बदलते मौसम के खिलाफ नई किस्में आजमा रहे हैं भारतीय किसान
२४ जून २०२४
भारतीय किसान जलवायु परिवर्तन के असर से बचने के लिए गेहूं की नई किस्में आजमा रहे हैं. मौसमी आपदाओं के मारे किसानों के लिए ये नई किस्में बड़ी राहत ला सकती हैं.
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जब सारे रास्ते बंद हो जाएंगे, तब भी सतवीर सिंह को इस बात की तसल्ली रहेगी कि घर में इतना आटा होगा कि परिवार को रोटी मिल सके. इसके लिए उनका परिवार कुछ हद तक तो सरकार की ओर से मिलने वाले मुफ्त अनाज पर निर्भर है.
दिल्ली के पास गेजा गांव के अपने घर में एक कोने में रखी गेहूं की बोरियों की ओर इशारा करते हुए सतवीर सिंह कहते हैं, "यह काफी नहीं है, लेकिन जब हाथ तंग होता है तो इससे बड़ी मदद मिल जाती है.”
लेकिन गेहूं की यह सप्लाई हमेशा संतुलित नहीं रहती है. एक-दो साल पहले गेहूं की जगह सरकार ने चावल देना शुरू कर दिया था. चूंकि सतवीर सिंह का परिवार चावल ज्यादा नहीं खाता है, इसलिए वह इससे ज्यादा खुश नहीं थे.
ये खाएं - सेहत और दुनिया दोनों बचाएं
2050 तक दुनिया की आबादी दस अरब को पार कर जाएगी. ऐसे में खाने की आदतें ना बदलीं तो खाना उगाना ही मुश्किल हो जाएगा. इसलिए जरूरी है कि खाने के ऐसे विकल्पों को चुना जाए जो सेहत के लिए भी अच्छे हैं और पर्यावरण के लिए भी.
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बदलें अपनी आदतें
दुनिया भर में सबसे ज्यादा खेती गेहूं, चावल और मक्के की होती है. जाहिर है, ऐसा इसलिए क्योंकि इनकी खपत भी सबसे ज्यादा है. लेकिन जिस तेजी से दुनिया की आबादी बढ़ रही है, कुछ दशकों में सभी को गेहूं-चावल मुहैया कराना मुमकिन नहीं रह जाएगा. संयुक्त राष्ट्र की संस्था WWF ने कुछ ऐसी चीजों की सूची जारी की है जिनसे हम कुदरत को होने वाले नुकसान को कम कर सकते हैं.
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नारंगी टमाटर
क्या जरूरी है कि टमाटर लाल ही हो? दुनिया भर में उगने वाली सब्जियों की सूची में लाल टमाटर सबसे ऊपर है. लेकिन नारंगी टमाटर सेहत और पर्यावरण दोनों के लिहाज से बेहतर हैं. इनमें विटामिन ए और फोलेट की मात्रा लगभग दोगुना होती है और एसिड आधा. स्वाद में ये लाल टमाटरों से ज्यादा मीठे होते हैं.
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अखरोट
इंसान 10,000 सालों से अखरोट खाता आया है और आगे भी इसे खाता रह सकता है. बादाम इत्यादि की तुलना में अखरोट में प्रोटीन, विटामिन और मिनरल ज्यादा होते हैं. ये विटामिन ई और ओमेगा 3 फैटी एसिड का अच्छा स्रोत होते हैं.
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कुट्टू
भारत में इसे व्रत के दौरान खाया जाता है. कुछ लोग कुट्टू के आटे की रोटी बनाते हैं, तो कुछ इसकी खिचड़ी. पश्चिमी दुनिया में अब इसे सुपरफूड बताया जा रहा है और गेहूं का एक बेहतरीन विकल्प भी. सुपरमार्केट में अब बकवीट यानी कुट्टू से बनी ब्रेड और पास्ता भी बिक रहे हैं.
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दालें
इंसान ने जब खेती करना शुरू किया तब तरह तरह की दालें उगाईं. आज जितनी तरह की दालें भारत में खाई जाती हैं, उतनी शायद ही किसी और देश में मिलती हों. शाकाहारी लोगों के लिए ये प्रोटीन का बेहतरीन स्रोत हैं. मीट की तुलना में दालें उगाने पर 43 गुना कम पानी खर्च होता है.
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फलियां
इन्हें उपजाने से जमीन की गुणवत्ता बेहतर होती है. ये जंगली घास को दूर रखती है, इसलिए अन्य फसलों के साथ इसे लगाने से फायदा मिलता है. साथ ही ये मधुमक्खियों को भी खूब आकर्षित करती हैं. सेहत के लिहाज से देखा जाए तो ये फाइबर से भरपूर होती हैं.
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कैक्टस
ये सब जगह तो नहीं मिलता, इसलिए हर कहीं खाया भी नहीं जाता. लेकिन वक्त के साथ इसकी मांग बढ़ रही है. इसके फल को भी खाया जा सकता है, फूल को भी और पत्तों को भी. सिर्फ इंसान के खाने के लिए ही नहीं, जानवर के चारे के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जा सकता है और बायोगैस बनाने के लिए भी.
