भारत में सरना धर्म की मान्यता के लिए जोर पकड़ता आंदोलन
२३ नवम्बर २०२२
भारत में आदिवासियों का एक समुदाय अलग धर्म के रूप में दर्जा पाने की मांग कर रहा है. सरना धर्म के लोगों की यह मांग एक आंदोलन में तब्दील हो रही है.
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ढोल-नगाड़ों के साथ अनुष्ठान की शुरुआत हुई, जिनकी ध्वनि पूरे गांव में सुनी जा रही थी. रंग-बिरंगी साड़ियों में सजी महिलाओं ने इस ध्वनि पर पारंपरिक आदिवासी लोकनृत्य शुरू किया, तो दर्शकों के पांव भी थिरकने लगे.
आखिरी में मिट्टी की झोपड़ी से 12 श्रद्धालु निकले और एक दूसरी झोपड़ी की ओर चले, जहां देवी की मूर्ति रखी है. सरपंच गासिया मरांडा के नेतृत्व में इन श्रद्धालुओं के हाथों में पारंपरिक पवित्र प्रतीक थे. जैसे मटके, तीर-कमान, हाथों से बने पंखे और कुल्हाड़ियां.
टैटू के जरिए परंपरा जागरण
ट्यूनीशिया की एक टैटू आर्टिस्ट ने अपने हुनर को पारंपरिक डिजाइनों को फिर से जिंदा करने के लिए इस्तेमाल किया है. यह टैटू आर्टिस्ट इन डिजाइनों को नई पीढ़ी तक पहुंचा रही है.
तस्वीर: Jihed Abidellaoui/REUTERS
टैटू में इतिहास
ट्यूनीशिया की मानेल माहदुआनी टैटू आर्टिस्ट जब टैटू बनाती हैं तो वह सिर्फ एक आकृति नहीं बनातीं, वह अपने इतिहास और परंपरा को उकेर रही होती हैं.
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अमाजिग कला परंपरा
ट्यूनीशिया की अमाजिग कला परंपरा अब खत्म सी हो गई है. कभी ऐसा था कि सब लोगों के शरीर पर टैटू होते थे जो धीरे-धीरे आधुनिकता की भेंट चढ़ गए.
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गर्व की बात है
मानेल माहदुआनी कहती हैं कि जैसे माओरी और अन्य आदिवासी टैटू दुनियाभर में मशहूर हैं, वह अमाजिग टैटू को भी वही जगह दिलाना चाहती हैं. वह कहती हैं, “हमें इस पर गर्व होना चाहिए. यह छह हजार साल पुरानी कला है, कोई नई चीज नहीं है.”
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जड़ों से मिली प्रेरणा
माहदुआनी भी पहले सामान्य डिजाइन बनाती थीं लेकिन वह कुछ अलग करना चाहती थीं तो उन्होंने अपनी जड़ों की ओर रुख किया.
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युवाओं में लोकप्रियता
युवाओं में लोकप्रियता
माहदुआनी के काम का नतीजा यह निकला है कि युवा लोग अमाजिग कला परंपरा की ओर आकर्षित हो रहे हैं.
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चेहरों पर भी होते थे टैटू
अमाजिग, जिन्हें अक्सर ‘बेर्बर’ भी कहा जाता है, उत्तरी अफ्रीका के आदिवासी हैं. इस कबीले में टैटू एक अहम स्थान रखते हैं और पहले तो लोगों के चेहरों तक पर टैटू होते थे.
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पहचान थे टैटू
महिलाओं के हाथों और चेहरों पर टैटू होते थे जिनसे पता चलता था कि वे कहां की हैं, कहां पैदा हुईं और कहां ब्याही गईं. उनके पति और पिता के बारे में जानकारी भी इन टैटुओं में दर्ज होती थी.
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ओडिशा के सुदूर गुडुटा गांव में ये अनुष्ठान आदिवासियों के जीवन का अहम हिस्सा हैं. आदिवासी इन अनुष्ठानों को सरना धर्म का हिस्सा मानते हैं. यह वही प्रकृति पूजक मत है, जिसका दुनियाभर के कई आदिवासी समूहों में पालन किया जाता है. इन तमाम आदिवासियों की तरह भारत के जंगलों में बसा विशाल आदिवासी समुदाय प्रकृति की पूजा करता है. इसके लिए इन समुदायों के पास अपनी परंपराएं और अनुष्ठान हैं.
मरांडा कहते हैं कि पूरी प्रकृति में उनके देवता हैं. वह कहते हैं, "हमारे देवता हर तरफ हैं. हम अन्य जगहों की अपेक्षा प्रकृति की ओर देखते हैं.” बस उन्हें एक समस्या है. इस मत को कानूनन किसी धर्म का दर्जा नहीं मिला है और इस बात को लेकर आदिवासी समुदायों में बेचैनी देखी जा सकती है.
