॉर्म सिविल कोड देश के सभी नागरिकों के लिए एक जैसा कानून लागू करने की कोशिश है.
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क्या बदलेगा
इसके तहत संपत्ति के अधिकार के अलावा शादी, तलाक, गुजारा भत्ता, बच्चा गोद लेने और वारिस तय करने जैसे विषयों पर सब लोगों के लिए एक कानून होगा.
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अभी क्या नियम है
अभी भारत इसके अलग-अलग नियम हैं. मतलब संपत्ति और तलाक के नियम हिंदुओं को लिए कुछ और हैं, मुसलमानों के लिए कुछ और ईसाइयों के लिए कुछ और.
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समान संहिता का विरोध
भारत में मुस्लिम पसर्नल लॉ बोर्ड समान नागरिक संहिता का विरोध करता है. वह इसे इस्लामी नियमों और सिद्धातों में हस्तक्षेप मानता है.
तस्वीर: Reuters
दखल
सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि समान नागरिक संहिता से लैंगिक भेदभाव को कम करने में मदद मिलेगी, जबकि कई मुस्लिम समुदाय इसे अपने धार्मिक मामलों में दखल के तौर पर देखते हैं.
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संहिता एक हल
दूसरी तरफ, तीन तलाक जैसे मुद्दों का विरोध करते हुए लोग कहते हैं कि समान नागरिक संहिता एक हल है. अब सरकार ने त्वरित तीन तलाक को अपराध बना दिया है. ऐसा करने पर सजा का प्रावधान है.
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भाजपा के एंजेडे में
समान नागरिक संहिता को लागू करना दशकों से भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे में रहा है.
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सियासत
समान नागरिकता संहिता सियासी मुद्दा रहा है, जिससे वोट बैंक बनते-बिगड़ते रहे हैं. इस सिलसिले में 1985 का शाह बानो केस अहम माना जाता है.
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पलट दिया फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि 60 वर्षीय शाह बानो तलाक के बाद अपने पति से गुजारा भत्ता पाने की हकदार है. लेकिन मुस्लिम पर्सनल बोर्ड के कड़े विरोध के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने संसद के जरिए इस फैसले को पलटवा दिया.
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गुजारा भत्ता
वैसे, बाद में एक अन्य फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने इद्दत की अवधि के बाद मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता दिए जाने का फैसला सुनाया. इद्दत तलाक के बाद की वो अवधि होती है जिसमें महिला दूसरी शादी नहीं कर सकती.
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संयुक्त राज्य अमेरिका में पहली बार पेरियार को जातिगत भेदभाव का सामना तब करना पड़ा, जब उनके साथ एक ही मेज पर बैठे कुछ लोगों ने कहा कि वह मेज पर रखे भोजन को न छुएं या फिर दूसरी जगह जाकर भोजन करें.
कैल स्टेट ईस्ट बे में उन्होंने सामाजिक कार्य विभाग में स्नातक कोर्स में प्रवेश लिया था और अध्ययन के दौरान उन्हें अपने साथियों की ओर से सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ा. अमेरिका में अन्य दलित छात्रों के विपरीत, पेरियार ने अपना सरनेम यानी उपनाम रखने का विकल्प चुना, जिससे उनकी जाति का पता चलता है.
वो कहते हैं, "जब मैंने कॉलेज परिसर में इस तरह के भेदभाव का अनुभव किया, तो मैंने सोचा कि मुझे इस बात को अपने प्रोफेसरों के साथ साझा करना चाहिए.” पेरियार कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी (सीएसयू) प्रणाली के माध्यम से एक नई नीति को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, जो औपचारिक रूप से जाति भेदभाव को पहचानती है और ऐसे मामलों को रिपोर्ट करने का एक तरीका प्रदान करती है.
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पहचान एक नया मील का पत्थर
इस नई नीति की सराहना करने वालों का कहना है कि यह नीति सीएसयू और अमेरिका के भीतर कई दलित छात्रों के अनुभवों को मान्यता प्रदान करती है. भारत जैसे दक्षिण एशियाई देशों में जातिगत भेदभाव गैरकानूनी है, लेकिन जानकारों का कहना है कि जातिगत पूर्वाग्रह अभी भी पूरी दुनिया में मौजूद हैं.