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टेफ
भारत में अब तक इस अनाज का इस्तेमाल शुरू नहीं हुआ है. मूल रूप से यह इथियोपिया में मिलता है जहां इसका आटा बनाया जाता है और फिर डोसे जैसी रोटी बनाई जाती है जिसे वहां इंजेरा कहते हैं. हाल के सालों में यूरोप और अमेरिका में इसकी मांग बढ़ी है. यह ऐसा अनाज है जिस पर आसानी से कीड़ा नहीं लगता. यह सूखे में भी उग सकता है और ज्यादा बरसात होने पर भी.
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अलसी
कहते हैं रोज एक चम्मच अलसी के बीज खाने चाहिए. इससे पेट भी साफ रहता है और खून में वसा और चीनी की मात्रा भी नियंत्रित रहती है. यूरोप में ऐसे कई शोध चल रहे हैं जिनके तहत प्रोसेस्ड फूड में गेहूं की जगह अलसी के आटे के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा रहा है, खास कर केक और मफिन जैसी चीजों में.
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राजमा
इनका जितना इस्तेमाल उत्तर भारत में होता है, उतना ही मेक्सिको और अन्य लातिन अमेरिकी देशों में भी. अगर इन्हें अंकुरित कर खाया जाए तो इनमें मौजूद पोषक तत्व तीन गुना बढ़ जाते हैं. ये प्रोटीन से भरपूर होते हैं और इसलिए मीट का एक अच्छा विकल्प भी.
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कमल ककड़ी
एशियाई देशों में इसका खूब इस्तेमाल होता है. कमल के पौधे की इसमें खास बात होती है कि उसे बहुत ज्यादा रखरखाव की जरूरत नहीं होती. इसे थोड़े ही पानी की जरूरत होती है और इसलिए पर्यावरण के लिए यह एक कमाल का पौधा है.
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उस बदलाव की वजह थी 2022 की गर्मियां. उस साल गर्मियां समय से पहले आ गईं और गेहूं उगाने वाले क्षेत्रों में फसल को बहुत नुकसान पहुंचा. इस कारण सरकार को गेहूं का निर्यात रोकना पड़ा और राशन के तहत मिलने वाली गेहूं की मात्रा में भी कटौती करनी पड़ी.
एक साल बाद फिर वैसा ही हुआ. इस साल भी हालात कुछ अलग नहीं हैं. सरकारी अनुमान है कि इस साल गेहूं का उत्पादन पहले के 11.2 करोड़ मीट्रिक टन से 6.25 फीसदी कम हो सकता है. इसका असर यह होगा कि छह साल में पहली बार भारत को गेहूं आयात करना पड़ सकता है.
जलवायु परिवर्तन का असर
असल में यह जलवायु परिवर्तन का असर है. गर्मी की तीव्रता बढ़ी है, सूखे और बाढ़ आने की घटनाओं में भी वृद्धि हुई है. इस कारण भारत ही नहीं, बल्कि अन्य देशों में भी कृषि क्षेत्र प्रभावित हो रहा है और खाद्य सुरक्षा पर खतरे बढ़े हैं. यही वजह है कि ऐसी फसलें शुरू करने पर जोर बढ़ रहा है, जो इन मौसमी बदलावों को झेल सकें.
दुनिया के दूसरे सबसे बड़े गेहूं उत्पादक देश भारत में सरकारी शोध संस्थान, विश्वविद्यालय और अन्य जगहों पर काम करने वाले वैज्ञानिकों में ऐसी किस्में विकसित करने की होड़ मची है, जो जलवायु परिवर्तन के असर से सुरक्षित हों. लगभग डेढ़ अरब की आबादी वाले देश के लिए यह एक बेहद महत्वपूर्ण सवाल है.
रेगिस्तान में गेहूं उगा रहे हैं इराकी
इराक के किसान नजफ के रेगिस्तान में गेहूं की खेती कर रहे हैं. दो ही साल में खेती की जमीन दोगुनी हो गई है. कैसे हो रही है रेगिस्तान में खेती?
तस्वीर: Thaier Al-Sudani/REUTERS
रेगिस्तान में गेहूं की खेती
अमीन सालाह पहले इराक की फरात नदी के किनारे गेहूं की खेती करते थे. लेकिन लगातार पड़ते सूखे ने उन्हें जगह बदलने को मजबूर कर दिया. अब वह नजफ के रेगिस्तान में खेती करते हैं.
तस्वीर: Thaier Al-Sudani/REUTERS
कुएं और फव्वारे
रेगिस्तान में, जहां पानी नहीं है, वहां खेती के लिए नया उपाय निकाला गया है. 300 फुट गहरे कुएं खोदे गए हैं और उनमें फव्वारे लगाए गए हैं.
