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प्रकृति और पर्यावरणलैटिन अमेरिका

'दुनिया के आखिरी कोने' में जलवायु परिवर्तन का असर

२९ दिसम्बर २०२१

दक्षिणी अमेरिका के सबसे निचले सिरे पर जहां अटलांटिक और प्रशांत महासागर मिलते हैं उस जगह को "दुनिया का आखिरी कोना" भी कहा जाता है. चिली के इस इलाके में वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन के असर को लेकर चेतावनी दी है.

तस्वीर प्रतीकात्मक हैतस्वीर: Galyna Andrushko/Zoonar/picture alliance / Zoonar

चिली के इस इलाके को मगालानेस के नाम से जाना जाता है. ये पुन्ता अरेनास से लेकर मगालानेस स्ट्रेट से होते हुए बीगल चैनल तक फैला हुआ है. कोरोना वायरस महामारी की वजह से वैज्ञानिकों का यहां अध्ययन करने का अभियान एक साल से रुका हुआ था.

हाल ही में वैज्ञानिक अभियान पर पहुंचे और नुकसान पहुंचाने वाले जीवों और जलवायु परिवर्तन पर उनके असर का अध्ययन करने की कोशिश की. ग्लेशियरों और पहाड़ों के परे अपनी विशेष नाव काबो दे हॉर्नोस पर सवार स्ट्रेट से गुजरते वैज्ञानिकों ने अपना ध्यान पानी पर केंद्रित किया हुआ था.

बदलाव की रफ्तार

यहां के पानी में दूसरे सागरों और महासागरों के मुकाबले एसिडिटी, नमक और कैल्शियम की मात्रा कम है. वैज्ञानिकों का मानना है कि यहां के पानी की जो अवस्था है वही अवस्था आने वाले दशकों में दुनिया के दूसरे कोनों में भी देखने को मिलेगी. कारण है जलवायु परिवर्तन.

चिली के पैटागोनिया इलाके के ग्लेशियर सबसे तेजी से पीछे हटते ग्लेशियरों में से हैंतस्वीर: AP

अभियान का नेतृत्व करने वाले लुइस इरीयारते कहते हैं, "जलवायु परिवर्तन को कम करने और उसके मुताबिक ढलने की जो योजनाएं अलग अलग प्रांतों में हैं वो पर्यावरण में हो रहे बदलाव को देखते हुए पुरानी हो चुकी हैं. हम एक समाज के रूप में पर्यावरण के बदलाव के प्रति जिस गति से प्रतिक्रिया कर रहे हैं पर्यावरण उससे तेज गति से बदल रहा है."

इस अभियान में शैवालों की नुकसानदेह "लाल लहरों" पर विशेष ध्यान दिया गया जो समुद्र को लाल रंग में रंग सकती हैं. इन्हें सबसे पहले मगालानेस इलाके में ही करीब 50 सालों पहले देखा गया था. तब से इनकी वजह से 23 लोगों की जान जा चुकी है और 200 से ज्यादा लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ा है.

महासागरों का हाल

इस इलाके पर पिघलते हुए ग्लेशियरों का भी असर पड़ा है, जो कि ग्लोबल वॉर्मिंग का एक नतीजा है. इरियारते कहते हैं, "हमें नहीं मालूम कि इन प्रभावों का इन जीवों और विशेष रूप से सूक्ष्मजीवों पर क्या असर पड़ेगा." अभियान के सदस्य 14 स्थानों पर रुके और हर बार पानी के सैंपल लिए.

महासागरों पर जितना ध्यान देने की जरूरत है उतना दिया नहीं जा रहा हैतस्वीर: Gerard Bottino/ZUMAPRESS/picture alliance

इन सैंपलों को अलग अलग गहराई से लिया गया जिसमें अधिकतम स्तर 200 मीटर का था. सैंपल लेने के लिए रोसेटे नाम के उपकरण का इस्तेमाल किया गया. एक और उपकरण की मदद से मिट्टी के सैंपल भी लिए गए. इन नमूनों को कुछ स्थानों पर तो 300 मीटर से भी ज्यादा गहराई से लिया गया.

वैज्ञानिकों ने तटों पर शैवालों और सीप-घोंघों को भी खोजा और इकठ्ठा किया. नाव में सबसे ऊंचे स्थान पर खड़े हो कर मरीन बायोलॉजिस्ट रोड्रिगो हुके ने पानी की सतह को स्कैन करने में घंटों बिताए. वो अभियान में शामिल 19 वैज्ञानिकों में से एक हैं.

सीओपी27 से उम्मीद

उन्हें जब कभी दूर कोई व्हेल दिखाई देती तो वो सिग्नल देते और एक मोटरबोट में सवार हो जाते ताकि व्हेल के पास पहुंच सकें. उनकी कोशिश होती व्हेल का मल इकठ्ठा करने की जिससे उसके खान पान में आ रहे बदलावों का पता लगाया जा सके. हुके कहते हैं कि महासागरों को लेकर दुनिया भर की सरकारों ने जो अकर्मण्यता दिखाई है वो ऐतिहासिक है.

वैज्ञानिकों को सीओपी27 से कई उम्मीदें हैंतस्वीर: Christoph Soeder/dpa/picture alliance

वो उम्मीद कर रहे हैं कि मिस्र में संयुक्त राष्ट्र की जो अगली जलवायु परिवर्तन बैठक होगी (सीओपी27) उसमें महासागरों के प्रबंधन को लेकर सही मायनों में एक वैश्विक परिवर्तन आएगा.

वो कहते हैं, "2022 में यह सब बदलने की जरूरत है और हम इंसान आगे कैसे बढ़ते हैं इसे लेकर बदलाव की गंभीर नीतियों की तरफ बढ़ने की राह में एक ठोस फैसला लिए जाने की जरूरत है." उन्हें चिंता है कि यह इलाका एक दिन "धरती पर जैवविविधता के आखिरी ठिकानों में से एक रह जाएगा."

नौ दिनों के मिशन के बाद इकट्ठा की गई जानकारी की प्रयोगशालाओं में समीक्षा करने के समय आ गया. 24 साल के विल्सन कास्तीलो बायोकेमिस्ट्री के छात्र हैं और इस अभियान के सबसे कम उम्र के सदस्य. वो कहते हैं, "मुझे लगता है हम वो कह सकते हैं जो प्रकृति खुद नहीं कह सकती."

सीके/एए (एएफपी)

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