सीएसयू के पूरे देश में 23 परिसर हैं और 1 जनवरी को यह गैर-भेदभाव नीति के तहत जाति को मान्यता देने वाली पहली पूर्ण विश्वविद्यालय प्रणाली बन गई. जाति को मान्यता देने के प्रयासों में यह नीति मील का पत्थर भी है क्योंकि सीएसयू संयुक्त राज्य अमेरिका में चार वर्षीय सबसे बड़ी सार्वजनिक विश्वविद्यालय प्रणाली है.
सीएसयू प्रणाली के अलावा, कई अन्य विश्वविद्यालयों ने अपनी नीतियों में जाति को शामिल किया है, जिसमें कैलिफोर्निया, डेविस और ब्रैंडिस विश्वविद्यालय भी शामिल हैं.
हिंदू संगठनों ने किया विरोध
नई सीएसयू नीति और अन्य संस्थानों की जातिगत भेदभाव की मान्यता के लिए व्यापक समर्थन के बावजूद, सभी फैकल्टी मेंबर्स यानी संकाय सदस्य बोर्ड में नहीं थे. 500 से ज्यादा संकाय सदस्यों ने सार्वजनिक रूप से नीति का समर्थन किया, जबकि कम से कम 80 सदस्यों ने यह कहते हुए इसका विरोध किया कि यह नीति दक्षिण एशियाई छात्रों के खिलाफ भेदभाव को कायम रख सकती है.
खूबसूरत नहीं, बदसूरत दिखना चाहती हैं ये महिलाएं
पूर्वोत्तर भारत में आज भी कई कबीले रहते हैं. उनकी पहचान और संस्कृति एक दूसरे से काफी अलग है. अरुणाचल प्रदेश की अपातानी कबीले की महिलाएं तो दूर से ही पहचान में आ जाती है.
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सुंदरता छुपाओ
अपातानी कबीले की महिलाएं नाक में जेवर के बजाए लकड़ी की एक मोटी बाली जैसी पहनती हैं. आमतौर पर आभूषण सुंदरता को बढ़ाने के लिए इस्तेमाल होते हैं, लेकिन अपातानी समुदाय की महिलाएं सुंदरता को छुपाने के लिए ऐसा करती हैं.
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अपहरण का डर
किस्से कहानियों के मुताबिक अपातानी कबीले की महिलाएं अपनी सुंदरता के लिए मशहूर थीं. पुराने समय में कई बार दूसरे समुदाय के पुरुष अपातानी महिलाओं का अपहरण भी करते थे. एक बुजुर्ग अपातानी महिला के मुताबिक अपहरण से बचने के लिए महिलाओं से नाक में लकड़ी पहनना शुरू किया.
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कुरूप दिखने की कोशिश
ऐसा कर महिलाओं ने खुद को कुरूप स्त्री के तौर पर दिखाने की कोशिश की. दोनों तरफ नाक छेदने के साथ साथ माथे पर एक लंबा काला टीका भी लगाया जाने लगा. ठुड्डी पर पांच लकीरें खीचीं जाने लगीं.
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पहचान
पंरपरा के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक यह रिवाज पहुंचा. इस रिवाज को अपनाने वाली महिलाओं को स्थानीय समाज में सम्मान मिलता था. लेकिन 1970 के दशक के बाद धीरे धीरे यह परंपरा खत्म होने लगी है.
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विश्व धरोहर
अरुणाचल प्रदेश के सबसे ऊंचे जिले में रहने वाला अपातानी कबीला कृषि के जबरदस्त तरीकों के लिए भी मशहूर है. बेहतरीन पर्यावरण संतुलन के चलते ही यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर का दर्जा भी दिया.
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मछली पालन
ये मछली खेतों में छोड़ी जाती है. अपातानी घाटी में मछली पालन काफी प्रचलित है. यहां के लोग मछली, बांस, चीड़ और कृषि में संतुलन साध चुके हैं. जून और जुलाई में खेतों में छोड़ी जाने वाली ये मछलियां सितंबर व अक्टूबर में पकड़ी जाती हैं.
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इतिहास बनती एक संस्कृति
आज ज्यादातर अपातानी महिलाएं नाक में बड़े छेद कर लकड़ी की बाली नहीं पहनती. ये परंपराएं अब सिर्फ कबीले के बुजुर्गों में दिखाई पड़ती हैं.
रिपोर्ट: एपी/ओएसजे
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हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन भी इस नीति का विरोध कर रही है. फाउंडेशन की ओर से जारी एक वक्तव्य में कहा गया, "हम मानते हैं कि यह जोड़ बिना किसी सबूत के अत्यधिक गुमराह करने वाला है और भेदभाव को रोकने की बजाय, यह भारतीय और दक्षिण एशियाई मूल के हिंदू संकाय को असंवैधानिक रूप से अलग करके और लक्षित करके और अधिक भेदभाव का कारण बनेगा."
