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समानतासंयुक्त राज्य अमेरिका

जाति व्यवस्था पर अमेरिका में क्यों छिड़ी बहस

शबनम सुरिता
२६ अप्रैल २०२३

अमेरिका के कैलिफॉर्निया प्रांत की सेनेट जूडिशियरी कमेटी ने जातिगत भेदभाव बिल को सर्वसम्मति से पारित कर दिया है. आखिर दक्षिण एशिया की प्राचीन वर्ण व्यवस्था अमेरिकी राजनीति में कैसे घुस गई?

अमेरिका में जातिगत भेदभाव विरोधी कानून के समर्थक
अमेरिका में जातिगत भेदभाव विरोधी कानून के समर्थकतस्वीर: Ruscal Cayangyang

अमेरिका के कैलिफॉर्निया प्रांत की सेनेट जूडिशियरी कमेटी ने जातिगत भेदभाव बिल को सर्वसम्मति से पारित कर दिया है. समिति के सभी आठ सदस्यों ने बिल के समर्थन में मतदान किया. इस बिल को हिंदुत्ववादी संगठनों के लिए एक बड़ा झटका बताया जा रहा है क्योंकि कई प्रभावशाली अमेरिकी हिंदू संगठन इस बिल का विरोध कर रहे थे. लेकिन अमेरिका में जातिगत भेदभाव झेल चुके बहुत से लोग इसे अपनी जीत मान रहे हैं.

नेपाल में जन्मे समाजसेवी प्रेम पेरियार को वो घटना याद है जब कैलिफॉर्निया के बे एरिया मेंपहली बार उन्हें उनकी जाति याद दिलाई गई थी.

"दूसरे लोगों की तरह मैं भी हाथ में प्लेट और चम्मच लिये टेबल की तरफ बढ़ रहा था लेकिन जब खाना लेने की मेरी बारी आई तो मेजबान ने कहा, 'प्रेम क्या तुम रुकोगे? मैं तुम्हारे लिए खाना लाता हूं.' मैंने मान लिया. यह ठीक है, मैं आपका खाना खराब नहीं करूंगा."

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दक्षिण एशिया में जातियों का सामाजिक-आर्थिक ढांचा हजारों साल पुराना है. इसमें शुद्धता और गंदगी से जुड़े नियम भी हैं. ये नियम कुछ समूहों को "अछूत" का दर्जा देते हैं, ये लोग खुद को इस ढांचे में सबसे निचले पायदान पर खड़ा देखते हैं. इन्हें कुछ और जातीय समूहों के साथ "दलित" कहा जाता है. भोजन जातीय शुद्धता के पैमानों में से एक है और इनसे जुड़े नियमों के मुताबिक दलित जिस खाने को छू लेते हैं वह "गंदा" हो जाता है. इसका मतलब है कि गैरदलित इसे नहीं खा सकते. 2015 में कैलिफॉर्निया आने पर पेरियार को इसका अनुभव हुआ.

पेरियार डेमोक्रैटिक सेनेटर आयशा वहाब का समर्थन करते हैं जो कैलिफॉर्निया में जाति आधारित भेदभाव को खत्म करने की कोशिश में हैं. मार्च में वहाब ने एक बिल पेश किया जिसे मंगलवार को सेनेट की जूडिशरी कमेटी ने पारित कर दिया है. अगर कानून बन जाये तो कैलिफोर्निया जाति को सेक्स, वंश, धर्म और लिंग के साथ संरक्षण का दर्जा मिल जाएगा.

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सिएटल और कैलिफॉर्निया तकनीक का गढ़ हैं जहां बड़ी संख्या में दक्षिण एशियाई लोग बड़ी टेक कंपनियों में काम करते हैं. इन्हीं में से एक सिस्को पर एक मुकदमा चला जब उसके एक कर्मचारी ने अपने दो सुपरवाइजरों पर जाति के आधार पर भेदभाव करने का आरोप लगाया. इस मुकदमे ने अमेरिका में जाति को लेकर अनुभवों और पर बहस छेड़ दी और इसे इक्वलिटी लैब्स नाम के एक संगठन ने मुद्दा बनाया.