भारत में करीब 11 करोड़ आदिवासी हैं, जिनमें से लगभग 50 लाख सरना धर्म को मानते हैं. उनके बीच अपने इस मत यानी सरना धर्म को औपचारिक रूप से एक धर्म के रूप में मान्यता दिलाने का विचार धीरे-धीरे पांव पसार रहा है. उनका कहना है कि इस औपचारिक मान्यता से उन्हें अपनी संस्कृति और इतिहास के संरक्षण में मदद मिलेगी, क्योंकि आदिवासियों के अधिकार खतरे में हैं.
भारत में छह धर्मों को ही औपचारिक मान्यता मिली है. इनमें हिंदू, बौद्ध, ईसाइयत, इस्लाम, जैन और सिख धर्म हैं. इनके अलावा कोई व्यक्ति ‘अन्य' श्रेणी को भी अपना सकता है, लेकिन आमतौर पर अधिकतर प्रकृति-पूजक चाहे-अनचाहे इन छह में से ही किसी एक धर्म के साथ जुड़ते हैं. ये प्रकृति-पूजक अब अपने सरना धर्म को मान्यता दिलाने के लिए सड़कों पर भी उतर रहे हैं. इनकी कोशिश है कि अगली जनगणना में उन्हें धर्म के रूप में अलग से गिना जाए.
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मान्यता के लिए अभियान
इस साल द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने के बाद से इस अभियान को और बल मिला है. द्रौपदी मुर्मू भारत की पहली महिला आदिवासी हैं, जो सर्वोच्च पद पर पहुंची हैं. वह खुद को देश के 11 करोड़ आदिवासियों के उत्साह के प्रतीक के रूप में पेश करती हैं. ये आदिवासी देश के अलग-अलग हिस्सों में छितरे हुए हैं. समुदायों में सैकड़ों कबीलों, भाषाओं, परंपराओं और मान्यताओं को लेकर बंटवारा भी है. इसलिए सभी सरना धर्म नहीं मानते.
पूर्व सांसद सलखन मुर्मू उन लोगों में से हैं, जो सरना धर्म को मानते हैं. वह इस धर्म को औपचारिक मान्यता दिलाने वाले अभियान के अगुआ नेताओं में से एक हैं. हजारों समर्थकों की भीड़ के साथ वह देश के कई राज्यों में प्रदर्शन और धरने कर चुके हैं. हाल ही में उन्होंने रांची में ऐसे ही एक प्रदर्शन में कहा, "यह हमारे मान-सम्मान की लड़ाई है.” उनके इस कथन पर भीड़ ने जोर का नारा लगाया, "सरना धर्म की जय.”
मुर्मू अपने इस संघर्ष को शहरी केंद्रों से आगे आदिवासी गांवों तक भी ले जा रहे हैं. उनका संदेश हैः "अगर सरना धर्म खत्म हो गया, तो देश के सबसे शुरुआती बाशिंदों से उसका संपर्क भी खत्म हो जाएगा." मुर्मू कहते हैं, "अगर सरकार ने हमारे धर्म को मान्यता नहीं दी, तो मुझे लगता है कि हम पूरी तरह खत्म हो जाएंगे. यदि हम किसी लोभ के कारण, किसी दबाव की वजह से या फिर किसी जोर-जबर्दस्ती के कारण अन्य धर्मों को अपनाएंगे, तो अपना पूरा इतिहास और जीवनशैली खो बैठेंगे.”
पिघलती बर्फ के साथ बदलते लोग
जलवायु परिवर्तन इन लोगों के घरबार और रोजी रोटी छीन रहा है. इनके पास अब एक ही चारा बचा है, जलवायु के मुताबिक परिवर्तित हो जाएं. देखिए, कैसे बदल रहे हैं आर्कटिक के आदिवासी...
तस्वीर: Melissa Renwick/REUTERS
कैसे बदल रहे हैं लोग
आर्कटिक पर रहने वाले आदिवासी लोग बदल रहे हैं क्योंकि उनके आसपास का वातावरण बदल रहा है. बर्फ पहले से पतली हो गई है और तापमान बढ़ता जा रहा है.
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तकनीक का सहारा
कनाडा के न्यूफाउंडलैंड और लैब्राडोर में रहने वाले ये लोग अपने पारंपरिक जीवन को बनाए रखने के लिए अब तकनीक का ज्यादा सहारा ले रहे हैं.
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हाईवे पर मछलियां नहीं
पहले ये लोग ‘आइस हाईवे’ पर मछलियां पकड़ते थे लेकिन सूखा लंबा हो रहा है, तूफान और बाढ़ की तीव्रता बढ़ रही है और पारंपरिक तरीकों से जीवन मुश्किल होता जा रहा है.