वक्तव्य में यह भी कहा गया है कि भेदभाव दर्शाने वाले शब्द ‘जाति' को यहां से हटाया जाए क्योंकि इससे भारत, हिंदुओं और जाति के बारे में जो नकारात्मक छवि बनी है, वह और सुदृढ़ होगी.
जागरूकता बढ़ाने के प्रयास
पेरियार कहते हैं कि जब उन्होंने पहली बार सीएसयू प्रणाली में बदलाव की वकालत करना शुरू किया, तो कुछ लोग इस बात से सहमत थे कि विश्वविद्यालयों के भीतर शिक्षा और सामाजिक संरचनाओं में जाति अपनी अहम भूमिका निभाती है. अब, वे और कुछ अन्य लोगों के साथ शोध और कार्यशालाओं के माध्यम से इस मुद्दे के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए काम कर रहे हैं.
पेरियार इक्वॉलिटी लैब्स द्वारा किए गए सर्वेक्षण ‘कास्ट इन द युनाइटेड स्टेट्स' के साथ काम करते हैं. इस सर्वेक्षण ने इस बात का पर्दाफाश किया कि चार दलित छात्रों में से एक ने शारीरिक या मौखिक हमले का अनुभव किया है, जबकि एक तिहाई ने शिक्षा के स्थान पर भेदभाव की सूचना दी है.
नीति के समर्थकों का कहना है कि जाति संरक्षण सही दिशा में एक कदम है. कुछ लोगों को लगता है कि यह मुद्दा अभी भी बहुत गहरे फैला हुआ है और कई बार तो जातिगत भेदभाव इस रूप में दिखता है जिसे सीधे रिपोर्ट नहीं किया जा सकता है.
डीडब्ल्यू से बातचीत में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, सैन डिएगो में क्रिटिकल मुस्लिम स्ट्डीज विभाग में प्रोफेसर शाइस्ता पटेल कहती हैं, "यह हिंसा का 2,500 साल पुराना ढांचा है. यह श्वेत वर्चस्व से बहुत पुराना है." पटेल पाकिस्तान के एक दलित मुस्लिम परिवार से हैं और कहती हैं कि उन्होंने भेदभाव का कई तरह से अनुभव किया है जिसमें हिंसा की धमकी भी शामिल है.
सुरक्षित वातावरण को बढ़ावा देना
हालांकि कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की स्कूल प्रणाली ने एक समान मान्यता नीति नहीं अपनाई है, फिर भी पटेल के जातीय अध्ययन विभाग ने जाति-आधारित भेदभाव की निंदा करते हुए एक औपचारिक बयान जारी किया है.
बयान के मुताबिक, "अमेरिका समेत अधिकांश देशों में जातीय उत्पीड़न के शिकार समुदायों के लिए कोई कानूनी सुरक्षा नहीं है क्योंकि जाति को धर्म, वंश, नस्ल आदि से अलग श्रेणी के रूप में मान्यता नहीं दी जाती है. कानूनी सुरक्षा की कमी की वजह से दक्षिण एशियाई प्रवासी लोगों के साथ जाति-आधारित भेदभाव आसान हो जाता है."
"लव जिहाद" पर राज्यों में सख्त से सख्त कानून बनाने की होड़!
अंतरधार्मिक शादियों के खिलाफ बीजेपी शासित राज्य सख्त से सख्त कानून बना रही हैं. उनका कहना है कि लड़की पर जबरन दबाव डालकर शादी कर ली जाती है और फिर उसका धर्म परिवर्तन करा दिया जाता है.
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"लव जिहाद" क्या वाकई होता है?
4 फरवरी 2020 को केंद्रीय गृह राज्यमंत्री जी किशन रेड्डी ने लोकसभा को बताया कि "लव जिहाद" शब्द मौजूदा कानूनों के तहत परिभाषित नहीं है. साथ ही उन्होंने संसद को बताया कि इससे जुड़ा कोई भी मामला केंद्रीय एजेंसियों के संज्ञान में नहीं आया. रेड्डी ने कहा था कि संविधान का अनुच्छेद 25 किसी भी धर्म को स्वीकारने, उसका पालन करने और उसका प्रचार-प्रसार करने की आजादी देता है.
