म्यांमार में कुछ दिनों से उड़ रहीं तख्तापलट की अफवाहें आखिरकार सच साबित हुईं. रिटारटमेंट की तरफ बढ़ रहे सेना प्रमुख का सत्ता में बने रहने का लालच अंत में लोकतंत्र पर भारी पड़ा. अब इसकी कीमत पूरा देश चुकाएगा.
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एक फरवरी की रात को हुए नाटकीय घटनाक्रम के बीच स्टेट काउंसलर आंग सान सू ची और सत्तारूढ़ नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) के तमाम नेताओं को म्यांमार की सेना ने गिरफ्तार कर लिया. राष्ट्रपति विन मिन और कई प्रांतों के मुख्यमंत्रियों और बड़े नेताओं को भी सेना ने बंधक बना लिया और सुबह होते ही देश में आपातकाल की घोषणा कर दी.
प्रमुख सेनाध्यक्ष जनरल मिन आंग लाई के वक्तव्य के साथ सेना ने देश में राजनीतिक तख्तापलट को अंजाम दे दिया. आनन फानन में मिन स्वे को राष्ट्रपति बना दिया गया और उन्होंने सत्ता जनरल मिन आंग लाई को सौंप दी. अपनी बातों में वजन और गंभीरता लाने के लिए सेना ने यह भी कहा है कि आपातकाल सिर्फ एक साल के लिए है और संवैधानिक हालात में सुधार होते ही आम चुनाव करा दिए जाएंगे. वैसे म्यांमार में सेना किसी दूसरे पक्ष को सत्ता हस्तांतरित करेगी, यह बात फिलहाल तो नामुमकिन ही लगती है.
हैरत की बात यह है कि सेना के मुताबिक देश में राष्ट्रीय आपातकाल और तख्तापलट संवैधानिक मूल्यों की रक्षा और चुनावों में तथाकथित धांधली की निष्पक्ष जांच के लिए जरूरी था. सेना का कहना है कि सू ची की पार्टी ने चुनावों में 80 लाख वोटों की धांधली की है. इसके संदर्भ में उन्होंने संघीय चुनाव आयोग से शिकायत भी की थी, लेकिन आयोग ने इस मांग को खारिज कर दिया. देश की सप्रीम कोर्ट में भी यह मामला अभी लंबित है.
जो भी हो, अपनी हार से झुंझलाई सेना ने सोची समझी रणनीति के तहत लोकतंत्रिक व्यवस्था को ही उखाड़ फेंका और नतीजा सबके सामने है. इसके बावजूद सेना संवैधानिक तौर पर गलत नहीं है. संविधान के अनुच्छेद 417 के तहत सेना राष्ट्रहित में यह कदम उठा सकती है.
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21वीं सदी के तख्तापलट
म्यांमार फिर एक बार सैन्य तख्तापलट की वजह से सुर्खियों में है. 20वीं सदी का इतिहास तो सत्ता की खींचतान और तख्तापलट की घटनाओं से भरा हुआ है, लेकिन 21वीं सदी में भी कई देशों ने ताकत के दम पर रातों रात सत्ता बदलते देखी है.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/F. Vergara
म्यांमार
म्यांमार की सेना ने आंग सान सू ची को हिरासत में लेकर फिर एक बार देश की सत्ता की बाडगोर संभाली है. 2020 में हुए आम चुनावों में सू ची की एनएलडी पार्टी ने 83 प्रतिशत मतों के साथ भारी जीत हासिल की. लेकिन सेना ने चुनावों में धांधली का आरोप लगाया. देश में लोकतंत्र की उम्मीदें फिर दम तोड़ती दिख रही हैं.
तस्वीर: Sakchai Lalit/AP/picture alliance
माली
पश्चिमी अफ्रीकी देश माली में 18 अगस्त 2020 को सेना के कुछ गुटों ने बगावत कर दी. राष्ट्रपति इब्राहिम बोउबाखर कीटा समेत कई सरकारी अधिकारी हिरासत में ले लिए गए और सरकार को भंग कर दिया गया. 2020 के तख्तापलट के आठ साल पहले 2012 में माली ने एक और तख्तापलट झेला था.
तस्वीर: Reuters/M. Keita
मिस्र
2011 की क्रांति के बाद देश में हुए पहले स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के बाद राष्ट्रपति के तौर पर मोहम्मद मुर्सी ने सत्ता संभाली थी. लेकिन 2013 में सरकार विरोधी प्रदर्शनों का फायदा उठाकर देश के सेना प्रमुख जनरल अब्देल फतह अल सिसी ने सरकार का तख्तापलट कर सत्ता हथिया ली. तब से वही मिस्र के राष्ट्रपति हैं.