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2018 में इक्वलिटी लैब्स ने अमेरिका में जातियों पर एक रिसर्च रिपोर्ट छापी. यह रिपोर्ट 1500 लोगों से बात करके बनाई गई थी. इसमें भाग लेने वाले 60 फीसदी लोगों ने बताया कि दलितों को जाति आधारित अपमानजनक मजाक और फब्तियां सहन करना पड़ता है. 

2021 में कार्नेगी एंडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस की एक रिपोर्ट में बताया गया, "मोटे तौर पर आधा भारतीय अमेरिकी हिंदू" किसी जाति समूह के साथ अपनी पहचान जोड़ते हैं. रिसर्च में  बताया गया कि  बहुत से आप्रवासी अपने साथ अपनी पहचान लेकर आते हैं जिसकी जड़ें उनके पैतृक जन्मभूमि से जुड़ी है लेकिन बहुत से लोगों ने उसे अमेरिकी पहचान के लिए छोड़ दिया है. हालांकि इसके बाद भी उन्हें भेदभाव करने वाली ताकतों, ध्रुवीकरण और उनकी पहचान से जुड़े सवालों से मुक्ति नहीं मिल पाई है."

प्रवासियों का जाति अनुभव

फरवरी में सिएटल की नगर परिषद ने जाति की पहचान को संरक्षित दर्जा दे दिया. इसके बाद अब कैलिफॉर्निया में यह बिल पेश किया गया. बहुत से लोगों ने इसका विरोध किया. समीर कालरा दूसरी पीढ़ी के भारतीय अमेरिकी और हिंदू अमेरिका फाउंडेशन के प्रबंध निदेशक हैं. अमेरिका में भारतीय के तौर पर उनका अनुभव प्रेम के अनुभव से बिल्कुल अलग है. उन्होंने और जिन लोगों की वो बात करते हैं उन्होंने कभी "जाति को देखा या अनुभव नहीं किया है." कालरा का कहना है, "इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो भारत में हाशिये पर रहने वाले समुदायों से आते हैं.”

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वह कहते हैं कि उन्होंने काम के दौरान ऐसा को वाकया नहीं देखा. ये लोग अपनी पहचान के बारे में बात नहीं करना चाहते क्योंकि वे इन सब चीजों से दूर जाने के लिए अमेरिका आये.

जब प्रेम पेरियार ने अपने एक दलित सहकर्मी से इस बारे में बात की तो उनका कहना था, "प्रेम जी आप नये हैं. मैं यहां पिछले 10 साल से हूं. मैंने यह कई बार झेला है."

पेरियार और कालरा कोई अपवाद नहीं हैं लेकिन दोनों का जाति को लेकर अनुभव बिल्कुल अलग है जो तुलसी श्रीनिवास को हैरान नहीं करता. श्रीनिवास इमर्सन कॉलेज में एंथ्रोपोलॉजी, धर्म और ट्रांसनेशनल स्ट्डीज के प्रोफेसर और हार्वर्ड की डिविनिटी स्कूल की फेलो हैं. श्रीनिवास का कहना है, "जब लोग कहते हैं कि उनके साथ भेदभाव नहीं हुआ तो मुझे लगता है कि यह इस बात का सबूत है कि वो ढेर की ऊंचाई पर हैं. पश्चिमी में पढ़े धर्मनिरपेक्ष हिंदू जाति को लेकर शर्मिंदा हैं. उन्हें भेदभाव पर शर्म आती है, जिनसे मैं भी सहानुभूति रखती हूं. हालांकि दूसरी तरफ हिंदू सुधार अभियान प्रताड़ित जातियों के लिए भयानक रहे हैं क्योंकि सदियों नहीं तो कई दशकों तक उनके खिलाफ भेदभाव को माना नहीं गया और इसने एक उदार मगर जाति के वर्चस्व वाले हिंदुत्व का एक संस्करण तैयार किया."