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बेहतर हुई खेती
सालाह कहते हैं कि फव्वारों से सिंचाई सस्ता माध्यम है. दो साल पहले उन्हें विभाग से यह सिस्टम मिला था और इसने बहुत पानी बचाया है. साथ ही गेहूं की गुणवत्ता भी बेहतर हुई है.
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दोगुने हुए खेत
इराक सरकार का कहना है कि इस तकनीक के दम पर 2022 के बाद से कृषि क्षेत्र दोगुना हो गया है. रेगिस्तानी इलाकों में खेती से खेती की जमीन बढ़ गई है.
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समस्याएं भी हैं
हालांकि इस तकनीक की अपनी समस्याएं भी हैं. अगर भूमिगत जल का इस्तेमाल किया जाएगा तो रेगिस्तान के सोते सूख जाएंगे और अन्य जगहों पर भी पानी की कमी हो सकती है.
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कंसल्टेटिव ग्रुप ऑन इंटरनेशनल एग्रीकल्चरल रिसर्च (सीजीआईएआर) नामक संगठन में जलवायु परिवर्तन पर काम करने वालीं अदिति मुखर्जी कहती हैं कि पारंपरिक रूप से कृषि में होने वाला शोध फसल बढ़ाने पर केंद्रित रहता है, लेकिन अब यह काफी नहीं है.
मुखर्जी बताती हैं, "अब हमें ऐसे बीजों की जरूरत है, जो अधिक तापमान झेल सकें, जिन पर सूखे का असर ना हो और ऐसे ही मौसमी बदलाव को झेलने वाले गुण रखते हों.”
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हो सकती है गेहूं की कमी
उत्तरी हरियाणा के रंबा गांव में अपने 20 एकड़ के खेत में गेहूं उगाने वाले सुक्खा सिंह जैसे किसान ऐसी बीजों का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं. हाल के सालों में इन किसानों ने मौसमी कारणों से बड़ा नुकसान झेला है.
मार्च 2022 में जब हरियाणा, पंजाब और आसपास के अन्य इलाकों में ताप लहर चली थी तो सुक्खा सिंह की एक तिहाई फसल बर्बाद हो गई थी. वह बताते हैं, "गेहूं हमारी मुख्य फसल है. इसमें किसी भी तरह का नुकसान सीधा हमारी आय को प्रभावित करता है. उस झटके से उबरने में दो साल तक लग जाते हैं.”
हाल ही में हुए कई अध्ययनों में यह बात सामने आई कि जलवायु परिवर्तन के कारण 2050 तक गेहूं के उत्पादन में 30 फीसदी की कमी आ सकती है. इसका सीधा असर भारत जैसे बड़े निर्यातकों पर पड़ेगा और कीमतें भी बढ़ेंगी.
भारत में बढ़ते तापमान और घटती बारिश के कारण 2035 तक ही गेहूं का उत्पादन आठ फीसदी तक घट सकता है. सदी के आखिर तक यह गिरावट 20 फीसदी तक भी जा सकती है. यही वजह है कि पिछले दो साल से लगातार फसलों का नुकसान झेल रहे किसान अब बेहतर बीजों की मांग कर रहे हैं.
ऐसे बीज मिलना आसान नहीं होता क्योंकि स्थानीय बीज विक्रेताओं के पास इनकी हमेशा कमी रहती है. सुक्खा सिंह इस मामले में किस्मत वाले रहे. वह कहते हैं, "भाग्य से एक (डीलर) के पास वे बीज तभी आए थे.”
भारत में विकसित हो रही हैं नई किस्में
इन बीजों को इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ व्हीट एंड बार्ली रिसर्च (आईआईडब्ल्यूबीआर) ने विकसित किया है. ये बीज अधिक तापमान और बेमौसम बारिश को झेलने में ज्यादा सक्षम हैं और वैज्ञानिकों का दावा है कि इनसे फसल भी ज्यादा होगी.
गेहूं की इस खास किस्म से साल में छह पैदावार
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2023 में जब हरियाणा के अन्य किसानों की पैदावार कम हुई, तब सुक्खा सिंह के खेतों में 25 क्विंटल प्रति एकड़ गेहूं की पैदावार हुई, जो औसत से ज्यादा थी. इसका श्रेय वह नए बीजों को देते हैं. वह बताते हैं, "देश की खाद्य सुरक्षा और करोड़ों किसानों की आय की सुरक्षा में ये बीज बचाव की पहली पंक्ति हैं.”
ये हाइब्रिड किस्में खाद्य संकट से निपटने के लिए बड़ी उम्मीद माने जा रहे हैं. इस वक्त भारत में गेहूं की 70 से ज्यादा ऐसी किस्में विकसित की जा रही हैं, जो जलवायु परिवर्तन के खिलाफ ज्यादा मजबूत हैं और देश में मिट्टी और मौसम की विविधता में भी कामयाब हो सकते हैं. आईआईडब्ल्यूबीआर के निदेशक ज्ञानेंद्र प्रताप सिंह कहते हैं, "ये नई किस्में गेहूं को गर्मी, सूखे, पानी के जमाव और बीमारियों से बचा सकती हैं.”