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समाज

आर्थिक गलियारे में भटकते चीन और पाकिस्तान

राहुल मिश्र
६ अक्टूबर २०२१

चीन को अपनी आर्थिक दशा और कूटनीति का खेवनहार मान बैठे पाकिस्तान ने एक और बड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजना उसके नाम कर दी है.

Pakistan Gwadar | Premierminister Imran Khan bei Unterzeichnung Memorandum of Understanding mit China
तस्वीर: Pakistani Press Information Department/XinHua/picture alliance

चीन को अपनी आर्थिक दशा और कूटनीति का खेवनहार मान बैठे पाकिस्तान ने एक और बड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजना उसके नाम कर दी है. यह 'सबै भूमि गोपाल की' जैसी ही किसी प्रेरणा के चलते हुआ होगा कि कराची जैसे देश के सबसे प्रमुख शहर के ढांचागत विकास का जिम्मा भी अब पाकिस्तान सरकार ने चीन को दे दिया है.

कुछ ही दिनों पहले चीन और पाकिस्तान के बीच इस बात पर औपचारिक सहमति बनी है कि चीन पाकिस्तान के कराची शहर में करोड़ों डॉलर का निवेश करेगा. कराची कोस्टल कम्प्रेहैन्सिव डेवलपमेंट जोन नाम के इस प्रोजेक्ट को चीन और पाकिस्तान के बहुचर्चित चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे का हिस्सा बनाया जाएगा.

दिलचस्प है कि आर्थिक गलियारे से जुडी हर बड़ी घोषणा की तरह ही इस बार भी कराची पत्तन सम्बन्धी घोषणा को भी एक 'गेम चेंजर' की संज्ञा दी गयी. इस सन्दर्भ में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान का वक्तव्य भी काफी आशापूर्ण था.

क्या खेल बदलेगा सीपीईसी?

अपने ट्विटर सन्देश में इमरान ने कहा कि कराची में विकास की यह योजना एक गेम चेंजर है और इससे मछुआरों को समुद्री किनारों और उससे लगे क्षेत्रों को पर्यावरण के नजरिये से साफ रखने मदद मिलेगी. उन्होंने यह भी कहा कि इस प्रोजेक्ट से लगभग 20 हजार रिहायशी मकान बनाये जाएंगे और विदेशी निवेशकों को निवेश के नए अवसर भी मिलेंगे.

इमरान खान ने यह भी कहा कि कराची को अन्य विकसित पोर्ट वाले शहरों की कतार में भी लाया जाएगा. इमरान के ये बयान और वादे मनभावन तो हैं लेकिन वह पिछले तमाम वादों की तरह मनभावन ही न रह जाएं, ऐसी चिंता तो बहुतों को होगी.

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आज से छह से अधिक साल पहले अप्रैल 2015 में तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने 51 समझौतों पर हस्ताक्षर और 46 बिलियन अमेरिकी डॉलर की परियोजनाओं के साथ चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे या सीपीईसी की घोषणा की थी.

उस वक्त अधिकांश जानकारों को यही लगा जैसे पाकिस्तान के हाथ कोई ब्रह्मास्त्र लग गया है जिससे एक तरफ वह अपने घरेलू इंफ्रास्ट्रक्चर को सुधार कर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाएगा तो वहीं चीन के साथ गठबंधन कर भारत को भी एक नई और बड़ी चुनौती पेश कर सकेगा.

बीआरई का हश्र?

चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा सीधे तौर पर भारत के हितों को प्रभावित करता है, क्योंकि यह भारत और पाकिस्तान के बीच उस विवादित क्षेत्र से होकर गुजरता है जिसे भारत पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की संज्ञा देता है. चीन के बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) का उद्घाटन सीपीईसी परियोजना के लॉन्च के साथ ही हुआ था. भारत ने इसे अपनी संप्रभुता, आर्थिक हितों और क्षेत्र में राजनयिक दबदबे के लिए एक खतरे के रूप में देखा था.

उम्मीद की लौ वास्तविकता के अंधेरे को चीर न सकी और तमाम वादों-इरादों के बावजूद सीपीईसी सुस्त-चाल कछुआ ही साबित हुआ. हालांकि इस कछुए के जीतने की उम्मीद इमरान खान सरकार को अभी भी है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है.

निवेश और इंफ्रास्ट्रक्चर विकास की परियोजनाएं तो बड़े-बड़े देशों में पटरी से उतर जाती हैं, पाकिस्तान तो फिर भी 'ईज ऑफ डूइंग बिज़नेस' रैंकिंग में 190 देशों की सूची में 108वें पायदान पर है. गौरतलब है कि भारत का इस सूची में 63वां स्थान है.

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कराची को सीपीईसी में जोड़ने के पाकिस्तान सरकार के इस कदम से यह बात साफ है कि चीन और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा न सिर्फ पाकिस्तान की तरक्की की सबसे बड़ी उम्मीद है बल्कि शायद अब यह इकलौती उम्मीद भी है. हाल में पाकिस्तान के तालिबान को भी चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे में जोड़ने के प्रस्ताव से यह बात और साफ हो जाती है.

