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चार धाम यात्रा को बढ़ते पर्यटकों से खतरा

शिवांगी सक्सेना
४ नवम्बर २०२५

एक अध्ययन से पता चला है कि चार धाम तीर्थस्थल पर्यटकों की एक सीमित संख्या को ही झेल सकते हैं. अगर भीड़ बढ़ती रही तो धराली जैसी और घटनाएं हो सकती हैं. ऐसे में इसके आसपास के गांवों को विकसित करने की जरूरत है.

केदारनाथ के पास भूस्खलन वाली जगह से श्रद्धालुओं को निकालने के लिए तैनात एनडीआरएफ दल
पिछले साल केदारनाथ के पास भूस्खलन की घटना हुई थी, इसके बाद फंसे श्रद्धालुओं को निकालने के लिए एनडीआरएफ की तैनाती की गई थीतस्वीर: NDRF/AFP/Getty Images

हर साल लाखों श्रद्धालु चार धाम यात्रा के लिए उत्तराखंड आते हैं. हिमालय में स्थित गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ और केदारनाथ में भारी भीड़ जुटती है. लेकिन ये स्थान सीमित संख्या में ही पर्यटकों का दबाव सह सकते हैं. साल 2000 के दशक की शुरुआत में पर्यटकों की भीड़ लगभग 10 लाख थी. यह हाल के वर्षों में 30 लाख से अधिक हो गई है.

पर्यटकों की संख्या बढ़ने से स्थानीय सुविधाओं पर दबाव बढ़ता जा रहा है. हाल में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक बिना नियंत्रण यात्रियों के आने से हिमालय के नाजुक पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है. यहां ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं. तापमान लगातार बढ़ रहा है. बादल फटने जैसी चरम मौसम घटनाएं बार-बार हो रही हैं.

आ रहे हैं क्षमता से अधिक पर्यटक

इस अध्ययन में उत्तराखंड के चार धाम क्षेत्रों के आसपास के इलाकों में ईको‑टूरिज्म की संभावना पर बात की गई है ताकि भीड़ एक ही स्थान पर ना इकट्ठी हो. रिपोर्ट को तैयार करने में जी.बी. पंत राष्ट्रीय हिमालय पर्यावरण संस्थान समेत कई संस्थान शामिल थे. शोधकर्ताओं ने दस अलग‑अलग अहम मानकों जैसे बर्फ से ढके क्षेत्र, जमीन की ढलान, जलवायु और वहां की पेड़-पौधों की स्थिति का अध्ययन किया. इसके आधार पर उन्होंने चार धाम की पर्यटक वहन क्षमता का अनुमान लगाया.

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दरअसल हर क्षेत्र एक सीमा तक ही इंसानों की संख्या झेल सकता है. इसे ही वहन क्षमता कहते हैं. अध्ययन में इसे दो तरह से स्टडी किया गया है. भौतिक वहन क्षमता से पता लगाया गया कि केवल क्षेत्रफल और इंफ्रास्ट्रक्चर के आधार पर अधिकतम कितने लोग एक समय में एक स्थान पर मौजूद हो सकते हैं. लेकिन यह मानक पर्यावरण या सामाजिक स्थिरता को नहीं दर्शाता है. ऐसे में वास्तविक वहन क्षमता बताती है कि बिना पर्यावरण, संसाधनों और स्थानीय समुदाय को क्षति पहुंचाए कितने पर्यटक सुरक्षित रूप से आ सकते हैं.

अध्ययन में बताया गया है कि हर दिन बद्रीनाथ की वास्तविक वहन क्षमता 11,833 से 15,778 और केदारनाथ की 9,833 से 13,111 पर्यटकों के बीच होनी चाहिए. वहीं यमुनोत्री के लिए ये सीमा 6,133 से 8,178 और गंगोत्री के लिए 4,620 से 6,160 पर्यटक है. इसका मतलब है कि यदि पर्यटकों की भीड़ इस सीमा के भीतर हो, तो पर्यावरण सुरक्षित रहेगा. संसाधन और बुनियादी ढांचे पर भी भार कम पड़ेगा. 

अध्ययन में भौतिक वहन क्षमता का आकलन भी किया गया है. वास्तविक वहन क्षमता की तरह इसमें पर्यावरण, संसाधनों या सुरक्षा पर पड़ने वाले प्रभाव की चिंता नहीं की जाती. शोधकर्ताओं के अनुसार वास्तविक वहन क्षमता, भौतिक क्षमता से बहुत कम है.

