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मुस्लिम धर्मगुरुओं का फतवा क्या धरती बचा सकता है?

१९ अगस्त २०२२

इस्लामिक देशों में मौलवियों की खूब चलती है तो क्या उनके फतवे और तकरीरें धरती बचाने की कोशिशों में बड़ा फर्क ला सकती हैं? एक देश ऐसा है जहां इसके लिये कोशिशें शुरू हुई हैं और उनका कुछ असर दिख रहा है.

Indonesien Eid al-Fitr
तस्वीर: Trisnadi/AP Photo/picture alliance

जुमे की नमाज में उमड़ी मस्जिदों की भीड़ से लेकर रिहायशी मदरसों की क्लास तक, मौलवियों से आग्रह किया जा रहा है कि अपने प्रभाव का इस्तेमाल जलवायु परिवर्तन की आशंकाओं पर विजय पाने में करें. यह कहानी इंडोनेशिया की है जहां दुनिया में मुसलमानों की सबसे बड़ी आबादी है.

देश के शीर्ष मुस्लिम प्रतिनिधि पिछले महीने दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी मस्जिद में जमा हुए. इस जमावड़े का मकसद था ग्लोबल वॉर्मिंग के बारे में जागरूकता फैलाने और जलवायु के समाधानों को इस्लाम की शिक्षा से जोड़ने के तरीकों पर चर्चा करना. मुस्लिम नेताओं ने एक फोरम भी बनाया है जिसका नाम रखा गया है, मुस्लिम कांग्रेस फॉर सस्टेनेबल इंडोनेशिया. इसके साथ ही उन्होंने मुस्लिम समुदाय से इस फोरम को दान देने के लिये अपील की है ताकि इन कोशिशों के लिये धन की व्यवस्था हो सके.

पर्यावरण के लिये अभियान चलाने वालों का कहना है कि मुस्लिम नेता और इमाम जलवायु परिवर्तन से लड़ने और उसके बारे में लोगों की समझ बढ़ाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं. इसके साथ ही वे सरकारों के साथ भी काम कर सकते हैं ताकि उनकी नीतियों में केवल आर्थिक विकास ना हो कर शाश्वत विकास पर भी ध्यान रहे.

इंडोनेशिया की मस्जिदों से पर्यावरण को लेकर फतवे जारी हो रहे हैंतस्वीर: Beawiharta/REUTERS

इंडोनेशिया में जलवायु कार्यकर्ताओं के समूह 350 डॉट ओआरजी के डिजिटल कैंपेनर जेरी आसमोरो का कहना है, "इमाम और धार्मिक नेता इंडोनेशिया में सचमुच बेहद सम्मानित और ऐसे लोग हैं जिनकी बातें सुनी जाती हैं. वो सरकार की नीतियों और लोगों के काम दोनों पर बड़ा असर डाल सकते हैं." आसमोरो ने यह भी कहा, "इमाम सामाजिक बदलाव पर बड़ा असर डाल सकते हैं...वो पर्यावरण सम्मत जीवन के प्रति जागरूकता जगा सकते हैं और जलवायु अभियानों को जमीनी स्तर पर फैला सकते हैं."

जलवायु के लिये इंडोनेशिया की प्रतिबद्धता

2015 के पेरिस समझौते में ग्लोबल वॉर्मिंग से निबटने के लिये इंडोनेशिया ने 2030 तक उत्सर्जन घटाने के साथ ही 2060 या उससे पहले ही नेट जीरो तक पहुंचने की प्रतिबद्धता जताई है. इंडोनेशिया दुनिया में कार्बन उत्सर्जन के लिहाज से आठवां सबसे बड़ा देश है. मुस्लिम बहुल देश में 85 फीसदी बिजली जीवाश्म ईंधन के जरिये पैदा होती है और यह धरती के सबसे बड़े कोयला निर्यातकों में है. इसके साथ ही दुनिया का तीसरे सबसे बड़े वर्षावन और पाम ऑयल का सबसे बड़ा उत्पादक देश भी है. पर्यावरणवादी समूह इंडोनेशिया पर जंगलों की कटाई करके खजूर के पेड़ लगाने का आरोप लगाते हैं.

तस्वीर: Willy Kurniawan/REUTERS

जंगलों की कटाई का जलवायु परिवर्तन को रोकने के वैश्विक लक्ष्यों पर बड़ा असर पड़ता है. पेड़ दुनिया भर में धरती को गर्म करने वाले उत्सर्जन का करीब एक तिहाई हिस्सा सोख लेते हैं लेकिन जब इन्हें काटा या फिर जलाया जाता है तो यह वही कार्बन वापस वायुमंडल में उड़ेल देते हैं.

इंडोनेशिया पहले ही ग्लोबल वॉर्मिंग की आंच झेल रहा है. इसके शहर और तटवर्ती इलाके आये दिन बाढ़ और समुद्र का स्तर बढ़ने की समस्या से जूझ रहे हैं. दूसरी तरफ ग्रामीण इलाकों को जंगल की आग और सूखे से जूझना पड़ रहा है.

