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नई विज्ञान महाशक्ति बना चीन, अब क्या करेगा यूरोप

अलेक्जांडर फ्रॉयंड
९ नवम्बर २०२५

अंतरराष्ट्रीय विज्ञान के क्षेत्र में अब चीन काफी आगे निकल चुका है. एक नए अध्ययन से पता चलता है कि कैसे चीन अनुसंधान के प्रमुख क्षेत्रों में अमेरिका से आगे निकल रहा है और अनुसंधान का एजेंडा तय कर रहा है.

चीन की एक फैक्ट्री में डिजिटल टीचिंग बोर्ड तैयार करते कर्मचारी
चीन अनुसंधान के क्षेत्र में तेजी से आगे निकल रहा है और एजेंडा तय कर रहा हैतस्वीर: STR/AFP/Getty Images

"साइन्टिया पोटेस्टास एस्ट, यानी ज्ञान ही शक्ति है!” यह मुहावरा 16वीं शताब्दी के अंत में इंग्लैंड के दार्शनिक सर फ्रांसिस बेकन ने गढ़ा था. बेकन ने ऐसा उस समय किया जब उनका देश इंग्लैंड विज्ञान और साम्राज्य की शक्ति, दोनों में दुनिया का नेतृत्व कर रहा था. बेकन का उद्देश्य अपने समय के लोगों को यह बताना था कि ज्ञान का उपयोग रणनीतिक रूप से किया जा सकता है. और यह सिद्धांत आज भी पूरी तरह सही बैठता है.

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वैश्विक शोध का क्षेत्र अब एक अहम मोड़ पर पहुंच चुका है. "प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज” (पीएनएएस) नामक पत्रिका में प्रकाशित एक नए सर्वेक्षण के मुताबिक, 2023 तक, चीनी वैज्ञानिक अमेरिकी सहयोगियों के साथ किए गए लगभग आधे शोध कार्यों का नेतृत्व कर रहे थे. यह एक ऐतिहासिक आंकड़ा है, जो बीजिंग के तेजी से बढ़ते प्रभाव को दिखाता है. अब जब भी प्रमुख अंतरराष्ट्रीय मुद्दों की बात आती है, तो चीन अनुसंधान का एजेंडा तय करता है.

चीन की अग्रणी भूमिका: नए मानदंडों के आधार पर सत्ता परिवर्तन

वास्तविक वैज्ञानिक शक्ति को दिखाने के लिए अब सिर्फ नोबेल पुरस्कारों जैसे पुराने, लेकिन प्रतिष्ठित पैमानों या केवल शोध प्रकाशनों की संख्या जैसे पारंपरिक संकेतक काफी नहीं हैं. चीन की वैज्ञानिक तरक्की और प्रभाव को मापने के लिए अब अन्य नए मानदंडों का उपयोग किया जा रहा है.

लगभग साठ लाख शोध पत्रों के विश्लेषण से पता चलता है कि 2023 में अमेरिका-चीन के संयुक्त अध्ययनों में 45 फीसदी में चीनी वैज्ञानिकों ने नेतृत्व किया. जबकि, 2010 में यह आंकड़ा 30 फीसदी था. अगर यह रुझान जारी रहता है, तो 2027-28 तक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, सेमीकंडक्टर से जुड़े रिसर्च, और मटीरियल साइंस जैसे रणनीतिक क्षेत्रों में प्रमुख भूमिकाओं में चीन अमेरिका की बराबरी कर लेगा.

वैज्ञानिक प्रकाशनों के मामलों में भी चीन आगे है. नई जी20 रिसर्च और इनोवेशन रिपोर्ट के मुताबिक, लगभग 9 लाख वैज्ञानिक प्रकाशन चीन से प्रकाशित हो रहे हैं. यह आंकड़ा 2015 की तुलना में तीन गुनी बढ़ोतरी को दिखाता है.

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नेचर इंडेक्स, मेडिकल और नेचुरल साइंस की 150 महत्वपूर्ण पत्रिकाओं का मूल्यांकन करता है. इसमें चीन ने अमेरिका को काफी पहले ही पीछे छोड़ दिया है. नेचर इंडेक्स द्वारा जिन दस प्रमुख संस्थानों की पत्रिकाओं में प्रकाशनों का मूल्यांकन किया जाता है, उनमें से सात चीनी संस्थान हैं.

