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दवाओं के लिए चीन और भारत पर कितना निर्भर यूरोप?

इंसा व्रेडे
९ मई २०२४

चाहे नाक-मुंह ढंकने वाले मास्क हों या एंटीबायोटिक दवाएं - कोरोना महामारी के दौरान ही साफ हो गया था कि यूरोपीय संघ ऐसी चीजों के मामले में चीन और भारत जैसे एशियाई देशों से आने वाले सामानों पर बहुत ज्यादा निर्भर है.

भारत को "दुनिया का दवाखाना" जैसा दर्जा मिला हुआ है क्योंकि यहां बनी जेनेरिक दवाएं दुनिया के लगभग सभी देशों में भेजी जाती हैं
भारत को "दुनिया का दवाखाना" जैसा दर्जा मिला हुआ है क्योंकि यहां बनी जेनेरिक दवाएं दुनिया के लगभग सभी देशों में भेजी जाती हैंतस्वीर: Manjunath Kiran/AFP/GettyImages

दक्षिणी जर्मनी के वुर्जबुर्ग विश्वविद्यालय में फार्मा एंड मेडिसिनल केमिस्ट्री की प्रोफेसर उलरिके होल्त्सग्राबे का मानना है कि चीन को यूरोप पर घातक हमला करने के लिए परमाणु बम की जरूरत नहीं होगी. डीडब्ल्यू से बातचीत में वह कहती हैं कि चीन के केवल एंटीबायोटिक दवाओं की आपूर्ति रोकने भर से काम हो जाएगा. 

कोरोना महामारी के दौरान यूरोप में जरूरी मास्क की काफी कमी हो गई थी. इस घटना ने साफ कर दिया था कि बुनियादी दवाओं की लगातार आपूर्ति सुनिश्चित करने के मामले में यूरोप काफी कमजोर है. 2020 में यूरोपीय संसद ने एक रिपोर्ट में कहा था कि सार्वजनिक स्वास्थ्य एक ‘भू-राजनीतिक हथियार बन सकता है जो पूरे महाद्वीप को ध्वस्त कर सकता है.'

तब से यूरोपीय संघ ने यह पता लगाने की कोशिश की है कि कौन सी दवाइयां ऐसी हैं जो यूरोप सिर्फ बाहर से ही मंगा सकता है, खासकर चीन से. होल्त्सग्राबे का कहना है कि इन प्रयासों को और तेज करने की जरूरत है. इसके लिए एक ऐसा डाटाबेस बनाना होगा जिससे पता चले कि कौन सी कंपनी कौन सी दवा बनाती है और दवा बनाने के लिए जरूरी रासायनिक पदार्थ कौन सी कंपनी मुहैया कराती है.

गलाकाट प्रतिस्पर्धा और कारोबारी रहस्य

जर्मनी के कोलोन में स्थित जर्मन इकोनॉमिक इंस्टीट्यूट (आईडब्ल्यू) की यास्मीना किर्षहॉफ का कहना है कि दिक्कत तो वहीं से शुरू होती है जब हम दवाओं से जुड़ा सटीक डाटाबेस बनाने की कोशिश करते हैं. दवा बनाने के कारोबार की विशेषज्ञ किर्षहॉफ ने डीडब्ल्यू को बताया कि रसायनों और दवा बनाने में इस्तेमाल होने वाले अन्य जरूरी पदार्थों को बनाने वाली कंपनियों के बारे में जानकारी अपने आप में एक ‘ट्रेड सीक्रेट' है.

दवा बनाने वाली कंपनियों के लिए यह बहुत जरूरी है कि वे अपने कारोबार को दूसरों से आगे रखने के लिए जरूरी जानकारी गुप्त रखें, खासकर जेनेरिक दवाओं के मामले में. जेनेरिक दवाओं का मतलब ऐसी दवाओं से है जिनमें वही रासायनिक पदार्थ होते हैं जो किसी ब्रांडेड दवा में होते थे, जिस पर पहले किसी कंपनी का खास अधिकार होता था यानी उनका पेटेंट होता था.

