इस साल, जबकि हर देश का कार्बन उत्सर्जन बढ़ रहा है, चीन का उत्सर्जन कम हुआ है. लेकिन वैश्विक उत्सर्जन नया रिकॉर्ड बना रहा है जो वैज्ञानिकों के मुताबिक एक बड़ी चेतावनी है.
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जलवायु परिवर्तन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार जीवाश्म ईंधन से निकलने वाली कॉर्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में इस साल एक प्रतिशत की वृद्धि हो जाएगी और यह अपने सर्वोच्च स्तर पर पहुंच जाएगी. वैज्ञानिकों ने मिस्र के शर्म अल शेख में जलवायु सम्मेलनके दौरान यह जानकारी देते हुए चेतावनी दी है कि वैश्विक कार्बन उत्सर्जन अपने रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच सकता है.
बहुत से वैज्ञानिकों ने अनुमान जाहिर किया था कि 2014 का स्तर तेल से होने वाले उत्सर्जन का अधिकतम था और उससे ज्यादा नहीं होगा, लेकिन 2022 उस अनुमान को गलत साबित कर देगा. पिछले साल के मुकाबले इसमें दो प्रतिशत की वृद्धि होगी.
विनाश का सामना कर रही एशिया की "लाल मिर्च की राजधानी"
पहले गर्मी और उसके बाद अगस्त और सितंबर में पाकिस्तान में भयंकर बाढ़ आई. प्राकृतिक आपदा के बाद पाकिस्तान के लाल मिर्च के किसानों को भारी संकट का सामना करना पड़ रहा है.
तस्वीर: Akhtar Soomro/REUTERS
लाल मिर्च उत्पादन पर असर
लाल मिर्च के उत्पादन में पाकिस्तान दुनिया में चौथे स्थान पर है. देश में लगभग डेढ़ लाख एकड़ भूमि पर सालाना 1,43,000 टन लाल मिर्च का उत्पादन होता है. कृषि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण पाकिस्तान गंभीर जोखिम का सामना कर रहा है.
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लाल मिर्च की तलाश
दक्षिणी पाकिस्तानी शहर कुनरी के पास 40 वर्षीय किसान लिमन राज खराब हो चुकी फसलों के बीच कुछ ऐसे मिर्चों की तलाश कर रहा जो शायद बाढ़ के बाद बच गई हो. कुनरी को एशिया की लाल मिर्च की राजधानी के नाम से भी जाना जाता है. यहां की लाल मिर्च दुनिया भर में मशहूर है.
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बदलते मौसम की मार
लिमन राज ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया, "भीषण गर्मी के कारण फसलों को काफी नुकसान हुआ है. फिर बारिश होने लगी मौसम पूरी तरह बदल चुका है. सारी मिर्च सड़ चुकी है. भारी बारिश के कारण हमें बहुत नुकसान हुआ है."
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जलवायु परिवर्तन का असर
बाढ़ से पहले गर्म तापमान ने मिर्च उगाना कठिन बना दिया, मिर्च की फसल के लिए अधिक मध्यम परिस्थितियों की जरूरत होती है. राज कहते हैं, "जब मैं छोटा था, तब इतनी गर्मी नहीं होती थी, फसलें बहुत हुआ करती थीं, अब इतनी गर्मी हो गई है और बारिश इतनी कम है कि हमारी उपज कम हो गई है."
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फसल बचाने की कोशिश
कुनरी के किसान फैसल गिल ने लाल मिर्च की फसल को बचाने के लिए अपनी कपास की फसल की कुर्बानी देने का फैसला किया. फैसल कहते हैं, "हमने कपास के खेत के चारों ओर बांध बनाए और पंप लगाए हैं. मैंने लाल मिर्च के खेत में पानी इकट्ठा करने के लिए एक नहर को काटा और पंप के जरिए पानी पहुंचाया. दोनों फसलें अगल-बगल लगाई जाती हैं." गिल लाल मिर्च का केवल 30 प्रतिशत ही बचा पाए.
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बाजार पर पड़ा असर
कुनरी की लाल मिर्च की मंडी भी मौसम की मार से प्रभावित हुई है. व्यापारियों का कहना है कि बाजार में तेज लाल मिर्च के ढेर हैं, लेकिन कीमतों में पिछले साल की तुलना में काफी गिरावट आई है.
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नॉर्वे स्थित जलवायु रिसर्च इंस्टीट्यूट सिसेरो के शोध निदेशक ग्लेन पीटर्स ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया, "तेल का कारण कोविड के बाद हो रही पुनर्वृद्धि है. कोयला और गैस यूक्रेन युद्ध के कारण उछाल पर हैं.”