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‘स्मार्टआइस’ प्रोग्राम
आदिवासी लोग स्मार्टआइस प्रोग्राम चला रहे हैं जिसमें तकनीक के जरिए बर्फ की मोटाई पर नजर रखी जाती है. स्थानीय लोग वेबसाइट से जान सकते हैं कि कहां कितनी मोटी बर्फ है और फिर उस हिसाब से शिकार की जगह तय करते हैं.
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चार गुना तेज गर्मी
वैज्ञानिकों का कहना है कि आर्कटिक बाकी धरती के मुकाबले चार गुना ज्यादा तेजी से गर्म हो रहा है. विशेषज्ञ मानते हैं कि 2035 तक आर्कटिक सागर का आकार गर्मियों में मात्र चार लाख वर्ग किलोमीटर तक सिमट जाने का अंदेशा है.
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वैसे मुर्मू जिस उद्देश्य के लिए संघर्ष कर रहे हैं, उस पर पहले भी ठोस काम हो चुका है. 2011 में आदिवासियों के लिए काम करने वाली एक सरकारी संस्था ने भी सरकार से सरना धर्म को मान्यता देने की सिफारिश की थी. 2020 में झारखंड राज्य की सरकार ने इसी मकसद से एक प्रस्ताव भी पारित किया था. झारखंड की 27 प्रतिशत आबादी आदिवासी है. इस बारे में भारत सरकार ने कोई टिप्पणी नहीं की है.
क्यों मिले अलग धर्म का दर्जा?
रांची यूनिवर्सिटी में पढ़ा चुके मानवविज्ञानी और आदिवासी जीवन का गहन अध्ययन करने वाले करमा ओरांव कहते हैं कि सरना धर्म को औपचारिक मान्यता का एक ठोस तर्क तो इसके मानने वालों की संख्या ही है. वह बताते हैं कि 2011 की राष्ट्रीय जनगणना के मुताबिक सरना धर्म के अनुयाइयों की संख्या जैन धर्म को मानने वालों की संख्या से ज्यादा है. जैन धर्म भारत का छठा सबसे बड़ा धार्मिक समूह है. हिंदू धर्म सबसे बड़ा है, जिसके मानने वाले देश की कुल 1.4 अरब आबादी के 80 प्रतिशत हैं.
मिलिए अफ्रीका के घने जंगलों में रहने वाले पिग्मी लोगों से
पिग्मी अफ्रीकी देश कॉन्गो के घने जंगलों में रहते हैं. लेकिन अब उनके पुरखों के इलाके पर धीरे धीरे कब्जा होता जा रहा है और उन्हें अपनी संस्कृति को बचाने के लिए जंगलों के और अंदर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है.
तस्वीर: Marco Simoncelli
घने जंगलों में शरण
मोवियो एक युवा आका-बेंजेले पिग्मी है और वो पहले पूरे जंगल में शिकार करने और खाना इकट्ठा करने के लिए स्वच्छंद घूमता था. लेकिन जब उसके समुदाय के लोगों पर जमींदारों, वन विभाग और खनन से जुड़े लोगों की वजह से खतरा मंडराने लगा, तब उन्होंने अपनी खानाबदोश संस्कृति को छोड़कर जंगल के अंदर की तरफ एक जगह बस जाने का फैसला किया.
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अफ्रीका के आखिरी शिकारी खानाबदोश
पिग्मी लोग अफ्रीका के आखिरी शिकारी खानाबदोश समुदायों में से हैं. कभी ये लोग पूरी कॉन्गो घाटी में रहा करते थे, लेकिन अब इनका इलाका सिमट गया है. केंद्रीय अफ्रीका के नौ देशों के जंगलों में अभी भी करीब 9,00,000 पिग्मी रहते हैं, लेकिन मोवियो जैसे युवाओं के लिए अब अपनी शिकारी परंपरा को जिंदा रखना और मुश्किल होता जा रहा है.
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जीने के तरीके पर ही खतरा
पिग्मी लोग जंगलों के रहस्य और उनसे जुड़े रिवाज अपने बच्चों को जन्म के साथ ही सिखाना शुरू कर देते हैं. लेकिन आका-बेंजेल समुदाय को अब यह चिंता है कि अब वो यह ज्ञान आने वाली पीढ़ियों को नहीं दे पाएंगे. केंद्रीय अफ्रीका के अधिकांश इलाकों में पिग्मी अब स्वतंत्र रूप से उन इलाकों में घूम नहीं सकते जो पारंपरिक रूप से उन्हीं के थे.