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बीजेपी के एजेंडे पर "लव जिहाद"!
भले ही केंद्र सरकार कहे कि "लव जिहाद" कानून में परिभाषित नहीं है लेकिन बीजेपी के नेताओं, मंत्रियों और सरकारों ने अंतरधार्मिक प्रेम और शादियों के खिलाफ पिछले कुछ समय में कड़ा रुख अपनाया है. नेता बयान दे रहे हैं और उन पर समाज में नफरत का माहौल बनाने के आरोप लग रहे हैं. वहीं बीजेपी शासित राज्य सरकारें जबरन धर्म परिवर्तन के खिलाफ सख्त कानून बना रही हैं.
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यूपी में कितना सख्त है कानून?
यूपी में धर्मांतरण रोधी कानून को लागू हुए एक महीना पूरा हो चुका है. 27 नवंबर 2020 को राज्यपाल ने "विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश 2020" को मंजूरी दी थी जिसके बाद यह कानून बन गया. इस कानून में कड़े प्रावधान बनाए गए हैं. धर्म परिवर्तन के साथ अंतरधार्मिक शादी करने वाले को साबित करना होगा कि उसने इस कानून को नहीं तोड़ा है, लड़की का धर्म बदलकर की गई शादी को शादी नहीं माना जाएगा.
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यूपी में एक महीने में क्या हुआ?
यूपी में धर्मांतरण रोधी कानून को लागू होने के एक महीने के भीतर पुलिस ने प्रदेश में इसके तहत 14 मामले दर्ज किए. पुलिस ने 51 लोगों को गिरफ्तार किया जिनमें 49 लोग जेल में बंद किए गए. इन मामलों में 13 मामले कथित तौर पर हिंदू महिलाओं से जुड़े हैं और आरोप लगाया कि उन पर इस्लाम कबूल करने का दबाव बनाया गया. सिर्फ दो ही मामले में महिला खुद शिकायतकर्ता है.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo
हाईकोर्ट का सहारा
यूपी में लागू कानून के आलोचकों का कहना है कि यह व्यक्तिगत आजादी, निजता और मानवीय गरिमा जैसे मौलिक अधिकारों का हनन है. इस कानून को चुनौती देने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई है. इससे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अंतरधार्मिक विवाह वाले युवक युवती को साथ रहने की इजाजत दी थी. हाईकोर्ट ने कहा था, "महिला अपने पति के साथ रहना चाहती है और वह किसी भी तीसरे पक्ष के दखल के बिना रहने को आजाद है."
तस्वीर: picture-alliance/dpa/U. Baumgarten
मध्य प्रदेश में भी "लव जिहाद"?
मध्य प्रदेश की कैबिनेट ने मंगलवार 29 दिसंबर 2020 को "धर्म स्वातंत्र्य अध्यादेश 2020" को मंजूरी दी है. प्रदेश में जो कानून बनने जा रहा है उसके मुताबिक जबरदस्ती धर्म परिवर्तन कर शादी करने वालों को अधिकतम 10 साल की सजा और एक लाख रुपये जुर्माने का प्रावधान किया जाएगा.
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किस राज्य का कानून ज्यादा सख्त?
अध्यादेश के मुताबिक मध्य प्रदेश में प्रलोभन, धमकी, शादी या किसी अन्य कपट पूर्ण तरीके द्वारा धर्म परिवर्तन कराने वाले या फिर उसकी कोशिश या साजिश करने वाले को पांच साल के कारावास के दंड और 25,000 रुपये से कम जुर्माना नहीं होगा. वहीं यूपी ने इसके लिए 15,000 के जुर्माने का प्रावधान रखा है लेकिन वहां भी सजा का प्रावधान अधिकतम पांच साल तक है.
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हिमाचल प्रदेश
प्रदेश में 2007 से ही जबरन या फिर छल-कपट से धर्म परिवर्तन के खिलाफ कानून लागू है. कुछ दिनों पहले धर्मांतरण विरोधी कानून लागू किया गया था. इसके तहत किसी भी शख्स को धर्म परिवर्तन करने से पहले प्रशासन को इसकी सूचना देनी होगी. ऐसा ही कानून जब 2012 में कांग्रेस की सरकार लेकर आई थी तब हाईकोर्ट ने इसे असंवैधानिक और मौलिक अधिकारों के हनन वाला बताया था.