वैश्विक स्तर पर सभी स्रोतों से होने वाला कुल उत्सर्जन इस साल 40.6 अरब टन पर पहुंच सकता है, जो कि 2019 के रिकॉर्ड स्तर से कुछ नीचे रहेगा. पीटर्स कहते हैं कि 2015 के पेरिस समझौते में जो स्तर तय किए गए थे, उत्सर्जन उनसे पांच प्रतिशत ऊपर पहुंच चुका है. उन्होंने कहा, "अब सवाल पूछना होगाः वे नीचे कब जाएंगे?”
नए आंकड़े दिखाते हैं कि पेरिस समझौते के तहत तय किए गए लक्ष्य हासिल करने के लिए कार्बन उत्सर्जन में जरूरी कमी को लागू करना कितना मुश्किल होगा. ये लक्ष्य इसलिए तय किए गए थे ताकि पृथ्वी का औसत तापमान इस सदी के आखिर तक 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा ना बढ़े. वैज्ञानिकों की चेतावनी है कि अगर तापमान इससे ज्यादा बढ़ता है तो इंसान के लिए प्रलय जैसी स्थिति होगी. अब तक इसमें 1.2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है, जिसका परिणाम बाढ़, तूफान और सूखे जैसी कुदरती आपदाओं के रूप में नजर आ रहा है.
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कैसे हासिल होगा लक्ष्य?
पेरिस समझौते के लक्ष्य हासिल करने के लिए ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 2030 तक 45 प्रतिशत कम करना आवश्यक है. सदी के आखिर तक इसमें पूरी तरह कमी हो जानी चाहिए और नेट जीरो की स्थिति आ जानी चाहिए, यानी जितना कुदरती तौर पर सोखा जा सके, उतना ही कार्बन उत्सर्जन हो.
ऐसा तभी संभव हो पाएगा जबकि अगले आठ साल तक कार्बन उत्सर्जन में हर साल सात फीसदी की सालाना कमी हो. 2020 में जबकि लॉकडाउन के कारण उद्योग-धंधे और वायु यातायात बंद रहे, तब भी सात फीसदी का यह लक्ष्य हासिल नहीं हो पाया और उत्सर्जन में छह फीसदी की ही कमी हुई.
लंबी अवधि में देखा जाए तो जीवाश्म ईंधन से कार्बन उत्सर्जन में कमी आई है. जहां, 2000 से 2010 के बीच यह उत्सर्जन तीन प्रतिशत बढ़ा था, वहां पिछले दशक में इसमें 0.5 प्रतिशत की कमी देखी गई. ‘अर्थ सिस्टम साइंस डाटा' के मुताबिक अगर इंसानी गतिविधियों से उत्सर्जन 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने की संभावना 50/50 रखनी है, तो 380 अरब टन से ज्यादा का कार्बन उत्सर्जन नहीं होना चाहिए. फिलहाल सालाना 40 अरब टन का उत्सर्जन हो रहा है यानी 380 अरब टन की सीमा तो एक दशक में ही खत्म हो जाएगी.
चीन में घटा उत्सर्जन
पिछले 15 साल से दुनिया का सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जन रहे चीन ने 2022 में अपने सालाना उत्सर्जन में लगभग एक प्रतिशत की कमी की है. पूरी दुनिया में चीन ही एक ऐसा देश है जिसके उत्सर्जन में कमी दर्ज की गई है. हालांकि विशेषज्ञ इसे बेहद कड़ी ‘जीरो कोविड' नीति का नतीजा मानते हैं.
2022 की भीषण मौसमी आपदाएं
क्या अमीर, क्या गरीब बदलती जलवायु हर मुल्क पर भारी पड़ रही है. इस साल अब तक आई मौसमी आपदाएं बता रही हैं कि भविष्य कितना भयावह हो सकता है.
तस्वीर: Jagadeesh Nv/dpa/picture alliance
भीषण गर्मी
भारत और पाकिस्तान में अप्रैल, मई और जून को गर्मी का सीजन माना जाता है. लेकिन दक्षिण एशिया के ये देश इस बार फरवरी अंत से ही तपने लगे. मार्च और अप्रैल में इतनी गर्मी पड़ी कि 120 साल का रिकॉर्ड टूट गया. मई में कई दिनों तक भारत के मैदानी हिस्सों में तापमान लगातार 40 से 50 डिग्री सेल्सियस के बीच बना रहा.
तस्वीर: Jagadeesh Nv/dpa/picture alliance
गर्मी से झुलसी फसलें
भीषण गर्मी के कारण भारत के कई इलाकों में गेहूं की फसल तैयार होने से पहले ही मुरझा गई. लंबी गर्मी के बाद कई इलाकों में मानसून भी देर से और कमजोर रूप में आया. विशेषज्ञों का अनुमान है कि इन मौसमी बदलावों के कारण भारत के अनाज उत्पादन में 10 से 35 फीसदी की गिरावट रहेगी.
