इस साल चिकित्सा का नोबेल दो अमेरिकी वैज्ञानिकों ने जीता है. इन दोनों की जिंदगी और शोध की कहानियां भी अनूठी हैं. लेकिन दोनों के लिए ही नोबेल जीतना एक विशेष अनुभव है.
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डेविड जूलियस सुपरमार्किट के उस कोने में थे जहां बहुत से चिली सॉस यानी मिर्च की चटनी के डिब्बे रखे थे. अचानक वह अपनी पत्नी की ओर मुड़े तो उन्होंने जो बात कही, उसने दोनों की जिंदगियां बदल दीं.
डेविड जूलियस ने कहा, "मुझे लगता है कि आखिरकार मैंने पता लगा लिया है कि रसायनों से गर्मी महसूस होने की वजह क्या है.”
उनकी पत्नी भी एक वैज्ञानिक हैं. उन्होंने फौरन कहा, "ठीक है, तब काम पर लग जाओ.”
किसे मिला वैकल्पिक नोबेल
भारत के दो लोगों को मिला अलटरनेटिव नोबेल पुरस्कार
साल 2021 का राइट लाइवलीहुड अवार्ड जिसे अलटरनेटिव नोबेल पुरस्कार के नाम से भी जाना जाता है, चार लोगों को मिला. अवार्ड जीतने वाले को 10 लाख स्वीडिश क्राउन मिलते हैं. इन चार लोगों में दो भारतीय भी हैं.
तस्वीर: Arihant
ऋत्विक दत्ता और राहुल चौधरी, भारत
लीगल इनिशीएटीव फॉर फॉरेस्ट एंड इनवारनमेंट (LIFE) को भारत के वकील ऋत्विक दत्ता और राहुल चौधरी ने बनाया था. यह संस्था पर्यावरण प्रदूषण के खिलाफ कानूनी कार्रवाई में लोगों की मदद करती है. संगठन ने पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाले औद्योगिक प्रदूषण के लिए जिम्मेदार लोगों को उसकी जिम्मेदारी लेने पर मजबूर किया है.
तस्वीर: Arihant
मार्थे वांडू, कैमरून
मार्थे वांडू, कैमरून में दशकों से यौन हिंसा के खिलाफ और महिलाओं और बच्चों के अधिकार के लिए लड़ रही हैं. एक गैरसरकारी संगठन की मदद से वो लोगों की मदद करती हैं जो 1998 में शुरू हुआ. उनका संगठन शिक्षा, शोषण से बचाव और पीड़ितों को मनोवैज्ञानिक देखभाल के साथ साथ कानूनी सलाह देता है. अब तक 50,000 से ज्यादा लड़कियों को मदद मिली है.
तस्वीर: Right Livelihood
फ्रेडा ह्यूसन, कनाडा
फ्रेडा ह्यूसन कनाडा के मूल निवासी वेट'सुवेटन की विंग-चीफ हैं. ह्यूसन ने वेट'सुवेटन नाम से एक प्रोटेस्ट कैंप और स्वदेशी उपचार केंद्र बनाया है. यह कैंप घरेलू जमीन पर गैस पाइपलाइन के निर्माण का विरोध करता है. ह्यूसन का अभियान संस्कृति और जीवनशैली के बीच के गहरे संघर्ष का सामना कर रहा है जो कनाडा में सालों से है.
तस्वीर: Michael Toledano
व्लादिमीर स्लीवाक, रूस
व्लादिमीर स्लीवाक रूस के सबसे समर्पित पर्यावरणवादियों में से एक हैं. उन्होंने ईको-डिफेंस नाम से एनजीओ शुरू किया है. स्लीवाक ने प्रदूषण, विशेष रूप से तेल खनन, परमाणु ऊर्जा के उत्पादन और परमाणु कचरे की ढुलाई से लड़ने के लिए जमीनी स्तर पर अभियान में वर्षों बिताए हैं. तेल, गैस और कोयले के निर्यात पर रूस की निर्भरता को देखा जाए तो यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है.
