चीन की चुनौतीः पर्याप्त बच्चे नहीं पैदा कर रहे लोग
११ मई २०२१
चीन की आबादी बढ़ने की दर 2011-20 के दशक में न्यूनतम रही है जिसके बाद अधिकारियों पर दबाव बढ़ रहा है कि लोगों को बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए ताकि वृद्धि दर को नकारात्मक होने से बचाया जा सके.
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1970 के दशक में चीन ने एक बच्चे की नीति लागू की थी जिसके बाद से जनसंख्या वृद्धि की दर कम होती रही है. लेकिन 2011 से 2020 के दशक के आंकड़े बताते हैं कि अब यह ऐतिहासिक रूप से न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है. मंगलवार को जारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले दशक में चीन की जनसंख्या 5.38 प्रतिशत बढ़कर एक अरब 41 करोड़ हो गई है. 2010 में यह 5.84 फीसदी बढ़ी थी.
लक्ष्य से चूका चीन
2016 में चीन ने 2020 तक आबादी को 1.42 अरब ले जाने का लक्ष्य तय किया था जिससे वह चूक गया है. 2016 में चीन ने एक बच्चे की नीति को बदलकर प्रति परिवार बच्चों की संख्या दो कर दी थी. हाल के महीनों में देश का सरकारी मीडिया आबादी के सिकुड़ने की आशंकाएं जताता रहा है. संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 2030 तक चीन की आबादी बढ़ती रहेगी और अपने चरम पर पहुंच जाएगी, जिसके बाद उसमें कमी होनी शुरू होगी. लेकिन अप्रैल में फाइनैंशल टाइम्स अखबार ने चीनी अधिकारियों के हवाले से खबर दी थी कि देश की जनसंख्या 2020 में पिछले साल के मुकाबले कम हुई है.
चीन में जनसंख्या एक बड़ा मुद्दा रही है क्योंकि देश की आर्थिक वृद्धि इससे सीधे जुड़ी हुई है. हालांकि ताजा जनगणना में एक सकारात्मक बात यह है कि किशोरों की संख्या आश्चर्यजनक रूप से बढ़ी है. देश की कुल आबादी के 17.95 प्रतिशत 14 या उससे कम साल के हैं. 2010 में उनकी संख्या 16.6 प्रतिशत थी.
घटती जन्मदर
2016 से 2019 के बीच चीन की सालाना जन्मदर कमोबेश घटती ही रही है. हालांकि चीन ने 2020 की जन्मदर सार्वजनिक नहीं की है लेकिन 2016 को छोड़ दें तो हर साल इसमें कमी हुई है. बीजिंग स्थित सेंटर फॉर चाइना एंड ग्लोबलाइजेशन में जनसांख्यिकी विशेषज्ञ हुआंग वेनजेंग कहते हैं कि सबूत जन्मदर में तेज कमी की ओर संकेत कर रहे हैं. वह कहते हैं, "चीन में जन्मदर घट रही है, यह जानने के लिए जनगणना के आंकड़ों की जरूरत नहीं है. अगर 2020 में जन्मदर नहीं भी घटी होगी तो 2021 या 2022 में ऐसा होना तय है.”
चीन के बड़े शहरों में जीवन-यापन बेहद महंगा हुआ है जिस कारण यहां रहने वाले युवा अब बच्चे पैदा करने में झिझकने लगे हैं. 2005 में एक सरकारी थिंकटैंक ने एक रिपोर्ट जारी की थी जिसके मुताबिक एक सामान्य परिवार के लिए चीन में बच्चे के लालन-पालन का खर्च 4,90,000 युआन (55 लाख रुपये) था. 2020 में स्थानीय मीडिया ने बताया कि यह खर्च चार गुना तक बढ़ चुका है.
इसी साल अप्रैल में शादी करने वाली 26 वर्षीय इंश्योरेंस प्रोफेशनल ऐनी जैंग कहती हैं, "मेरी उम्र की महिलाओं के लिए बच्चा पैदा करना करियर के लिए बड़ा धक्का होता है. दूसरी बात है कि बच्चे को पालना बेहद महंगा है. जन्म के फौरन बाद आप अपनी आजादी को विदा कर सकते हैं.”