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डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडोनेशइया की क्लाइमेट प्रोजेक्ट लीडर जुल्फिरा वार्ता का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के मामले में मुस्लिम धर्मगुरुओं को उनके समुदायों में और अधिक नेतृत्व देने की जरूरत है.

इंडोनेशिया की 27 करोड़ आबादी में 90 फीसदी लोग मुसलमान हैं. देश में 8 लाख मस्जिद और 37 हजार रिहायशी मदरसे हैं. इसके अलावा करीब 170 यूनिवर्सिटियां हैं जिनका नेतृत्व मुसलमानों के हाथ में है. इस लिहाज से यह शिक्षा और इस मसले पर काम के लिये एक विशाल प्लेटफॉर्म मुहैया कराता है. वार्ता ने कहा, "जलवायु और पर्यावरण के अभियानों को जिस नैतिक और आध्यात्मिक ऊर्जा की जरूरत है, उसमें इमाम बड़ा योगदान दे सकते हैं."

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जलवायु परिवर्तन को नकारने वाले

हालांकि पर्यावरण समूहों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन पर काम तक पहुंचने का रास्ता बहुत लंबा है खासतौर से देश के गरीब और ग्रामीण इलाकों में. 2019 में यूगव के एक वैश्विक सर्वेक्षण ने बताया कि इंडोनेशिया में उन लोगों की हिस्सेदारी बड़ी है जो जलवायु परिवर्तन से इनकार करते हैं, लगभग 18 प्रतिशत. 

संरक्षणवादियों के मुताबिक स्कूलों में जलवायु के मुद्दों के बारे में शिक्षा की कमी इसकी बड़ी वजह है. पर्यावरण कार्यकर्ताओं का सरकार और जीवाश्म ईंधन उद्योग के जरिये क्षति पहुंचाने की वजह से भी इस तरह की सोच को बढ़ावा मिला है. जलवायु परिवर्तन के खिलाफ काम करने वालों को आर्थिक विकास के खिलाफ काम करने वाला प्रचारित किया जाता है. 

 

इंडोनेशिया में जंगलों की कटाई के बारे में रिसर्च करने वाले इकोलॉजिस्ट डेवीड गावेयू का कहना है कि आर्थिक विकास सरकार के लिये शीर्ष प्राथमिकता है, लेकिन जलवायु परिवर्तन नहीं.

हालांकि इंडोनेशिया के युवाओं और नागरिक समाज में जलवायु परिवर्तन को लेकर जागरूकता बढ़ रही है. इस बीच हाल के वर्षों में सरकार ने भी जंगलों की कटाई की समस्या के खिलाफ कुछ कदम उठाये हैं. सरकार ने पुराने जंगलों और दलदली इलाकों को बदलने पर प्रतिबंध लगाया है और नये खजूर के पेड़ लगाने के परमिट पर अस्थायी रोक लगाई है. इसके साथ ही पुराने दलदली इलाकों को फिर से बसाने के लिए एक एजेंसी बनाई है और देश में इलेक्ट्रिक गाड़ियों के उद्योग को बढ़ावा दिया है. 

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इस बीच युवा इंडोनेशियाई बड़े पैमाने पर पेड़ लगाने की मुहिम चला रहे हैं, संरक्षणवादी समूह बनाये गए हैं और स्कूलों में पर्यावरण को लेकर होने वाली सामूहिक हड़तालों में हिस्सा लिया है.

ईको-मॉस्क और फतवा

बहुत से इंडोनेशियाई लोग मानते हैं कि ईश्वर की आपदाओं और जलवायु परिवर्तन में भूमिका है. ग्रीनपीस इंडोनेशिया के रोमाधोन के मुताबिक मुस्लिम धर्मगुरु आज भी ज्यादातर लोगों के जीवन से जुड़े फैसलों में अहम भूमिका निभाते हैं.  उनका कहना है कि धार्मिक नेताओं को धरती और उसकी मरम्मत के बारे में और ज्यादा इस्लामी ज्ञान को मथना चाहिये. इस दिशा में कुछ प्रगति हुई है.

इंडोनेशिया की सबसे उच्च परिषद ने 2014 में लुप्तप्राय जीवों को मारने के खिलाफ कानूनी रूप से गैरबाध्यकारी फतवा जारी किया. इसके दो साल बाद इसी तरह के कदम खेत और जंगलों में आग को रोकने के लिये भी उठाये गये.

पांच साल पहले इंडोनेशिया के नमाजियों ने 1,000 ईको-मॉस्क स्थापित करने का अभियान शुरू किया और 2018 में इस्लामिक संगठन प्लास्टिक कचरे को घटाने के लिये सरकार के साथ आये.

एनआर/वीके (रॉयटर्स)

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