केदारनाथ की भौतिक वहन क्षमता लगभग 24,500 पर्यटक प्रति दिन है. बद्रीनाथ की भौतिक वहन क्षमता लगभग 29,500, गंगोत्री की लगभग 20,000 और यमुनोत्री की लगभग 10,000 पर्यटक है.

इस अध्ययन में सहभागी प्रियंका मैती डीडब्लू को बताती हैं, "विकास करते समय वास्तविक वहन क्षमता का ध्यान रखना चाहिए, भौतिक वहन क्षमता का नहीं. अभी यह सीमा के भीतर है. इस अध्ययन के लिए वर्ष 2019 का डाटा इस्तेमाल किया गया है. इसके अनुसार बद्रीनाथ में प्रतिदिन लगभग 6,073, केदारनाथ में 4,878, गंगोत्री में 2,586 और यमुनोत्री में 2,271 पर्यटक आए."

हालांकि पूरे साल में चार धाम आने वाली यात्रियों की भीड़ में इजाफा हो रहा है. प्रियंका आगे कहती हैं, "पिछले 24 वर्षों (2000 से 2024) में औसतन हर साल बद्रीनाथ में 28,784 और केदारनाथ में 39,671 यात्रियों की अधिक भीड़ जुड़ रही है. जबकि गंगोत्री और यमुनोत्री में हर साल 28,784 पर्यटक बढ़ रहे हैं. यदि यह बढ़ती रही, तो भविष्य में ये स्थल सुरक्षित सीमा (वास्तविक वहन क्षमता) से अधिक भीड़ देख सकते हैं.”

सरकारी परियोजनाओं का उल्टा असर 

इस भीड़ को ध्यान में रखते हुए सरकार ने कई योजनाओं की शुरुआत की. लेकिन उसका पर्यावरण पर नकारात्मक असर देखने को मिल रहा है. चार धाम सड़क परियोजन का मकसद भले ही तीर्थयात्रियों के लिए यात्रा को आसान बनाना हो लेकिन इसने पर्वतीय क्षेत्रों पर भारी दबाव डाला है.

लगभग 889 किलोमीटर लंबी इस सड़क परियोजना के तहत निर्माण के लिए 17.5 हेक्टेयर वनभूमि का रास्ते के लिए उपयोग किया गया. बड़े पैमाने पर पहाड़ों की कटाई की गई. जिससे क्षेत्र की ढलानों की स्थिरता कमजोर हुई और जल निकासी तंत्र में बदलाव आया.

इसका असर ये हुआ कि इस परियोजना के कारण भूस्खलन की घटनाएं बढ़ गईं. दरअसल पहाड़ी और हिमालयी इलाके में सड़क निर्माण, सुरंग और पुल बनाने से ढलानों पर दबाव बढ़ता है. जिससे भूस्खलन, चट्टानों के गिरने और हिमस्खलन जैसी घटनाओं का खतरा बढ़ता है. वर्ष 2013 में केदारनाथ आपदा और इस वर्ष उत्तराखंड में कई आपदाओं के पीछे यही मुख्य कारण रहा है. 

वहीं जंगलों की कटाई से मिट्टी सूखने लगी है. पिछले कुछ वर्षों में जंगल में आग की घटनाएं बढ़ी हैं. इसकी आग और वाहनों से निकलने वाला धुआं ग्लेशियरों पर प्रभाव डालता है. पिछले 30 वर्षों में हिमालयी क्षेत्रों का मौसम गर्म होता जा रहा है. यह धीरे-धीरे हो रहा है, लेकिन लगातार बढ़ रहा है. शोधकर्ताओं ने वर्ष 2002 से 2020 तक के डाटा को स्टडी किया. पाया गया कि बर्फ से ढका क्षेत्र लगभग हर साल कम हो रहा है.

गंगोत्री ग्लेशियर में सबसे ज्यादा बर्फ पिघली है. इस अवधि के बीच बर्फ हर साल लगभग 22 मीटर तक कम हुई है. हर साल यमुनोत्री में 20 मीटर, बद्रीनाथ में 17.32 मीटर, और केदारनाथ में 14.14 मीटर की दर से बर्फ घटती रही है. इसका असर स्कीइंग जैसे खेलों पर पड़ा है. साथ ही इसके कारण ट्रेकिंग मार्गों और पर्वतारोहण रूटों में भी बदलाव देखने को मिला है.

लोगों की भीड़ को संभालने के लिए निर्माण से हो रहा है नुकसान 

चार धाम अब केवल तीर्थस्थान नहीं रहे हैं. धार्मिक यात्रा अब पर्यटन में बदल गई है. यहां कई दुकानें और होटल खुल गए हैं. अवैध सीमेंट निर्माण तेजी से हो रहा है. वर्ष 2023 में प्राचीन तीर्थस्थल जोशीमठ का धंसना इसके दुष्प्रभाव का उदहारण है. रिपोर्ट के मुताबिक विशेषज्ञों ने चेतावनी दी थी, फिर भी निर्माण को अनुमति दी गई और शहर में पर्यटकों के लिए होटल बनाकर विस्तार किया गया.