किर्षहॉफ का कहना है कि जेनेरिक दवा बनाने वाली कंपनियों की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वे कम लागत में दवाएं बना सकें. इस वजह से इन दवाओं को बनाने की आपूर्ति श्रृंखलाएं अक्सर ‘बहुत जटिल' हो जाती हैं. साथ ही, यह पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि दवा बनाने में कितनी कंपनियां और कितने देश शामिल हैं.

एंटीबायोटिक उत्पादक कंपनियां क्यों दिवालिया हो रहीं

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एंटीबायोटिक दवाओं के बारे में किर्षहॉफ बताती हैं कि चीन ने 1980 के दशक की शुरुआत में ही इस बात को समझ लिया था कि खुद से एंटीबायोटिक दवाएं बनाना कितना जरूरी है. चीन में उन कारखानों में भारी निवेश किया गया जो सबसे कम लागत में दवा बना सकें, ताकि पहले अपने बाजार के लिए उन्हें उपलब्ध करा सके और फिर बची हुई दवाओं को निर्यात कर सके.

चीन अब वैश्विक दवा बाजार के लिए रासायनिक सामग्री बनाने वाला सबसे बड़ा देश बन गया है. इसके बाद, भारत दवाओं का एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता बनकर उभरा है.

जर्मनी की दवा बनाने की नीति

जर्मनी में दवा बनाने वाली कंपनियों को मजबूत करने के लिए जर्मन सरकार ने दिसंबर 2023 में एक नई नीति अपनाई. इसके तहत तीन मुख्य क्षेत्रों को मजबूत बनाने पर जोर दिया गया. पहला लक्ष्य रखा कि दवाओं के क्लिनिकल ट्रायल के लिए मंजूरी प्रक्रिया को आसान बनाया जाए. दूसरा लक्ष्य, शोध के लिए स्वास्थ्य संबंधी डाटा आसानी से उपलब्ध कराना. और, तीसरा लक्ष्य है जर्मनी में दवा बनाने के कारखाने खोलने के लिए प्रोत्साहन देना.

होल्त्सग्राबे का कहना है कि जर्मनी अभी भी दुनिया भर में दवा बनाने वाली कंपनियों के बाजार में एक प्रमुख खिलाड़ी है. यहां बायर, बोरिंगर इंगेलहाइम और मर्क ग्रुप जैसी जानी-मानी कंपनियां हैं. हालांकि, ये कंपनियां नई और पेटेंट वाली दवाओं के बाजार में मजबूत हैं, वहीं जेनेरिक दवाओं के बाजार में कमजोर हैं. यूरोप में जेनेरिक दवाओं का उत्पादन मुश्किल से ही मुनाफे वाला होता है, क्योंकि इन दवाओं पर मुनाफे का मार्जिन बहुत कम होता है. 

आम तौर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल के लिए जेनेरिक दवाएं काफी महत्वपूर्ण होती हैं. इन दवाओं से करीब 80 फीसदी बुनियादी दवाओं की जरूरतें पूरी हो जाती हैं, जिनमें कई तरह की एंटीबायोटिक दवाएं भी शामिल हैं.

जर्मनी में मौजूद गैर-सरकारी संगठन प्रो जेनेरिका के सीईओ बोर्क ब्रेटहाउअर का कहना है कि सरकारी सब्सिडी देकर जर्मनी में दवा बनाने को बढ़ावा देने की नीति सही नहीं है. यह संगठन नियमित रूप से स्वास्थ्य नीति और दवा क्षेत्र पर वैज्ञानिक अध्ययन कराता है. ब्रेटहाउअर ने डीडब्ल्यू को बताया कि जर्मनी को दवाओं के लिए ‘एक अलग मूल्य निर्धारण प्रणाली' की जरूरत है.

उन्होंने कहा, "हमें यूरोप में ऐसी जॉम्बी फैक्टरी की जरूरत नहीं है जिन्हें स्थायी तौर पर सब्सिडी दी जाए. यूरोप के लोगों को दवा की ऊंची कीमतें चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए.”

