न्यूनतम आय गारंटी योजना की बात कर राहुल गांधी ने एक अच्छी चाल चली है. लेकिन क्या आने वाले चुनावों में उन्हें और उनकी पार्टी को इसका फायदा होगा?
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अकसर यह कहा जाता है कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच कोई विशेष नीतिगत अंतर नहीं है. आर्थिक नीतियां तो दोनों की एक-सी ही हैं, केवल सांप्रदायिकता के मुद्दे पर यह फर्क है कि जहां बीजेपी वैचारिक रूप से हिंदू सांप्रदायिकता की पक्षधर है, वहीं कांग्रेस अवसरवादी ढंग से वक्त पड़ने पर उसका इस्तेमाल कर लेती है. लेकिन पिछले एक साल से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की यह कोशिश रही है कि बीजेपी की आर्थिक नीतियों के बरक्स कांग्रेस की ओर से कुछ अलग किस्म की आर्थिक नीतियां पेश की जाएं ताकि दोनों पार्टियों के बीच के अंतर को आसानी से आम वोटर को समझाया जा सके.
यहां यह याद दिलाना अप्रासंगिक न होगा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल के दौरान अनेक दूरगामी महत्व की नीतियां बनाई गई थीं और कांग्रेस का हर समय तीखा विरोध करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार भी उन नीतियों को छोड़ने का साहस नहीं जुटा पाई, केवल उन पर अमल को कमजोर और बेहद कठिन बना दिया.
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की पहली सरकार को वामपंथी दलों का समर्थन भी प्राप्त था और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद भी इन नीतियों के निर्माण में भूमिका निभा रही थी. काम का अधिकार देने के लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना और सूचना का अधिकार देने के लिए सूचना अधिकार कानून इसी दौर की देन थे.
मोदी सरकार पिछले पौने पांच सालों में आर्थिक क्षेत्र में किए गए अपने वादों में से अधिकांश पूरे नहीं कर पाई है और उसकी लगातार गरीब-विरोधी और पूंजीपति-समर्थक छवि बनती जा रही है. ऐसे में कांग्रेस वैकल्पिक आर्थिक नीतियों और उन पर त्वरित अमल के जरिए आम वोटर को यह विश्वास दिलाना चाहती है कि इंदिरा गांधी के जमाने से चले आ रहे गरीब-परस्त रुख पर वह आज भी जमी है.
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनाव जीत कर सत्ता में आने के तत्काल बाद कांग्रेस सरकारों ने किसानों के कर्ज माफ करने के अपने चुनावी वादे को पूरा कर दिया. अब राहुल गांधी ने सभी गरीबों को न्यूनतम आय गारंटी देने की बात कही है जो कल्याणकारी राज्य की पुरानी अवधारणा के साथ मेल खाती है.
कितनी तनख्वाह है दुनिया के नेताओं को
कितनी तनख्वाह है दुनिया के नेताओं को
दुनिया के लिए अहम फैसले करने वाले नेताओं को वेतन के रूप में कितना पैसा मिलता होगा. आपको हैरानी हो सकती है मगर दुनिया के बड़े मुल्कों में राष्ट्रप्रमुखों की तनख्वाहें कई छोटे देशों की तुलना में कम है.
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सिंगापुर के प्रधानमंत्री को 14,16,726 यूरो (110,042,313 रुपये)वार्षिक वेतन मिलता है.
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अमेरिका के राष्ट्रपति को 3,33,347 (25,893,343 रुपये) यूरो सालाना वेतन मिलता है.
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जर्मन चांसलर का वार्षिक वेतन 2,36,365 यूरो (18,360,087 रुपये) है.
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फ्रेंच राष्ट्रपति की सालाना तनख्वाह 1,79,880 यूरो (13,978,481 रुपये) है.
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ब्रिटिश प्रधानमंत्री को 1,79,174 यूरो (13,919,459 रुपये) सालाना वेतन मिलता है.
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जापान के प्रधानमंत्री को प्रति वर्ष 1,69,173 यूरो (13,145,304 रुपये) वेतन के रूप में मिलते हैं.
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दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति का वार्षिक वेतन 1,68,000 यूरो (13,053,760 रुपये) है.
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रूस के राष्ट्रपति को 1,13,338 यूरो (8,806,958 रुपये) का वेतन मिलता है.
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भारत के प्रधानमंत्री को हर साल 26,573 यूरो (20,63,000 रुपये) वेतन के रूप में मिलते हैं.
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चीन के राष्ट्रपति को प्रति वर्ष 18,348 यूरो (1,426,335 रुपये) वेतन मिलता है.
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यूं भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमणियन ने दो साल पहले इसी तरह की योजना की चर्चा की थी और कहा था कि यदि अन्य सभी सब्सिडी बंद कर दी जाए, तो सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का साढ़े चार या पांच प्रतिशत खर्च करके ऐसी योजना शुरू की जा सकती है. 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली जीत का एक बहुत बड़ा कारण किसानों को राहत देने वाली योजनाएं थीं. अब उसी प्रयोग को दुहराया जा रहा है और माना जा रहा है कि छोटे किसानों समेत देश की कुल आबादी का चालीस प्रतिशत न्यूनतम आय गारंटी योजना के अन्तर्गत आ जाएगा.