गर्मी झेलने के बाद पाकिस्तान के बड़े इलाके में रिकॉर्डतोड़ बारिश हुई. देश के कुछ हिस्सों में 66 फीसदी ज्यादा पानी बरसा और उसने सिंध प्रांत को बुरी तरह डुबो दिया. इसके बाद पहाड़ी इलाकों में बादल फटने और ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने के कारण बाढ़ आई, जिसने पहले ऊपरी इलाकों में तबाही मचाई और फिर नीचे सिंध में भी.
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अभूतपूर्व नुकसान
पाकिस्तान में बाढ़ से करीब 10 लाख घरों को नुकसान पहुंचा है. 162 पुल बर्बाद हो चुके हैं. पाकिस्तान की नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी के मुताबिक करीब 3600 किलोमीटर सड़क बह चुकी है. अनुमान है कि बाढ़ के कारण करीब 8 लाख मवेशी मारे जा चुके हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि निचले और सपाट इलाकों से बाढ़ का पानी इस साल के अंत तक ही उतर सकेगा.
तस्वीर: Abdul Majeed/AFP
धधका यूरोप
यूरोपीय संघ की ज्वाइंट रिसर्च टीम के मुताबिक, इस साल यूरोप में 6 लाख हेक्टेयर से ज्यादा जंगल जले. यह आंकड़ा लक्जमबर्ग के कुल क्षेत्रफल का दोगुना है. बारिश नहीं होने से जंगल सूखे थे. पुर्तगाल, स्पेन और फ्रांस में जंगल की आग बुझाने में जुटे कम से कम 40 लोगों की मौत हो गई.
तस्वीर: Philippe Lopez/AFP
भयानक सूखा
जब पाकिस्तान पानी से परेशान था, उसी वक्त चीन, इराक, उत्तर पूर्वी अफ्रीका, यूरोप और अमेरिका का बड़ा हिस्सा भयानक सूखे का सामना कर रहे थे. इराक, यूरोप और अमेरिका में कई बड़ी नदियां सूख सी गईं. राइन, पो, लोर, डेन्यूब और कोलोराडो जैसी बड़ी नदियां भी सिकुड़ गईं.
तस्वीर: Stephane Mahe/REUTERS
सूखे इलाके में बाढ़
दशकों से सूखा झेल रहे अमेरिकी राज्य टेक्सस में अगस्त का महीना अचानक भारी बारिश लेकर आया. बारिश इतनी हुई कि बाढ़ की नौबत आ गई. सबसे बुरी हालत मैसाचुसेट्स प्रांत की हुई, जहां कई लोग मारे गए.
तस्वीर: Dallas Police Department/AFP
ताकतवर तूफान
सितंबर 2022 में जापान ने एक के बाद एक, कुल 14 चक्रवाती तूफान झेले. महासागर से उठे चक्रवाती तूफान ने अमेरिकी राज्य फ्लोरिडा में भी भारी तबाही मचाई. वैज्ञानिकों का दावा है कि जलवायु परिवर्तन चक्रवाती तूफानों को और ज्यादा ताकतवर बना रहा है.
तस्वीर: Tosei Kisanuki/AP Photo/picture alliance
सिडनी में रिकॉर्ड बारिश
6 अक्टूबर 2022 को ऑस्ट्रेलिया के सबसे ज्यादा आबादी वाले महानगर सिडनी में बारिश ने 70 साल पुराना रिकॉर्ड तोड़ दिया. इस साल के पहले 10 महीनों में ही शहर में 2,216 मिलीमीटर से ज्यादा पानी बरस चुका है. इससे पहले 1950 में पूरे साल सिडनी में 2,194 एमएम बारिश हुई थी.
तस्वीर: imago images
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यूरोपीय संघ, जहां वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को लेकर सबसे ज्यादा उत्साह देखा जाता है, वहां भी इस साल उत्सर्जन में 0.8 फीसदी की कमी दर्ज होगी. अमेरिका का उत्सर्जन करीब डेढ़ फीसदी बढ़ेगा जबकि भारत का छह प्रतिशत.
वैज्ञानिकों ने एक और चिंताजनक बात यह बताई है कि कार्बन डाईऑक्साइड को सोखने की महासागरों, जंगलों और मिट्टी की क्षमता कम हो रही है. रिपोर्ट की सह-लेखिका, ईस्ट एंजलिया यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर कोरिएन ला क्वेरे कहती हैं, "जलवायु परिवर्तन के कारण ही ये स्रोत पहले से कमजोर हुए हैं.”