बड़ी दवा कंपनियों को लुभाने के लिए बड़े प्रोत्साहन की जरूरत

पिछले साल की गर्मियों में जर्मन संसद ने एक कानून बनाया. इस कानून का मकसद यह था कि जर्मनी की दवा कंपनियों को फिर से जर्मनी में ही दवा बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए. साथ ही, उन्हें विदेशों में कारखाने ले जाने से रोका जाए. ऐसा करने के लिए दवाओं की कीमतें बढ़ाने का प्रस्ताव भी रखा गया. यह कानून दवाओं की कमी और आपूर्ति से जुड़ी समस्याओं को ध्यान में रखकर बनाया गया था, जो दुनिया भर में महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से शुरू हुआ था.

जर्मनी में यह स्वास्थ्य देखभाल की नीति में एक बड़ा बदलाव है. पिछले साल तक जर्मनी हमेशा इस कोशिश में रहता था कि लोगों के स्वास्थ्य पर होने वाला सरकारी खर्च कम से कम रखा जाए.

कोरोना महामारी के समय अभूतपूर्व गति से उसका टीका विकसित करने वाली जर्मन कंपनी बायोनटेक की मारबुर्ग में स्थित एक लैब में रिसर्चर तस्वीर: BioNTech SE 2020/dpa/picture alliance

इससे पहले, दवा बनाने वाली कंपनियों को कानूनी रूप से बाध्य किया जाता था कि वे बीमा कंपनियों को निर्धारित कम कीमत पर ही दवाएं बेचें. इसका मतलब यह हुआ कि लगभग 80 फीसदी दवाओं की कीमतें तय थीं, जिनमें जेनेरिक दवाएं भी शामिल थीं. इस वजह से सिर्फ वही दवा कंपनियां मुनाफा कमा पाती थीं जो कम से कम खर्च में दवाएं बना पाती थीं.

नए कानून के तहत, बीमा कंपनियों को अब खास तरह की दवाओं और जिन दवाओं का पेटेंट खत्म हो चुका है उन्हें खरीदने के लिए टेंडर निकालना होगा. इन टेंडरों में किसी यूरोपीय कंपनी को ही ठेका दिया जा सकेगा.

उलरिके होल्त्सग्राबे इस कानून को सही दिशा में उठाया गया कदम बताती हैं. हालांकि, उन्हें डर है कि इसका कोई फायदा नहीं भी हो सकता है, क्योंकि यूरोप में अब दवा बनाने का काम ही नहीं बचा है, खासकर जेनेरिक दवाओं के मामले में. वहीं, यास्मीना किर्षहॉफ का कहना है कि इस कानून ने कम से कम इतना तो कर दिया है कि अब दवा बनाने वाले कारखानों को विदेशों में जाने से रोका जा सकेगा.

चीन का दबदबा कायम

जर्मनी के रासायनिक उद्योग संघ (वीसीआई) के प्रबंध निदेशक वोल्फगांग ग्रोसे एंट्रुप का मानना है कि अगर यूरोप दवा की आपूर्ति के मामले में ज्यादा सुरक्षित होना चाहता है, तो दवाओं की कीमतों का बढ़ना तय है. वे कहते हैं कि यूरोप में दवाओं का उत्पादन कभी भी एशिया की तरह सस्ता नहीं हो सकेगा और जर्मनी में दवा बनाने वाली कंपनियों को बहुत ज्यादा नौकरशाही, कुशल कर्मचारियों की कमी, ऊर्जा की ऊंची लागत और खस्ताहाल बुनियादी ढांचे की समस्या का सामना करना पड़ेगा. 

जर्मनी के विपरीत, चीनी दवा कंपनियों को मजदूरों को कम वेतन देना पड़ता है, उन्हें सस्ती ऊर्जा मिलती है और उनकी सरकार कारखाने स्थापित करने के लिए मुफ्त में जमीन देती है. होल्त्सग्राबे बताती हैं कि चीन में उन्हें यूरोप जितने सख्त पर्यावरण संबंधी नियमों का भी पालन नहीं करना पड़ता है. उनका कहना है कि "इन सारी वजहों से दवा उत्पादन को यूरोप में फिर से बढ़ावा देना मुश्किल है और ऐसे हालात में चीन पर निर्भरता कम नहीं होगी.”

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