तस्वीर: Reuters
मॉरिटानिया
पश्चिमी अफ्रीकी देश मॉरिटानिया में 6 अगस्त 2008 को सेना ने राष्ट्रपति सिदी उल्द चेख अब्दल्लाही (तस्वीर में) को सत्ता से बेदखल कर देश की कमान अपने हाथ में ले ली. इससे ठीक तीन साल पहले भी देश ने एक तख्तापलट देखा था जब लंबे समय से सत्ता में रहे तानाशाह मोओया उल्द सिदअहमद ताया को सेना ने हटा दिया.
तस्वीर: Issouf Sanogo/AFP
गिनी
पश्चिमी अफ्रीकी देश गिनी में लंबे समय तक राष्ट्रपति रहे लांसाना कोंते की 2008 में मौत के बाद सेना ने सत्ता अपने हाथ में ले ली. कैप्टन मूसा दादिस कामरा (फोटो में) ने कहा कि वह नए राष्ट्रपति चुनाव होने तक दो साल के लिए सत्ता संभाल रहे हैं. वह अपनी बात कायम भी रहे और 2010 के चुनाव में अल्फा कोंडे के जीतने के बाद सत्ता से हट गए.
तस्वीर: AP
थाईलैंड
थाईलैंड में सेना ने 19 सितंबर 2006 को थकसिन शिनावात्रा की सरकार का तख्तापलट किया. 23 दिसंबर 2007 को देश में आम चुनाव हुए लेकिन शिनावात्रा की पार्टी को चुनावों में हिस्सा नहीं लेने दिया गया. लेकिन जनता में उनके लिए समर्थन था. 2001 में उनकी बहन इंगलक शिनावात्रा थाईलैंड की प्रधानमंत्री बनी. 2014 में फिर थाईलैंड में सेना ने तख्तापलट किया.
तस्वीर: AP
फिजी
दक्षिणी प्रशांत महासागर में बसे छोटे से देश फिजी ने बीते दो दशकों में कई बार तख्तापलट झेला है. आखिरी बार 2006 में ऐसा हुआ था. फिजी में रहने वाले मूल निवासियों और वहां जाकर बसे भारतीय मूल के लोगों के बीच सत्ता की खींचतान रहती है. धर्म भी एक अहम भूमिका अदा करता है.
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हैती
कैरेबियन देश हैती में फरवरी 2004 को हुए तख्तापलट ने देश को ऐसे राजनीतिक संकट में धकेल दिया जो कई हफ्तों तक चला. इसका नतीजा यह निकला कि राष्ट्रपति जाँ बेत्रां एरिस्टीड अपना दूसरा कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए और फिर राष्ट्रपति के तौर पर बोनीफेस अलेक्सांद्रे ने सत्ता संभाली.
तस्वीर: Erika SatelicesAFP/Getty Images
गिनी बिसाऊ
पश्चिमी अफ्रीकी देश गिनी बिसाऊ में 14 सितंबर 2003 को रक्तहीन तख्तापलट हुआ, जब जनरल वासीमो कोरेया सीब्रा ने राष्ट्रपति कुंबा लाले को सत्ता से बेदखल कर दिया. सीब्रा ने कहा कि लाले की सरकार देश के सामने मौजूद आर्थिक संकट, राजनीतिक अस्थिरता और बकाया वेतन को लेकर सेना में मौजूद असंतोष से नहीं निपट सकती है, इसलिए वे सत्ता संभाल रहे हैं.
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सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक
मार्च 2003 की बात है. मध्य अफ्रीकी देश सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक के राष्ट्रपति एंगे फेलिक्स पाटासे नाइजर के दौरे पर थे. लेकिन जनरल फ्रांसुआ बोजिजे ने संविधान को निलंबित कर सत्ता की बाडगोर अपने हाथ में ले ली. वापस लौटते हुए जब बागियों ने राष्ट्रपति पाटासे के विमान पर गोलियां दागने की कोशिश की तो उन्होंने पड़ोसी देश कैमरून का रुख किया.
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इक्वाडोर
लैटिन अमेरिकी देश इक्वोडोर में 21 जनवरी 2000 को राष्ट्रपति जमील माहौद का तख्लापलट हुआ और उपराष्ट्रपति गुस्तावो नोबोआ ने उनका स्थान लिया. सेना और राजनेताओं के गठजोड़ ने इस कार्रवाई को अंजाम दिया. लेकिन आखिरकर यह गठबंधन नाकाम रहा. वरिष्ठ सैन्य नेताओं ने उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति बनाने का विरोध किया और तख्तापलट करने के वाले कई नेता जेल भेजे गए.