पाकिस्तान अब तालिबान के नेतृत्व वाले अफगानिस्तान को सीपीईसी परियोजना में शामिल करने की कोशिश कर रहा है. यह दिलचस्प है कि जहां चीन अपने निवेश की अधिक सुरक्षा और सुरक्षा की तलाश में है, तो वहीं पाकिस्तान अपने दोस्त तालिबान को शामिल करने का इच्छुक है.

तालिबान से दोस्ताना संबंधों और उसे अंतरराष्ट्रीय समर्थन दिलाने के उद्देश्य के अलावा पाकिस्तान इस बात से भी अच्छी तरह वाकिफ है कि बिना तालिबान के मुखर और पूरे समर्थन के चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को सुचारू रूप से चला पाना बहुत कठिन होगा.

कहीं न कहीं चीन भी इस बात से वाकिफ है और यही वजह है कि चीन भी तालिबान के साथ बातचीत और सहयोग के रास्ते पर उम्मीद लगा कर बैठा है. चीन भी अच्छी तरह से जानता है कि परियोजना की सुरक्षा तालिबान पर भी निर्भर करती है. आखिरकार पैसे तो चीन ने भी लगाए हैं.

चीन और पाकिस्तान के बीच इस गेम चेंजर आर्थिक गलियारे के सपने पिछले छह सालों में भ्रष्टाचार, नौकरशाही की मनमानी, पाकिस्तानी एजेंसियों और उनके चीनी समकक्षों के बीच समन्वय की कमी और लचर कानून-व्यवस्था के शिकार हुए हैं. अलगाववादी गुटों की हिंसक कार्रवाइयों ने भी सीपीईसी को कमजोर किया है. ऐसे में चीन का बेचैन होना लाजमी है.

तालिबान की दोस्ती?

पाकिस्तान पर तालिबान का बढ़ता प्रभाव, विशेष रूप से तालिबानी कट्टरपंथ को पाकिस्तान का समर्थन चीन के लिए खास अच्छी खबर नहीं है.

तालिबान जैसे कट्टरपंथी संगठनों की न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी - शायद यह बाद धीरे-धीरे चीन को समझ में आ ही जाएगी. लेकिन इस प्रक्रिया में तालिबान का प्रभाव और उसकी मौजूदगी का असर चीनी परियोजनाओं पर दिखेगा. खास तौर पर चीन की सीमा से लगे दूरदराज के क्षेत्रों में.

अफगानिस्तान में तालिबान 2.0 के उदय से भारत, ईरान और रूस ही नहीं चीन और खाड़ी के देश भी चिंतित हैं. फिलहाल तो चीन ने तालिबान से मेल-मिलाप की कोशिशें शुरू कर दी हैं लेकिन इनका मूर्त रूप लेना बाकी है. चीन पेसोपेश में है क्योंकि तालिबान को मान्यता देने वाले चंद देशों में से वह सबसे बड़ी ताकत है.

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वैसे तो तालिबान को वैधता प्रदान करना बीजिंग के सुरक्षा हितों को पूरा करता है. चीन शिनजियांग पर तालिबान के आने के स्पिलओवर प्रभावों के बारे में अधिक चिंतित है और चाहेगा कि पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट की गतिविधियों पर अंकुश लगाने में तालिबान का समर्थन मिले.

कट्टरवादी तालिबान का ध्यान चीन के शिनजियांग में उइगर मुसलामानों पर हो रही ज्यादतियों पर कब जाएगा यह कहना मुश्किल है लेकिन कभी न कभी खुद को वैश्विक जिहाद का मुखिया कहने वाले तालिबान पर यह सवाल घूम फिर कर जरूर आएगा और वह स्थिति चीन के लिए अच्छी नहीं होगी.

तालिबान को वैधता प्रदान करने का चीन का निर्णय जहां सीधे तौर पर अपने पश्चिमी इलाके में उसकी सुरक्षा चिंताओं से जुड़ा है, वहीं तालिबान ने भी सीपीईसी का हिस्सा बनने की इच्छा व्यक्त की है

अगर तालिबान चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे में साझीदार बनता है और इन परियोजनाओं में भाग लेता है, तो यह आर्थिक गलियारे के लिए शॉर्ट-टर्म में तो फायदेमंद हो सकता है लेकिन इसके दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं होंगे.

एक कट्टरपंथी संगठन के साथ हाथ मिलाने से चीन की बेल्ट और रोड परियोजना पर नियमबद्ध अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था से जुड़े तमाम सवाल खड़े होंगे जिनका जवाब देना आसान नहीं होगा. और अगर ये परियोजनाएं असफल हुईं तो उनके परिणाम भोगने के लिए भी चीन और पाकिस्तान को तैयार रहना होगा.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं.)

 

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