गुजरात में वोट ना देने वालों को सार्वजनिक रूप से चिन्हित करने के चुनाव आयोग के कदम का विरोध हो रहा है. आयोग ने 1,000 कंपनियों से कहा है कि वो वोट ना देने वाले अपने कर्मचारियों की एक सूची बनाएं और उसे प्रकाशित करें.
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गुजरात विधान सभा चुनावों से ठीक पहले चुनाव आयोग ने एक नए प्रयोग के तहत पहली बार गुजरात में 1,000 से ज्यादा कॉरपोरेट घरानों से एक साथ संधि पर हस्ताक्षर किए हैं. इन एमओयू के तहत इन कंपनियों को अपने कर्मचारियों पर नजर रखनी होगी और पता करना होगा कि उन्होंने मतदान किया या नहीं.
मतदान ना करने वालों की एक सूची बनानी होगी और उसे दफ्तर के नोटिस बोर्ड या कंपनी की वेबसाइट पर प्रकाशित करना होगा. इंडियन एक्सप्रेस अखबार में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक इस कदम के पीछे आयोग का उद्देश्य मतदान ना करने वालों को चिन्हित करना और उन्हें शर्मिंदा करना है.
लंबे इंतजार के बाद मिला वोट का अधिकार
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गुजरात में अमूमन राष्ट्रीय औसत से ज्यादा मतदान देखा जाता है, लेकिन पिछले चुनावों में प्रतिशत नीचे गिर गया था. 2017 में राज्य में विधान सभा चुनावों में 68.41 प्रतिशत मतदान हुआ था, जब कि 2012 में 71.32 प्रतिशत मतदान हुआ था.
कम मतदान का समाधान?
देश के अधिकांश राज्यों की तरह गुजरात में भी शहरी इलाकों में ग्रामीण इलाकों के मुकाबले कम मतदान होता है. इसी को ध्यान में रखते हुए चुनाव आयोग ने यह कदम उठाया है. गुजरात की मुख्य निर्वाचन अधिकारी पी भारती ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि इस मुहिम का उद्देश्य मतदान ना करने वालों को "शर्मिंदा" करना है.
देश के मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने भी अखबार को बताया, "समसामयिक मुद्दों पर चर्चा करने को लेकर उत्साह सिर्फ सोशल मीडिया तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि मतदान में भी उसकी अभिव्यक्ति होनी चाहिए. इसलिए हम ज्यादा पैनी गतिविधियों के जरिए शहरी इलाकों में छुट्टी ले कर मतदान ना करने वालों से अनुरोध कर रहे हैं, उन्हें प्रेरित कर रहे हैं और इशारा कर रहे हैं."
हालांकि गुजरात मुख्य निर्वाचन अधिकारी ने एक ट्वीट के जरिए इसका खंडन किया है और कहा है, "एमओयू पंजीकरण और कुल मतदान बढ़ाने, कंपनियों में मतदाता जागरूकता फोरम स्थापित करने के लिए किए जाते हैं. चिन्हित करना और शर्मिंदा करना कभी भी हमारा इरादा नहीं रहा."
लेकिन अखबार का कहना है कि भारती ने अपने बयान में "शर्मिंदा" करना ही कहा था. इस बीच अखबार की रिपोर्ट का संज्ञान लेते हुए सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने इस कदम का विरोध किया है और मुख्य चुनाव आयुक्त को एक पत्र लिखा है.
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अनिवार्य मतदान पर विवाद
येचुरी ने इस कदम को असंवैधानिक बताया है और आयोग से कहा है कि 2015 में केंद्र सरकार ने खुद सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि देश में अनिवार्य मतदान लागू करना अलोकतांत्रिक वातावरण को जन्म देगा. विधि आयोग भी कह चुका है कि अनिवार्य मतदान को मूल कर्तव्य की तरह थोपा नहीं जा सकता है.
इसके अलावा येचुरी ने यह भी कहा कि चुनावी बांड के जरिए अज्ञात कॉर्पोरेट फंडिंग की पहले से विवादित पृष्ठभूमि में, कॉर्पोरेट घरानों को चुनावी प्रक्रिया में और ज्यादा शामिल करना भी गलत है.