राजनीतिक दृष्टि से भी राहुल गांधी ने एक अच्छी चाल चली है. एक फरवरी को मोदी सरकार अंतरिम बजट पेश कर रही है. उम्मीद की जा रही थी कि उसमें सार्वजनीन प्राथमिक आय योजना पेश की जाएगी, लेकिन अब न्यूनतम आय गारंटी की बात छेड़कर राहुल गांधी ने उसका पहले ही जवाब दे दिया है.
अभी इस योजना का कोई ब्योरा सामने नहीं आया है लेकिन कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र बनाने वाली समिति के अध्यक्ष और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने आश्वासन दिया है कि पार्टी इसके लिए संसाधन जुटाने का काम कारेगी और घोषणापत्र में ब्योरों के साथ सामने आएगी. उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि देश के संसाधनों पर सबसे पहले गरीब का हक है.
इन सब घोषणाओं को देखते हुए यह स्पष्ट है कि यदि कांग्रेस ने केंद्र में सरकार बनाई, तो इस योजना के लागू होने पर हर गरीब के बैंक खाते में कुछ-न-कुछ जरूर आएगा. मनरेगा जैसी योजनाओं पर अमल के दौरान भी कुछ घपलों की खबरें आई थीं और हो सकता है न्यूनतम आय गारंटी योजना के साथ भी कुछ ऐसा ही हो. लेकिन इस तरह की जन कल्याणकारी योजनाओं के सकारात्मक असर से इनकार नहीं किया जा सकता.
कितना कमाती है काम वाली बाई
कितना कमाती है काम वाली बाई
शायद कुछ लोगों को लगता हो कि घर में झाड़ू, पोंछा, बर्तन, साफ करने वाली बाई बहुत मंहगी पड़ती है, लेकिन सच तो ये है कि भारत में काम वाली बाई घरेलू कर्मचारियों में सबसे कम पैसे कमाती है और उनकी जिंदगी बहुत मुश्किल भी है.
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इंडिया रियल टाइम नाम के जॉब पोर्टल के लिए babajob.com द्वारा कराए गए एक सर्वे से पता चला है कि भारत में घरेलू कामों के लिए रखे जाने वाले कर्मचारियों में काम वाली बाई सबसे कम पैसे कमाती है. और सबसे अच्छी कमाई होती है ड्राइवरों की.
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बड़े शहरों की तुलना करें तो कोलकाता में मेड की महीने की औसत कमाई 5,000 रूपये के आसपास है, तो वहीं अहमदाबाद और हैदराबाद में इससे थोड़ी बेहतर करीब 5,500 रूपये. बेंगलुरू, दिल्ली और चेन्नई जैसे महानगरों में औसत 6,000 जबकि मुंबई में सबसे ज्यादा 7,000 रूपये प्रति माह.
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पूरे भारत में कार ड्राइवरों को सभी घरेलू कर्मचारियों में सबसे अधिक पैसे कमाने वाला पाया गया. इनकी कमाई अहमदाबाद जैसे शहर में औसतन 9,500 तो वहीं मुंबई जैसे शहर में करीब 13,000 रूपये तक होती है. यह किसी मेड के मुकाबले लगभग दोगुनी कमाई है.
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ड्राइवरों के बाद घरेलू कामों में सबसे अच्छी कमाई करने वालों में नंबर आता है चौकीदारों का. घरेलू कर्मचारियों की मासिक आमदनी पर कराए गए सर्वे में एक चौकीदार की औसत आय 9,000 रूपये के करीब दर्ज हुई.
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मेड के बाद सबसे कम कमाने वाले कामगरों में नंबर है बच्चों की देखभाल करने वाली आया का. महीने का औसतन 6,000 कमाने वाली नैनी से थोड़ा ज्यादा यानि औसत 6,500 रूपये के आसपास खाना बनाने वाली कुक कमाती है.
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वेतन में अंतर का कारण यह है कि इन कर्मचारियों का वेतन मांग और आपूर्ति के आधार पर ही तय होता है. सर्वे में ये भी पता चला कि जिन पेशों में ज्यादा पुरुष हैं उनमें वेतन का स्तर आमतौर पर ऊंचा होता है. मेड के तौर पर महिलाएं ही काम करती हैं.
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भारत भर में करीब दो करोड़ लोग, जिनमें ज्यादातर औरतें हैं, घरों में मेड, कुक या नैनी के तौर पर काम करती हैं. पूरे देश का औसत देखें तो इनकी आय महीने के 3,000 रूपये से ऊपर नहीं. वो भी तब जब वे हफ्ते के छह से सात दिन फुलटाइम काम करती हैं.
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भारत में इन घरेलू कर्मचारियों को किसी तरह की सुरक्षा नहीं मिली है और कमाई बेहद कम है. इतना ही नहीं इन्हें कर्मचारी नहीं बल्कि नौकर माना जाता है और कई बार उनसे गुलामों जैसा रवैया रखा जाता है.
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अमेरिका में श्रम कानूनों के दायरे में आने के कारण मेड की प्रति घंटा औसत कमाई 11 डॉलर यानि 700 रूपये से अधिक होती है. भारत में अभी मेड के न्यूनतम वेतन पर कोई राष्ट्रीय नीति नहीं है. शायद इसीलिए अमेरिका में मेड रखना लक्जरी है जबकि भारत में औसत मध्यमवर्गीय परिवार भी ऐसा कर पाता है.