यूनिसेफ के मुताबिक मध्य पूर्व में लाखों बच्चों पर कोरोना वायरस महामारी के कारण उपजे संकट का असर पड़ेगा. यूएन एजेंसी का कहना है कि बच्चों की देखभाल करने वाले तालाबंदी के कारण अपनी नौकरी गवा देंगे.
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संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) के मुताबिक कोरोना वायरस के कारण लागू लॉकडाउन से मध्य पूर्व में लाखों बच्चे और गरीब हो जाएंगे, क्योंकि उनकी देखभाल करने वालों की नौकरी जाने की आशंका है. कोरोना वायरस के फैलाव को रोकने के लिए लॉकडाउन लागू किया गया है. यूनिसेफ का कहना है कि मध्य पूर्व में करीब 17 लाख नौकरियों के जाने से करीब 80 लाख लोग प्रभावित होंगे जिनमें आधे से ज्यादा बच्चे हैं. संस्था के मुताबिक लॉकडाउन की वजह से क्षेत्र में व्यापार बंद हो गए और वेतन रोक दिए गए हैं. यूनिसेफ के मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के क्षेत्रीय निदेशक टेड चाइबन ने एक बयान में कहा है, "यह स्पष्ट है कि महामारी बच्चों को प्रभावित कर रही है. क्षेत्र में कई परिवार गरीब हो रहे हैं क्योंकि उनके पास रोजगार नहीं है. खासतौर पर दिहाड़ी पर काम करने वाले. कंटेनमेंट को लेकर सख्ती के बाद परिवारों को भोजन के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है."
यूनिसेफ के मुताबिक क्षेत्र में 11 करोड़ बच्चे स्कूल की जगह अपने अपने घरों में हैं क्योंकि कोरोना वायरस महामारी से स्कूलों पर ताला लग गया है. 143 देशों में 36 करोड़ से ज्यादा बच्चे स्कूलों में मिलने वाले भोजन पर ही निर्भर रहते हैं लेकिन घरों तक सीमित हो जाने के कारण अब उन्हें पोषण के लिए अन्य स्रोतों की तलाश करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. कई एजेंसिया और गैर लाभकारी संगठनों का कहना है कि कर्फ्यू और लॉकडाउन की वजह से लोग अपने परिवार के लिए पालन पोषण का इंतजाम करने में मुश्किलों का सामना कर रहे हैं. यूनिसेफ का अनुमान है कि 2.5 करोड़ बच्चे जरूरतमंद हैं, जिनमें वे बच्चे भी शामिल हैं जो संकट के कारण विस्थापित हो गए हैं. ये बच्चे सीरिया, यमन, सुडान, फिलिस्तीन, इराक और लीबिया के हैं. वर्षों से जारी संकट के कारण लाखों लोग शरणार्थी बन गए हैं.
संस्था कोविड-19 से निपटने के प्रयासों को बढ़ाने के लिए दुनिया से 92 मिलियन डॉलर की अपील कर रह रही है. यूएन का कहना है कि लाखों लोग पहले से ही संघर्ष वाले देशों में स्वास्थ्य देखभाल, भोजन, पानी और बिजली की कमी से जूझ रहे हैं. वहां महंगाई बहुत अधिक है और बुनियादी ढांचे बर्बाद हो चुके हैं. चाइबन के मुताबिक, "बुनियादी सेवाओं में कमी और क्षेत्र में सालों से जारी संकट गरीबी और अभावों से जूझते लोग और अब कोविड-19 बच्चों के लिए ज्यादा खतरनाक साबित हो रहा है. यह उनके कठिन जीवन को असहनीय बना रहा है." इससे पहले संयुक्त राष्ट्र महासचिव भी मौजूदा संकट के कारण बच्चों की शिक्षा, भोजन, सुरक्षा और स्वास्थ्य पर अपनी चिंता जाहिर कर चुके हैं.
डॉनल्ड ट्रंप डब्ल्यूएचओ को मिलने वाली राशि रोक रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र की इस एजेंसी के लिए यह बहुत बड़ा झटका होगा क्योंकि सबसे ज्यादा धन उसे अमेरिका से ही मिलता है. जानिए अमेरिका के बाद किस किस का नंबर आता है.
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असेस्ड कॉन्ट्रीब्यूशन
डब्यलूएचओ को दो तरह से धन मिलता है. पहला, एजेंसी का हिस्सा बनने के लिए हर सदस्य को एक रकम चुकानी पड़ती है. इसे "असेस्ड कॉन्ट्रीब्यूशन" कहते हैं. यह रकम सदस्य देश की आबादी और उसकी विकास दर पर निर्भर करती है.
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वॉलंटरी कॉन्ट्रीब्यूशन
दूसरा है "वॉलंटरी कॉन्ट्रीब्यूशन" यानी चंदे की राशि. यह धन सरकारें भी देती हैं और चैरिटी संस्थान भी. अमूमन यह राशि किसी ना किसी प्रोजेक्ट के लिए दी जाती है. लेकिन अगर कोई देश या संस्था चाहे तो बिना प्रोजेक्ट के भी धन दे सकता है.
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दो साल का बजट
डब्यलूएचओ का बजट दो साल के लिए निर्धारित किया जाता है. 2018-19 का कुल बजट 5.6 अरब डॉलर था. 2020-21 के लिए इसे 4.8 अरब डॉलर बताया गया है. आगे दी गई सूची 2018-19 के आंकड़ों पर आधारित है.
असेस्ड कॉन्ट्रीब्यूशन - 81 लाख डॉलर; वॉलंटरी कॉन्ट्रीब्यूशन - 7.8 करोड़ डॉलर; कुल - 8.6 करोड़ डॉलर
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15. चीन
असेस्ड कॉन्ट्रीब्यूशन - 7.6 करोड़ डॉलर; वॉलंटरी कॉन्ट्रीब्यूशन - 1 करोड़ डॉलर; कुल - 8.6 करोड़ डॉलर. अमेरिका और जापान के बाद सबसे बड़ा असेस्ड कॉन्ट्रीब्यूशन चीन का ही है. (स्रोत: डब्ल्यूएचओ)