लगभग 20,000 वैज्ञानिक संस्थान होने के बावजूद, पश्चिमी देशों के लिए यह स्थिति कमजोर नजर आती है. हालांकि, अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी अभी भी नेचर रैंकिंग में पहले स्थान पर है, लेकिन दूसरे से लेकर नौवें स्थान तक सिर्फ चीनी विश्वविद्यालय ही काबिज हैं. अमेरिका का मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) दसवें स्थान पर है.

चीन अनुसंधान में आगे क्यों बढ़ रहा है

चीन ने विज्ञान के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश किया है. इसे अपनी विकास रणनीति का मुख्य आधार बना दिया है. देश अब अपने शोध कार्य को अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए ज्यादा खोल रहा है और इस साझेदारी को सक्रिय रूप से व्यवस्थित कर रहा है. चीनी छात्रों और वैज्ञानिकों को दुनिया भर में काम करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. इसी रणनीति के दम पर, वैश्विक सहयोग का एक मजबूत नेटवर्क तैयार हुआ है.

चीन खासकर तकनीकी उद्योगों में भारी निवेश कर रहा है. वह अपनी बुनियादी ढांचा परियोजना, ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव' (बीआरआई) का इस्तेमाल शिक्षा के निर्यात के लिए भी कर रहा है. इस रणनीति के तहत, अरबों डॉलर खर्च करके वैश्विक प्रतिभाओं को चीन की ओर आकर्षित किया जा रहा है और दुनिया भर में कनेक्शन बनाए जा रहे हैं. पीएनएएस अध्ययन के मुताबिक, विज्ञान कूटनीति का जानबूझकर एक हथियार की तरह उपयोग किया जा रहा है.

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चीनी सिस्टम की ताकत और कमजोरियां

तेजी, रणनीतिक निवेश और केंद्रीय रूप से नियंत्रित नेटवर्क चीन की ताकत हैं. यही कारण है कि इंजीनियरिंग, इलेक्ट्रॉनिक्स, मटीरियल साइंस, भौतिकी और रसायन विज्ञान जैसे क्षेत्रों में चीन के शोध नतीजे ना सिर्फ बेहतरीन हैं, बल्कि उन्हें वैश्विक स्तर पर सबसे ज्यादा मान्यता (हाई साइटेशन रेट) भी मिलती है.

हालांकि, संस्थानों द्वारा सख्त केंद्रीय नियंत्रण के सिर्फ फायदे ही नहीं हैं. शोध के कई क्षेत्रों में चीन के पास मौलिक और असाधारण खोजों की कमी है. साथ ही, वहां विज्ञान में पूरी तरह से आजादी का भी अभाव है.

सफलता को तो नियंत्रित तरीके से आगे बढ़ाया जा सकता है, लेकिन रचनात्मकता को नहीं. इस संबंध में, अमेरिका अभी भी चीन और यूरोप की तुलना में काफी आगे है, क्योंकि वहां की नई खोज और इनोवेशन की संस्कृति विकेंद्रीकृत है और कंपनियों द्वारा संचालित होती है.

इसके अलावा, अंतरराष्ट्रीय शोध सहयोग के लिए समय मुश्किल होता जा रहा है. अमेरिका और यूरोप, चीन को एक रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखते हैं. हाल ही में हुए भू-राजनीतिक और आर्थिक बदलावों ने आपसी संबंधों को बेहतर बनाने में कोई सहायता नहीं की है, जिससे यह सहयोग और भी मुश्किल हो गया है.

एआई के क्षेत्र में वर्चस्व के लिए चीन और अमेरिका के बीच होड़

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के मामले में अमेरिका अब भी सबसे आगे है, लेकिन चीन भी तेजी से आगे बढ़ रहा है. डीपसीक लैंग्वेज मॉडल इस बात का प्रमाण है कि चीनी कंपनियां कितनी तेजी से और कम लागत पर तकनीक को बाजार में उतार सकती हैं. हालांकि, इस क्षेत्र में भी हार्वर्ड अभी इनोवेशन का नेतृत्व कर रहा है, लेकिन चीन के शैक्षणिक संस्थान तेज रफ्तार से उसके करीब पहुंच रहे हैं.