श्रीनिवास इसे हिंदू संस्कृति के स्थानीय हिस्से के रूप में देखती हैं. उनका कहना है, "और इसलिए हम यह अपने साथ ले कर आते हैं. इस नई जगह अमेरिका में जहां हम समानता की प्रयोगशाला में प्रयोग कर रहे हैं, हम इस असहज हिस्से को हमारी संस्कृति के रूप में देखते हैं."

अमेरिकी शब्दकोश में जाति को शामिल करने से क्या होगा?

पेरियार का मानना है कि अमेरिकी तंत्र को जाति के बारे में बताना पहला कदम है और उनके लिए इस कानून का मतलब है संरक्षण. वहाब का मानना है कि बिल का "सबसे बड़ा असर" संरक्षण है. उन्होंने कहा, "इससे लोगों को यह महसूस होगा कि उनके पास कुछ है और अगर उन्हें कभी भेदभाव की कोशिशें या फिर उनके खिलाफ जाती हुई महसूस हुईं तो उनके पास उसे सुधारने का संसाधन होगा. वो यह कह सकेंगे, 'इसकी अनुमति नहीं है. और इसलिए मैं संविधान के तहत संरक्षित हूं.'"

वहाब का कहना है कि जैसे जैसे दूसरे राज्यों में विविधता बढ़ रही है, यह बिल दूसरे राज्यों पर भी आधिकारिक भाषा में जाति को शामिल करने के लिए दबाव बनाएगा. वह कहती हैं कि जब कैलिफॉर्निया आगे आता है तो दूसरे भी उसे अपनाते हैं. मुझे पूरा यकीन है कि इस बार भी यही होगा."

बिल का विरोध करने वाले मौजूदा अमेरिकी कानूनों का जिक्र करते हैं जो जिसमें वंश के आधार पर भेदभाव की बात है. उन्हें लगता है कि यह जाति के आधार पर भेदभाव की व्याख्या के लिए पर्याप्त है. समीर कालरा और उनका संगठन जाति विरोधी विशेष कानून और उसके असर को लेकर आशंकित हैं. उनका कहना है, "लोग आशंकित हैं कि दूसरी, तीसरी पीढ़ी के बच्चों पर इसका क्या असर होगा. एक समुदाय के तौर पर दूसरे समुदायों के नफरती अपराधों, हिंदूफोबिया या आप्रवासी विरोध को हम भी झेलते हैं. क्या दक्षिण एशियाई लोगों की एक समुदाय के तौर पर प्रोफाइल तैयार की जाएगी? क्या नियोक्ता अब इनके आधार पर किसी को नौकरी पर रखने के बारे में फैसला करेंगे क्योंकि वे सोचते हैं कि भारतीय अमेरिकी या दक्षिण एशियाई अमेरिकी जाति के आधार पर अपने आप भेदभाव करते हैं?"

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श्रीनिवास कहती हैं कि भारत में जाति के असर को कभी मापा नहीं गया जहां इसकी शुरुआत हुई. ऐसे में उनके लिए यह समझा जा सकता है कि अमेरिका में यह काम और ज्यादा मुश्किल होगा. हालांकि इतने भर से अमेरिकी अदालतों और संस्थाओं को जाति पर कानून बनाने से नहीं रोका जा सकता है.

श्रीनिवास का कहना है, "कोई यह दलील दे सकता है कि अमेरिका तो अभी रंग और लिंग के भेद को ही खत्म नहीं कर सका लेकिन फिर भी इन मामलों में भेदभाव होने पर कानून है. किसी को समस्या की गहराई और ओर-छोर जानने की जरूरत नहीं है. अगर एक आदमी के साथ भी अनुचित तरीके से भेदभाव होता है तो यह समस्या का सबूत है."

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