वीके/एए (रॉयटर्स)
यहां आदमियों की नहीं औरतों की चलती है
पितृसत्तात्मक माने जाने वाले एशियाई समाज में कुछ ऐसी भी जगहें और समुदाय हैं, जहां महिलाओं के पास पुरुषों जैसे ही अधिकार हैं. महिलाओं के आवाज बुलंद है और फैसलों में भी इनकी समान भागदारी है.
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समान हक
मातृसत्तात्मक समाज में ऐसा अक्सर देखा जाता है कि घरों की जिम्मेदारी महिलाओं के पास होती है. जायदाद पर मालिकाना हक महिलाओं का होता है और वे इसे अपनी बेटियों को देती हैं. यहां पति शादी कर महिला के घर में रहने जाते हैं. वहीं पुरूषों के पास राजनीतिक और सामाजिक मसलों पर निर्णय लेने का हक होता है. ऐसी व्यवस्था को यहां शक्तियों का सही बंटवारा माना जाता है.
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खासी (भारत)
पूर्वोत्तर के खासी समुदाय में लड़की का जन्म जश्न का मौका होता है और वहीं लड़का पैदा होना एक साधारण बात. आमतौर पर परिवार की बड़ी बेटी का परिवार की विरासत पर हक होता है. अगर किसी दंपत्ति के बेटी नहीं होती तो वे लड़की गोद लेकर अपनी जायदाद उसे सौंप सकते हैं. खासी समुदाय की इस प्रथा के चलते काफी पुरूषों ने अपने हकों के लिये नये समुदाय बना लिये हैं.
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चाम (दक्षिण भारत)
कंबोडिया, वियतनाम और थाईलैंड में भी दक्षिण भारत के चाम समुदाय की मान्यतायें बहुत अधिक प्रचलित हैं. चाम समुदाय भी मातृसत्तात्मक व्यवस्था पर विश्वास करता है और परिवार की जायदाद भी महिलाओं को मिलती है. यहां की लड़कियों को अपने लिये पति चुनने का भी अधिकार है. आमतौर पर लड़की के मां-बाप लड़के के परिवार से बात करते हैं और शादी के बाद लड़के ज्यादातर लड़की के परिवार क साथ रहने जाते हैं.
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गारो (भारत)
गारो समुदाय में मां शब्द एक पदवी की तरह है. परिवार कि सबसे छोटी बेटी को मां अपनी पारिवारिक जायदाद सौंपती है. पहले किशोरावस्था में लड़के अपने माता-पिता का घर छोड़कर गांव की डॉर्मेटरी में रहने चले जाते थे. लेकिन ईसाई धर्म का प्रभाव इन पर पड़ा और अब समुदाय में भी मां-बाप अपने बच्चों को बराबरी के अधिकार और माहौल दे रहे हैं.
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मोस (चीन)
मोस समुदाय में लोग महिलाओं के नेतृत्व वाले बड़े परिवारों में रहते हैं. इस समुदाय में पति और पिता जैसे कोई मसला ही नहीं है. यहां के लोग चलते-फिरते विवाह (वाकिंग मैरिज) पर भरोसा करते हैं, जहां पुरूष महिलाओं से मिलने जा सकते हैं, रूक सकते हैं लेकिन यहां लोग साथ नहीं रहते. इन शादियों से पैदा हुये बच्चों को पालने की जिम्मेदारी महिलाओं पर होती है. जैविक पिता की बच्चों को पालने में कोई भूमिका नहीं होती.
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मिनांगकाबाऊ (इंडोनेशिया)
करीब 40 लाख की आबादी वाले इंडोनेशिया के इस समुदाय को विश्व का सबसे बड़ा मातृसत्तात्मक समाज कहा जाता है. मूल रूप से इन्हें जीववादी (एनिमिस्ट) माना जाता था लेकिन हिंदु और बौद्ध धर्म का इन पर काफी असर पड़ा, कई लोगों ने इस्लाम भी अपना लिया. ये अपने समाज को कुरान पर आधारित मानते हैं, जो महिलाओं को जायदाद पर अधिकार देने और सामुदायिक निर्णय लेने से नहीं रोकता.
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छोड़ी पुरानी रीतियां
आज इन मातृसत्तात्मक समाजों में भी बदलाव महसूस किया जा रहा है. ये समाज भी बदल रहा है और नये रीति-रिवाजों को अपना रहा है. कुछ समुदायों में पुरूषों ने अपने हक के लिये आवाजें उठाईं हैं और अब वे ऐसी परंपराओं की खिलाफत कर रहे हैं. रिपोर्ट- ब्रेंडा हास/एए