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पटेल का कहना है कि हालांकि उनका उपनाम उनकी जाति का संकेत नहीं देता है, फिर भी बहुत से लोग इसके बारे में जानते हैं और उन्होंने यूसीएसडी में साथी संकाय सदस्यों की ओर से भेदभाव का अनुभव किया है. पटेल कहती हैं कि हाल के वर्षों में, कई दलित छात्र, जिनमें से अधिकांश भेदभाव के डर से खुले तौर पर दलित के रूप में अपनी पहचान नहीं जाहिर करते हैं, वे अपने अनुभवों को बताने के लिए उनके पास पहुंचे हैं. वो कहती हैं, "जो लोग पहुंचे, उन सभी ने कहा कि वे दलित के तौर पर नहीं आए हैं."
फिलहाल पेरियार को उम्मीद है कि सीएसयू की नई नीति बदलाव के रास्ते खोलेगी, "वे सुरक्षित रहने के लिए अपनी पहचान छिपा रहे हैं. क्या यह समाधान है? कैंपस में अन्य छात्रों को प्रशिक्षित करने, उन्हें शिक्षित करने और जागरूकता पैदा करने के बाद छात्र महसूस कर सकते हैं कि वे एक सुरक्षित वातावरण में हैं."
हर धर्म में पाई जाती हैं कुछ क्रूर प्रथाएं
धर्म लोगों को साथ लाने के लिए बने थे. लेकिन हर धर्म में ऐसी प्रथाएं हैं जो उसका पालन करने वाले लोगों के प्रति ही अमानवीय हैं. हर परंपरा की अपनी व्याख्याएं हैं जिनके आधार पर विवाद होते हैं.
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ट्रिपल तलाक
इस्लाम में कोई पुरुष यदि अपनी पत्नी से अलग होना चाहे तो उसे तीन बार तलाक बोलकर अलग हो सकता है. तलाक शब्द कब बोला जाएगा, और तलाक कब माना जाएगा, इसे लेकर अलग अलग विचार हैं.
तस्वीर: DW
बाल विवाह
दक्षिण एशिया और अफ्रीका में कई धर्मों में यह प्रथा प्रचलित है. इसके तहत छोटे छोटे बच्चों की शादी कर दी जाती है. भारत में आज भी बहुतायत में बाल विवाह होते हैं.
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खतना
इस्लाम और यहूदी धर्म में यह प्रथा प्रचलित है. बच्चों के लिंग के अगले हिस्से की त्वचा को काट दिया जाता है. प्राचीन मिस्र की गुफाओं में बने चित्रों में भी खतना दिखाया गया है. अफ्रीका के कुछ ईसाई चर्चों में भी खतना प्रचलित है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट है कि दुनिया के 30 फीसदी पुरुषों का खतना हुआ है जिनमें से 68 फीसदी मुसलमान हैं.
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महिलाओं का खतना
खतने की परंपरा कई धर्मों की महिलाओं में भी प्रचलित है. मध्य पूर्व और अफ्रीकी देशों की महिलाओं में खतना काफी होता है. इसमें महिलाओं की योनी के अग्रभाग को काट दिया जाता है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Sobecki
दोखमेनाशीनी
दखमा या टावर ऑफ साइलेंस पारसियों के कब्रिस्तान को कहते हैं. पारंपरिक रूप से पारसी अपने लोगों के शवों को जलाते या दफनाते नहीं हैं बल्कि दखमा में फेंक देते हैं जहां उन्हें चील-कव्वे खा जाते हैं. दरअसल, पारसी पृथ्वी, जल और अग्नि को बहुत पवित्र मानते हैं इसलिए मृत देह को इनके हवाले नहीं करते बल्कि आकाश के हवाले कर दिया जाता है.
तस्वीर: SAM PANTHAKY/AFP/Getty Images
केशलोंच
शरीर के बालों को हाथों से उखाड़ना केशलोंच कहलाता है. यह जैन धर्म की एक प्रक्रिया है. दिगंबर मुनि को हर 2 से 4 महीने में केशलोंच करना होता है. माना जाता है कि बालों में छोटे छोटे जीव पैदा हो जाते हैं और इंसान के हाथों मारे जाते हैं. यह हिंसा है जिससे बचने के लिए केशलोंच किया जाता है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/I. Mukherjee
सती
भारत में किसी महिला के पति के मर जाने पर उसे लाश के साथ जिंदा जल जाना होता था. अब काफी समय से सती प्रथा चलन में नहीं है लेकिन इसके समर्थक आज भी हैं. 1989 में राजस्थान के सीकर जिले में आखिरी बार सती का मामला सामने आया था.