आज, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के पेटेंट आवेदनों में मुख्य भूमिका चीन निभा रहा है. अमेरिका अभी भी अच्छी गति बनाए हुए है, लेकिन जब वैश्विक स्तर पर तुलना की जाती है, तो यूरोप के सर्वश्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थान भी अक्सर काफी पीछे छूट जाते हैं.

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क्यों पिछड़ रहा है अमेरिका और यूरोप?

चीन का उदय ऐसे समय में हुआ है, जब अमेरिका और यूरोप कमजोर पड़ रहे हैं. अमेरिका का शोध क्षेत्र राजनीतिक अस्थिरता, बजट में कटौती और सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं के देश छोड़कर जाने के कारण संकट का सामना कर रहा है.

अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की ओर से खर्च में कटौती के उपायों और दोनों महाशक्तियों के बीच खुले तौर पर  बढ़ते मतभेद का सीधा असर देखने को मिला है. इससे संयुक्त शोध परियोजनाओं में जबरदस्त कमी आई है. शीर्ष वैज्ञानिक प्रतिभाएं अब अमेरिका से चीन की ओर रुख कर रही हैं.

चूंकि अमेरिका में अब सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं का उचित स्वागत नहीं हो रहा है, इसलिए यूरोप इस अवसर का लाभ उठा सकता है. वह अमेरिका और दुनिया के अन्य हिस्सों से आने वाली इन प्रतिभाओं को आकर्षित कर सकता है.

हालांकि, यूरोप के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि विज्ञान से जुड़े कई क्षेत्रों में उसके पास बहुत ज्यादा बैकलॉग है, यानी बहुत सारे काम अधूरे पड़े हैं. इससे भी बड़ी समस्या यह है कि राष्ट्रीय संवेदनशीलता या आपसी प्रतिबंधों के कारण यूरोपीय संघ के अंदर और यूरोप के शेष हिस्सों में भी बड़े बदलाव की कोशिशें अक्सर असफल हो जाती हैं.

शक्ति संतुलन को बदल रहा है चीन का तेजी से आगे बढ़ना

चीन का अविश्वसनीय और तेज गति से आगे बढ़ना, वैश्विक अर्थव्यवस्था और भू-राजनीतिक संतुलन को पूरी तरह से बदल रहा है. जहां चीन अब अंतरराष्ट्रीय शोध एजेंडे की दिशा तय कर रहा है, वहीं यूरोप भविष्य की प्रौद्योगिकियों की इस महत्वपूर्ण दौड़ में लगातार पिछड़ता जा रहा है.

ऐसे में एक विकल्प यह होगा कि कम से कम बराबरी बनाए रखने के लिए, चीनी टीमों के साथ जानबूझकर सहयोग किया जाए. हालांकि, वैज्ञानिक परिदृश्य में आ रहे बिखराव और बढ़ते भू-राजनीतिक तनावों पर चीन की सरकार कैसी प्रतिक्रिया देगी, यह एक अनसुलझा सवाल है.

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विविधता कोई कमजोरी नहीं है

इस बढ़ते बिखराव को रोकने का एक ठोस समाधान यह है कि यूरोप के देश अपने राष्ट्रीय हितों को दरकिनार करते हुए एक एकीकृत शक्ति के रूप में सामने आएं. यूरोप की भाषाओं, संस्कृतियों और परंपराओं की विविधता दरअसल उसकी कमजोरी नहीं, बल्कि ताकत है. यह विविधता उस तरह का इनोवेशन ला सकती है, जो एक ही रंग-रूप, संस्कृति या परंपराओं वाले देशों में संभव नहीं है.

"ज्ञान ही शक्ति है” के पुराने सिद्धांत को मानते हुए, यूरोप के लिए अब सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वह अपनी सांस्कृतिक और भाषाई विविधता का इस्तेमाल करके इनोवेशन की सबसे बड़ी शक्ति में बदल दे.

यूरोपीय शोध क्षेत्र (ईआरए) की निगरानी रिपोर्ट यह स्पष्ट करती है कि यूरोप के पास एक वैज्ञानिक महाशक्ति बनने की पूरी क्षमता है. यह क्षमता तभी साकार होगी जब वह एक लक्ष्य के साथ काम करे. साथ ही, सभी संसाधनों को एक मंच पर इकट्ठा करे, जिससे वह चीन और अमेरिका के साथ सीधे मुकाबला कर पाए.

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