लगभग उसी वक्त ऑर्डम पैटापूटन स्पर्श के रहस्य को सुलझाने की कोशिश कर रहे थे. यानी वह पता लगाना चाह रहे थे कि हम बिना देखे भी कैसे किसी वस्तु या व्यक्ति को छूने भर से अनुभव कर लेते हैं.
अमेरिका के ये दोनों मॉलीक्यूलर बायोलॉजिस्ट इस साल चिकित्सा के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार विजेता हैं. दोनों को संयुक्त रूप से यह पुरस्कार दिया गया है जबकि दोनों ने अपनी अपनी खोजें एक दूसरे से अलग 1990 और 2000 के दशक के दौरान की थी.
जलन की जड़
जूलियस सैन फ्रांसिस्को की कैलिफॉर्निया यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं. उन्होंने मीडिया से बातचीत में कहा कि कुछ पौधे जैसे मिर्च ऐसे केमिकल उत्पन करते हैं जिनसे जलन होती है.
इस बारे में पहले हुए शोध यह बता चुके थे कि कैपसाइसिन नामक रसायन के कारण न्यूरॉन्स सक्रिय हो जाते हैं और दर्द का अहसास होता है. लेकिन यह होता कैसे है, इसके बारे में पता नहीं था. 1997 में जूलियस ने पता लगाया कि स्पर्श के लिए जिम्मेदार नर्व्स के सिरों पर एक प्रोटीन होता है, जो जलन का अहसास कराता है. इसी से पता चला कि उच्च तापमान पर कैसा अहसास होता है.
इस खोज के आधार पर जूलियस ने मेथेनॉल और पुदीने की मदद से ऐसे रिसेप्टर खोजे जो सर्दी के अहसास के लिए जिम्मेदार थे. वह बताते हैं, "मुझे प्रायोगिक विज्ञान पसंद है क्योंकि प्रयोग के दौरान जब आप सोच रहे होते हैं तब आपको हाथों से काम करने का भी मौका मिलता है. इससे आपको काम में उतना ही आनंद मिलता है जैसा किसी शौकीया काम में मिलता है.”
खोज करने पर अहसास के बारे में बताते हुए जूलियस ने कहा, "एक ऐसा वक्त होता है जब आप कोई चीज खोजते हैं. तब पूरे ग्रह पर, कम से कम आप ऐसा सोचते हैं कि आप अकेल व्यक्ति है जिसे इस सवाल विशेष का जवाब पता है. वह पल वाकई सिहरा देने वाला होता है.”
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एक आप्रवासी की मेहनत
स्क्रिप्स रिसर्च के पाटापोटन की खोज भी लगभग जूलियस जैसी ही है. उन्होंने ऐसे दो जीन खोजे जो दबाव को इलेक्ट्रिक सिग्नल में बदल देते हैं. यह एक दुरूह प्रक्रिया थी जिसमें पाटापोटन को एक के बाद दूसरे को डिलीट करते हुए लगातार कई जीन डिलीट करने पड़े.
गुब्बारे फुलाने वाली हीलियम
केवल गुब्बारे फुलाने में ही काम नहीं आती हीलियम गैस
शायद आपने इस हल्की, आग ना पकड़ने वाली गैस को केवल गुब्बारों में ही देखा हो. लेकिन चिकित्सा, खेल और उड्डयन क्षेत्र में भी इसके कई इस्तेमाल हैं.
तस्वीर: Fotolia/drubig-photo
मजे की चीज
हीलियम से भरे गुब्बारे उड़ कर छत से जा लगते हैं क्योंकि यह गैस हवा से हल्की होती है. आवर्ती सारणी में नोबल गैसों की श्रेणी में रखे गए इस तत्व का प्रतीक है “He” और परमाणु संख्या है 2. इसका मेल्टिंग प्वाइंट सबसे कम है और -452 डिग्री फॉरेनहाइट पर जाकर इसमें उबाल आता है.
