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चीन का कार्बन उत्सर्जन घटा, पूरी दुनिया का बढ़ा

११ नवम्बर २०२२

इस साल, जबकि हर देश का कार्बन उत्सर्जन बढ़ रहा है, चीन का उत्सर्जन कम हुआ है. लेकिन वैश्विक उत्सर्जन नया रिकॉर्ड बना रहा है जो वैज्ञानिकों के मुताबिक एक बड़ी चेतावनी है.

शर्म अल शेख में जारी पर्यावरण सम्मेलन
शर्म अल शेख में जारी पर्यावरण सम्मेलनतस्वीर: MOHAMMED SALEM/REUTERS

जलवायु परिवर्तन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार जीवाश्म ईंधन से निकलने वाली कॉर्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में इस साल एक प्रतिशत की वृद्धि हो जाएगी और यह अपने सर्वोच्च स्तर पर पहुंच जाएगी. वैज्ञानिकों ने मिस्र के शर्म अल शेख में जलवायु सम्मेलनके दौरान यह जानकारी देते हुए चेतावनी दी है कि वैश्विक कार्बन उत्सर्जन अपने रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच सकता है.

बहुत से वैज्ञानिकों ने अनुमान जाहिर किया था कि 2014 का स्तर तेल से होने वाले उत्सर्जन का अधिकतम था और उससे ज्यादा नहीं होगा, लेकिन 2022 उस अनुमान को गलत साबित कर देगा. पिछले साल के मुकाबले इसमें दो प्रतिशत की वृद्धि होगी.

नॉर्वे स्थित जलवायु रिसर्च इंस्टीट्यूट सिसेरो के शोध निदेशक ग्लेन पीटर्स ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया, "तेल का कारण कोविड के बाद हो रही पुनर्वृद्धि है. कोयला और गैस यूक्रेन युद्ध के कारण उछाल पर हैं.”

वैश्विक स्तर पर सभी स्रोतों से होने वाला कुल उत्सर्जन इस साल 40.6 अरब टन पर पहुंच सकता है, जो कि 2019 के रिकॉर्ड स्तर से कुछ नीचे रहेगा. पीटर्स कहते हैं कि 2015 के पेरिस समझौते में जो स्तर तय किए गए थे, उत्सर्जन उनसे पांच प्रतिशत ऊपर पहुंच चुका है. उन्होंने कहा, "अब सवाल पूछना होगाः वे नीचे कब जाएंगे?”

नए आंकड़े दिखाते हैं कि पेरिस समझौते के तहत तय किए गए लक्ष्य हासिल करने के लिए कार्बन उत्सर्जन में जरूरी कमी को लागू करना कितना मुश्किल होगा. ये लक्ष्य इसलिए तय किए गए थे ताकि पृथ्वी का औसत तापमान इस सदी के आखिर तक 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा ना बढ़े. वैज्ञानिकों की चेतावनी है कि अगर तापमान इससे ज्यादा बढ़ता है तो इंसान के लिए प्रलय जैसी स्थिति होगी. अब तक इसमें 1.2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है, जिसका परिणाम बाढ़, तूफान और सूखे जैसी कुदरती आपदाओं के रूप में नजर आ रहा है.

कैसे हासिल होगा लक्ष्य?

पेरिस समझौते के लक्ष्य हासिल करने के लिए ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 2030 तक 45 प्रतिशत कम करना आवश्यक है. सदी के आखिर तक इसमें पूरी तरह कमी हो जानी चाहिए और नेट जीरो की स्थिति आ जानी चाहिए, यानी जितना कुदरती तौर पर सोखा जा सके, उतना ही कार्बन उत्सर्जन हो.

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ऐसा तभी संभव हो पाएगा जबकि अगले आठ साल तक कार्बन उत्सर्जन में हर साल सात फीसदी की सालाना कमी हो. 2020 में जबकि लॉकडाउन के कारण उद्योग-धंधे और वायु यातायात बंद रहे, तब भी सात फीसदी का यह लक्ष्य हासिल नहीं हो पाया और उत्सर्जन में छह फीसदी की ही कमी हुई.

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लंबी अवधि में देखा जाए तो जीवाश्म ईंधन से कार्बन उत्सर्जन में कमी आई है. जहां, 2000 से 2010 के बीच यह उत्सर्जन तीन प्रतिशत बढ़ा था, वहां पिछले दशक में इसमें 0.5 प्रतिशत की कमी देखी गई. ‘अर्थ सिस्टम साइंस डाटा' के मुताबिक अगर इंसानी गतिविधियों से उत्सर्जन 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने की संभावना 50/50 रखनी है, तो 380 अरब टन से ज्यादा का कार्बन उत्सर्जन नहीं होना चाहिए. फिलहाल सालाना 40 अरब टन का उत्सर्जन हो रहा है यानी 380 अरब टन की सीमा तो एक दशक में ही खत्म हो जाएगी.

चीन में घटा उत्सर्जन

पिछले 15 साल से दुनिया का सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जन रहे चीन ने 2022 में अपने सालाना उत्सर्जन में लगभग एक प्रतिशत की कमी की है. पूरी दुनिया में चीन ही एक ऐसा देश है जिसके उत्सर्जन में कमी दर्ज की गई है. हालांकि विशेषज्ञ इसे बेहद कड़ी ‘जीरो कोविड' नीति का नतीजा मानते हैं.

यूरोपीय संघ, जहां वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को लेकर सबसे ज्यादा उत्साह देखा जाता है, वहां भी इस साल उत्सर्जन में 0.8 फीसदी की कमी दर्ज होगी. अमेरिका का उत्सर्जन करीब डेढ़ फीसदी बढ़ेगा जबकि भारत का छह प्रतिशत.

वैज्ञानिकों ने एक और चिंताजनक बात यह बताई है कि कार्बन डाईऑक्साइड को सोखने की महासागरों, जंगलों और मिट्टी की क्षमता कम हो रही है. रिपोर्ट की सह-लेखिका, ईस्ट एंजलिया यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर कोरिएन ला क्वेरे कहती हैं, "जलवायु परिवर्तन के कारण ही ये स्रोत पहले से कमजोर हुए हैं.”

वीके/एए (एएफपी, एपी, रॉयटर्स)

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