गुजरात समेत कई राज्यों में मतदान प्रतिशत काम रहने का लोगों का मत डालने नहीं जाना एकलौता कारण नहीं है. देश में बड़ी संख्या में ऐसे मतदाता भी हैं जो मूल निवासी किसी और राज्य के हैं और रहते किसी और राज्य में.
ऐसे मतदाता अक्सर केवल मत डालने के लिए अपने गृह राज्य वापस जाने की स्थिति में नहीं होते हैं. दूर से मत डालने की सुविधा सिर्फ सेना के जवानों और कुछ आवश्यक सरकारी विभागों के कर्मचारियों को दी जाती है.
अपने गृह राज्य से दूर रहे आम नागरिकों के लिए अक्सर अपने पते का प्रमाण जुटाना मुश्किल हो जाता है और इस वजह से वो वहां भी मतदान नहीं कर पाते. इसके अलावा मतदान सूची में भी कई गड़बड़ियां होती हैं, जिन्हें आयोग निरंतर ठीक करने की कोशिश में लगा रहता है.
वोट देने से पहले जान लें कैसे काम करती है ईवीएम
चुनावों के दौरान अकसर ईवीएम के खराब होने या फिर हैक किए जाने जैसी खबरें भी शुरू हो जाती हैं. ईवीएम यानी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन होती क्या है और कैसे काम करती है, जानिए यहां.
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पहली बार इस्तेमाल
1982 में केरल विधानसभा के उपचुनावों में पहली बार 50 मतदान केंद्रों में ईवीएम का इस्तेमाल किया गया. यह एक टेस्ट फेज था. फिर 1998 में 16 विधानसभा क्षेत्रों में ईवीएम लगाई गईं. इनमें से पांच मध्य प्रदेश में, पांच राजस्थान में और छह दिल्ली में थीं. ये मशीनें 1989 से 1990 के बीच बनाई गई थीं. साल 2000 के बाद से तीन लोकसभा चुनावों में ईवीएम का इस्तेमाल हो चुका है.
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इंटरनेट से लेना देना नहीं
भारत में इस्तेमाल होने वाली वोटिंग मशीनें वाईफाई या किसी भी तरह के नेटवर्क से जुड़ी नहीं होती हैं और ना ही एक मशीन दूसरी से कनेक्टेड होती है. चुनाव आयोग के अनुसार इस वजह से इन पर हैकिंग का खतरा नहीं रहता है. हर मशीन अपने आप में एकल डिवाइस है. एक मशीन के खराब होने का पूरी चुनावी प्रक्रिया पर कोई असर नहीं होता.
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माइक्रो चिप का कमाल
वोटिंग का सारा डाटा एक माइक्रो चिप में सुरक्षित होता है. इस चिप के साथ ना तो कोई छेड़छाड़ की जा सकती है और ना ही रीराइट किया जा सकता है. यही ईवीएम को फूल प्रूफ भी बनाता है. लेकिन बावजूद इसके 2014 के लोकसभा चुनावों में धांधली के आरोप लगते रहे हैं. हालांकि इन्हें सिद्ध नहीं किया जा सका है.
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कैसे काम करती है?
जिस किसी ने ईवीएम इस्तेमाल किया है या फिर उसकी तस्वीर देखी है, वह समझ सकता है कि हर पार्टी के निशान के सामने एक बटन होता है. एक व्यक्ति एक ही बार बटन दबा सकता है. इसके बाद मशीन लॉक हो जाती है. बार बार बटन दबाने से वोटिंग दोबारा नहीं होती है.
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मशीन के दो हिस्से
हर मशीन में एक बैलेटिंग यूनिट होती है और एक कंट्रोल यूनिट. बैलेटिंग यूनिट के जरिए मतदाता अपना वोट देता है और कंट्रोल यूनिट के जरिए पोलिंग अधिकारी मशीन को लॉक करता है. मतदान पूरा होने के बाद जो लॉक का बटन दबाया जाता है, उसके बाद मशीन कोई डाटा नहीं स्वीकारती.
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कुल कितने वोट?
एक ईवीएम में अधिकतम 3,840 वोट जमा किए जा सकते हैं. मतदान केंद्रों की योजना इस तरह से बनाई जाती है कि एक केंद्र में 1400 से ज्यादा मतदाताओं को आने की जरूरत ना पड़े. इस तरह से लोगों को घंटों लंबी लाइनों में नहीं लगना पड़ता है. और इसका मतलब यह भी है कि हर मशीन बूथ की क्षमता से दोगुना से भी ज्यादा लोगों के वोट जमा कर सकती है.