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ऊंची उड़ान का साथी
सन 2012 में जर्मनी के फेलिक्स बाउमगार्टेन हीलियम से भरे एक गुब्बारे पर सवार होकर वायुमंडल की दूसरी परत स्ट्रैटोस्फीयर तक जा उड़े. पैराशूट लेकर उन्होंने 38,969 मीटर से छलांग लगा दी. दो साल के बाद अमेरिका के ऐलन यूस्टेस ने 41,419 मीटर की ऊंचाई से छलांग लगाई.
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हाइड्रोजन से अच्छा विकल्प
हीलियम के जैसी ही हल्की गैस होती है हाइड्रोजन जो धरती पर प्रचुर मात्रा में पाई जाती है और इसके कई अच्छे इस्तेमाल भी हैं. लेकिन जेपलिन में हाइड्रोजन भरना उनमें शामिल नहीं है. सन 1937 में अमेरिका में हाइड्रोजन से भरे एक जेपलिन में जब विस्फोट हो गया तो उससे इंसान ने यह सीखा.
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ज्वलनशील नहीं इसलिए ज्यादा सुरक्षित
आजकल जेपलिनों में हाइड्रोजन नहीं बल्कि हीलियम गैस ही भरी जाती है. हल्की होने के अलावा उसका सबसे बड़ा फायदा यही है कि यह आग नहीं पकड़ती और इसलिए जेपलिन और उड़ान भरने वाले के लिए सुरक्षित होती है.
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भविष्य के रिएक्टरों में
सुपरकंडक्टर कॉइल्स को ठंडा करने के लिए उनमें से हीलियम गैस को प्रवाहित किया जाता है. जहां कहीं भी ताकतवर चुंबकीय क्षेत्र पैदा करने की जरूरत होती है, वहां सुपरकंडक्टरों का इस्तेमाल होता है. तस्वीर में दिख रहे चुंबकीय क्षेत्र के प्रयोग में भी हीलियम का इस्तेमाल हुआ था.
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धातुओं की वेल्डिंग में
जब दो धातुओं को गला कर जोड़ा जाता है तो गलाई जा रही जगह के ऑक्सीडेशन का खतरा रहता है. इसे रोकने के लिए मेकैनिक हीलियम गैस का इस्तेमाल करते हैं. यह गली हुई धातु से सट जाती है और ऑक्सीजन या दूसरी किसी गैस से धातु को ऑक्सीडाइज होने से बचाती है.
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चिकित्सा क्षेत्र में उपयोगी
शरीर के भीतर की तस्वीरें लेने के लिए डॉक्टर मैग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग यानि एमआरआई का इस्तेमाल दुनिया भर में करते हैं. इसकी मशीनों में भी सुपरकंडक्टिंग कॉइल्स को ठंडा रखने के लिए हीलियम का इस्तेमाल होता है. (फाबियान श्मिट/आरपी)
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वह बताते हैं, "एक साल तक लगातार इस पर काम किया और नकारात्मक नतीजे मिलते रहे. आखिरकार 72वीं बार में जाकर जवाब मिला.”
आर्मेनियाई मूल के पाटापोटन युद्ध ग्रस्त लेबनान में बड़े हुए. वह 18 वर्ष की आयु में अमेरिका आए थे. वह कते हैं कि नोबेल पुरस्कार जीतना तो उनके ख्यालों में भी नहीं था.
जब नोबेल समिति ने सूचित करने के लिए उन्हें फोन किया तब कैलिफॉर्निया में रात के दो बजे थे और उनका फोन साइलेंट था. वह बताते हैं, "उन्होंने किसी तरह लॉस एंजेलिस में रहने वाले मेरे 94 साल के पिता से संपर्क किया. लगता है कि ‘डू नॉट डिस्टर्ब' मोड में भी वे लोग आपको कॉल कर सकते हैं जो आपके फेवरेट लिस्ट में होते हैं.”