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लोंगा, जहां मिलती है भेदभाव से पनाह
लोंगा गांव लिकुआला विभाग के वर्षा वनों के गहरे अंदर स्थित है. यहां नस्लीय भेदभाव से दूर सामुदायिक जीवन चुपचाप चल रहा है. कॉन्गो पिग्मी लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए कानून पास करने वाला पहला देश था, लेकिन उसके बावजूद आज भी उन्हें सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है.
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जंगल के साथ तालमेल
कॉन्गो के समाज में पिग्मी लोगों को तुच्छ समझा जाता है. बैंतु जनजाति के लोग कभी इन्हें गुलामों की तरह रखते थे और आज भी वो इन्हें पिछड़ा हुआ समझते हैं. लेकिन पिग्मी लोगों का वर्षा वनों के पर्यावरण से बहुत करीबी रिश्ता है. वो उसकी पूजा करते हैं, प्रकृति के साथ तालमेल बना कर रहते हैं और पर्यावरण की रक्षा भी करते हैं.
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जलवायु के लिए जरूरी जंगल
पिग्मी अपनी आजीविका के लिए पूरी तरह से कॉन्गो घाटी के जंगलों पर निर्भर हैं. ये दुनिया के दूसरे सबसे बड़े वर्षावन हैं और ये वैश्विक जलवायु के संतुलन के लिए भी बहुत महत्ववूर्ण हैं. ये साल में 1.2 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड सोख लेते हैं. लेकिन अब इन जंगलों पर पेड़ काटने, खनन और शहरीकरण की वजह से खतरा मंडरा रहा है.
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अद्भुत शिकारी और जंगल गाइड
आका-बेंजेले लोग रात में भी जंगल में रास्ता ढूंढ सकते हैं. ये परभक्षियों की पकड़ में ना आने में माहिर होते हैं और प्रतिभाशाली शिकारी होते हैं. ये दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण अभयारण्यों में से एक में रहते हैं, जो 24 करोड़ हेक्टेयर में फैला है और जो 10,000 से भी ज्यादा किस्म के पौधों और हजारों जानवरों का घर है.
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वन अधिकारियों द्वारा शोषण
जंगलों के कई हिस्सों में अभयारण्य के पहरेदारों ने पिग्मी लोगों पर अवैध शिकार का आरोप लगा कर उनकी बस्तियों पर हमला कर उन्हें जला दिया. 2016 में सर्वाइवल इंटरनैशनल संस्था ने डब्ल्यूडब्ल्यूएफ और अफ्रीका के उद्यानों पर मूल निवासी लोगों के शोषण के सैकड़ों मामलों का आरोप लगाया.
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संरक्षण के नाम पर
संयुक्त राष्ट्र की जांच में भी पर्यावरण समूहों द्वारा पिग्मी लोगों के शोषण और मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोपों की पुष्टि हुई है. इससे मूल निवासियों की पारम्परिक जमीन पर अभयारण्य बनाने पर भी सवाल खड़े करता है.
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वन देवता 'मोबे'
सूर्यास्त के समय लोंगा में पिग्मी लोगों के वन देवता 'मोबे' का रूप लिए एक शख्स आता है. लोग देवता से फलों और अच्छे शिकार का आशीर्वाद मांगते हैं. कॉन्गो के एथनोलॉजिस्ट सोरेल एटा कहते हैं, "उन्होंने अपनी दुनिया की सालों से रक्षा की है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि हम इनके बिना जंगल को बचा नहीं पाते." (मार्को सिमोंसेली)
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2011 की जनगणना में 49 लाख से ज्यादा लोगों ने धर्म के कॉलम में अन्य को चुना था और अन्य के साथ ‘सरना धर्म' लिखा था. जैन धर्म के मानने वालों की संख्या लगभग 45 लाख है. इस तर्क के साथ ओरांव कहते हैं, "हमारी आबादी जैन धर्म को मानने वालों से ज्यादा है. तो हमें एक अलग धर्म के रूप में मान्यता क्यों नहीं मिल सकती?”
भारत में सक्रिय हिंदू संगठन देश के तमाम आदिवासियों को हिंदू धर्म का ही हिस्सा कहते हैं, लेकिन ओरांव इसे गलत बताते हैं. वह कहते हैं, "आदिवासियों और हिंदुओं में कुछ सांस्कृतिक समानताएं हैं, लेकिन हम उनके धर्म में शामिल नहीं हैं.” ओरांव बताते हैं कि उनके धर्म में ना तो जाति-पांति होती है और ना ही मंदिर व ग्रंथ आदि. सरना धर्म में पुनर्जन्म जैसे विश्वास भी नहीं हैं.
सरना धर्म के नेता मानते हैं कि हिंदू और ईसाई धर्म में धर्मांतरण के कारण उनका मत अस्तित्व के खतरे से जूझ रहा है. इसलिए उन्हें औपचारिक मान्यता मिलना उनके वजूद से जुड़ा है.