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कितनी लंबी सूची?
एक मशीन में 16 उम्मीदवार दर्ज किए जा सकते हैं. लेकिन अगर उम्मीदवारों की सूची इससे लंबी हो तो एक और मशीन को साथ में जोड़ा जा सकता है. इसी तरह अगर 32 में भी सूची पूरी ना हो रही हो तो एक तीसरी और चौथी मशीन को भी कनेक्ट किया जा सकता है. लेकिन ईवीएम की सीमा 64 है यानी पांचवीं मशीन को नहीं जोड़ा जा सकता. वैसे, अब तक इसकी जरूरत भी नहीं पड़ी है.
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क्या वोट हो जाते हैं ट्रांसफर?
वोटिंग मशीन हो या फिर बैलेट पेपर, पार्टी के निशान किस क्रम में लगाए जाएंगे ये इस पर निर्भर करता है कि नामांकन कब दाखिल किया गया था और कब उसकी जांच पूरी हुई. इस प्रक्रिया को पहले से निर्धारित नहीं किया जा सकता. इसलिए पहले से किसी के लिए भी पार्टी के क्रम को जानना और मशीन को उस हिसाब से सेट करना संभव नहीं होता.
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कहां कौन सी मशीन?
कौन सी मशीनें किस मतदान केंद्र में पहुंचेंगी इसकी जानकारी भी गुप्त रखी जाती है. मशीनें दो चरणों में चुनी जाती हैं और वो भी बेतरतीब ढंग से ताकि योजनाबद्ध उन्हें किसी एक केंद्र में ना भेजा जा सके. पहला चरण कंप्यूटर के हाथ में होता है और दूसरा पोलिंग अधिकारी के हाथ में.
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कैसे चुनते हैं मशीन को?
हर मशीन का एक क्रमांक होता है. इनके आधार पर एक सूची बनाई जाती है. फिर पहले चरण में कंप्यूटर इस सूची में से अनियमित रूप से कुछ मशीनों को चुनता है. इसे फर्स्ट लेवेल रैंडमाइजेशन कहा जाता है. दूसरे चरण में अधिकारी अपने पोलिंग बूथ के लिए कुछ मशीनों को साथ ले कर जाता है. ये सेकंड लेवेल रैंडमाइजेशन कहलाता है.
तस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/V. Bhatnagar
वीवीपैट क्या होता है?
2010 में चुनाव आयोग ने वीवीपैट यानी वोटर वेरिफाएबल पेपर ऑडिट ट्रेल की शुरुआत की. इसके तहत वोट डालने के बाद हर मतदाता को उम्मीदवार के नाम और चुनाव चिह्न वाली एक पर्ची मिलती है ताकि सुनिश्चित किया जा सके कि वोट सही डला है. वीवीपैट का इस्तेमाल पहली बार 2013 में नागालैंड के उपचुनाव में हुआ. जून 2014 में चुनाव आयोग ने इसे 2019 लोकसभा चुनावों में हर पोलिंग बूथ पर लागू करने का आदेश दिया.
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कितने देश करते हैं इस्तेमाल?
दुनिया भर के 31 देशों में ईवीएम का इस्तेमाल हो चुका है. लेकिन भारत के अलावा केवल ब्राजील, भूटान और वेनेजुएला ही देश भर में इनका इस्तेमाल कर रहे हैं. जर्मनी, नीदरलैंड्स और पराग्वे में इनका इस्तेमाल शुरू किया गया और फिर रोक लगा दी गई. जर्मनी और नीदरलैंड्स के अलावा इंग्लैंड और फ्रांस में भी ईवीएम का इस्तेमाल नहीं होता है. हालांकि वहां इस पर रोक नहीं लगाई गई है.
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ईवीएम से दूरी
2009 में जर्मनी की एक अदालत ने कहा कि कंप्यूटर आधारित इस सिस्टम को समझने के लिए प्रोग्रामिंग की जानकारी होना जरूरी है, जो आम नागरिकों के पास नहीं हो सकती, इसलिए मतदान का यह तरीका पारदर्शी नहीं है. अमेरिका में फैक्स या ईमेल के जरिए ई-वोटिंग की जा सकती है लेकिन मशीनों का इस्तेमाल वहां भी नहीं होता.