पर्यटकों के आने से बढ़ा कचरा भी बड़ी समस्या बन गया है. केदारनाथ में पीक सीजन यानी अप्रैल से जुलाई के बीच प्रतिदिन 1.5 से 2 टन कचरा उत्पन्न होता है. इसके निस्तारण के लिए कोई सरकारी नीति अब तक नहीं बनी है.

परेशान करने वाली बात यह है कि ये भीड़ केवल कुछ हिस्सों में ही बढ़ी और उन्हें प्रभावित कर रही है. भारी भीड़ के बावजूद, चमोली, उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग के ग्रामीणों के जीवनस्तर में कोई खास सुधार नहीं हुआ. उत्तरकाशी में 80.10 प्रतिशत, चमोली में 60.07 प्रतिशत और रुद्रप्रयाग में 53.74 प्रतिशत परिवारों की मासिक आय 58.15 अमेरिकी डॉलर से कम है. साल 2025 में लगभग 60 लाख तीर्थयात्री आए और राज्य को करीब 89 करोड़ अमेरिकी डॉलर का लाभ हुआ. मगर स्थानीय विकास नहीं हुआ. 

विशेषज्ञों ने दिए सुझाव 

अध्ययन को लीड कर रहे प्रोफेसर जगदीश चंद्र कुनियाल से डीडब्लू ने बात की. उनका मानना है कि चार धाम के आसपास के क्षेत्रों में पर्यटकों की इस भीड़ को बांटा जाए. वहां ईको-टूरिज्म विकसित किया जाए ताकि ग्रामीणों को भी इसका लाभ मिल सके. साथ ही उनका कहना है कि निर्माण के समय ऊंचाई और ढलान का ध्यान भी रखा जाना चाहिए.

जगदीश कहते हैं, "200 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्र पर्यटन विकास के लिए कम उपयुक्त माने गए हैं. इसलिए पर्यटन विकास उन जगहों पर किया जाए जो कम ऊंचाई और कम ढलान वाली हों."

वह आगे कहते हैं, "अभी पर्यटक केवल चार धाम के रास्ते पर ही सीमित है. वे वहीं रुकते हैं. खाना खाते हैं. आगे बढ़ते हैं. जिससे उस रास्ते पर भीड़भाड़ बढ़ती है. जरुरी है कि पर्यटन का विकेंद्रीकरण हो. जैसे बद्रीनाथ के बगल में तप्त कुंड, ब्रह्म कपाल और केदारनाथ के पास चोराबारी और वासुकि ताल को विकसित किया जाना चाहिए. आसपास के क्षेत्रों जैसे पंडुकेश्वर, गोविंद घाट, जोशीमठ और औली का ‘ऑल वेदर टूरिज्म' के रूप में विकास हो सकता है. ताकि ग्रामीणों को पर्यटन से फायदा मिल सके और एक ही जगह पर पर्यटकों की भीड़ भी ना रहे."

जगदीश चंद्र कुनियाल ने चार धाम के निकटवर्ती ऐसे अन्य और क्षेत्रों की पहचान की है. उन्होंने ‘घाम तापो' पर्यटन का सुझाव भी दिया है. सर्दियों के मौसम में हिमालय क्षेत्र में आसमान साफ और सूरज खिला रहता है. यह समय भी पर्यटन के लिए अच्छा माना जाता है. पर्यटकों को यह जानकारी दी जानी चाहिए कि चार धाम क्षेत्र में गैर-यात्रा मौसम में भी घूमने आया जा सकता है. इससे हिमालयी क्षेत्रों में पर्यटन के महीनों की अवधि बढ़ाई जा सकेगी. यह केवल सबसे ज्यादा यात्रा वाले महीनों तक ही सीमित नहीं रहेगी.

इसके साथ ही पर्वतीय गांवों में होम स्टे की योजना, वाहन पार्किंग की व्यवस्था, और स्थानीय समुदाय आधारित जिम्मेदार पर्यटन को विकसित करना जैसे सुझाव भी शोधकर्ताओं ने दिए है. सुरक्षित यात्रा के लिए मोबाइल ऐप भी लॉन्च किया जाना चाहिए. ये सब कदम पर्यटन को सुरक्षित, सुविधाजनक और सतत बनाने में मदद करेंगे. 

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