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सत्ता का मोह
म्यांमार दुनिया के उन देशों में से एक है जहां एक आम इंसान के लिए अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतंत्र जैसी बातें अधूरे सपने जैसी लगती रही हैं. 1962 से सैन्य तानाशाही का झेल रहे म्यांमार में सिर्फ आठ साल पहले सत्ता के गलियारों में प्रशासनिक सुधारों और लोकतंत्र की बात चली. पूर्व सेनाध्यक्ष थीन सीन ने 2011 में सुधारों की शुरुआत की और अप्रैल 2012 के उपचुनावों में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता आंग सान सू ची और उनकी पार्टी एनएलडी को बहुत अच्छा समर्थन और सीटें मिलीं.
इसके बाद 8 नवंबर 2015 को हुए आम चुनावों में तो मानो कमाल ही हो गया. कमाल यह नहीं कि सू ची और उनकी पार्टी की जीत हुई, बल्कि कमल यह कि सेना और उसकी प्रॉक्सी पार्टी और रिटायर्ड फौजियों के क्लब यूनियन सॉलिडैरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी (यूएसडीपी) ने अपनी हार को सम्मानपूर्वक स्वीकार कर लिया.
इसके पांच साल बाद फिर 8 नवंबर 2020 को आम चुनाव हुए और एक बार फिर एनएलडी को भारी बहुमत हासिल हुआ. अपने पक्ष में लगभग 83 प्रतिशत कुल वैध वोटों के अलावा निचले सदन की 440 में से 315 सीटें और ऊपरी सदन की दो तिहाई से ज्यादा सीटें हासिल करने के बाद सू ची की सत्ता में वापसी सुनिश्चित थी. यूएसडीपी की हार के बाद सेनाध्यक्ष आंग मिन लाई का भविष्य भी तय ही लग रहा था.
जनरल मिन लाई का सेनाध्यक्ष के तौर पर रिटायरमेंट नजदीक है. राजनीति में उनकी दिलचस्पी है और उन्हें एनएलडी से खासी नफरत भी है. थीन सीन की तरह सन्यास और वानप्रस्थ का उनका कोई इरादा भी नहीं है. लिहाजा उन्होंने संविधान को बचाने के नाम पर अपनी सत्ता को बचाने की ठानी. जनरल मिन लाई की महत्वाकांक्षा को सेना के कार्यरत और रिटायर्ड अधिकारियों का समर्थन भी है. इसलिए भी कि सेना को यह अंदेशा हो चला था कि सू ची संविधान में बदलाव कर उसकी शक्ति को कम करने की फिराक में है. संसद में संख्या बल के आधार पर तो यह बहुत दूर की कौड़ी नहीं दिख पड़ रही थी.
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इन बेटियों ने संभाली पिता की राजनीतिक विरासत
बाप की विरासत बेटे को मिलना आम बात है लेकिन दुनिया में ऐसी भी बेटियां उभरी जिन्होंने अपने पिता की राजनीतिक विरासत को बुलंदियों तक पहुंचाया. एक नजर दुनिया की मशहूर बाप-बेटियों पर..
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की बेटी इंदिरा को राजनीति में गूंगी गुड़िया तक कहा गया. लेकिन इंदिरा गांधी अपने नेतृत्व और राजनीतिक दांव पेंच के दम पर भारत की महिला प्रधानमंत्री बनीं.
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मीरा कुमार- जगजीवन राम
भारत के उपप्रधानमंत्री रहे बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार भारत की लोकसभा की स्पीकर रह चुकी हैं. वो 2017 में यूपीए के प्रत्याशी के रूप में राष्ट्रपति चुनाव भी लड़ चुकी हैं.
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प्रियंका गांधी- राजीव गांधी
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की बेटी प्रियंका गांधी भी राजनीति में सक्रिय हैं. वो कांग्रेस की महासचिव हैं और उत्तर प्रदेश की प्रभारी भी हैं.
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बेनजीर भुट्टो- जुल्फिकार अली भुट्टो
साल 1979 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फौजी हुकूमत ने फांसी पर चढ़ा दिया था. इसके बाद पाकिस्तान की उथलपुथल भरी सियासी विरासत को संभालते हुए बेनजीर भुट्टो ने राजनीति में प्रवेश किया और साल 1988 में देश की प्रधानमंत्री बनीं.
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शेख हसीना- शेख मुजीबुर्रहमान
बांग्लादेश के पहले राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्रहमान की उनके परिवार के अधिकतर सदस्यों के साथ साल 1975 में हत्या कर दी गयी थी. उनकी बेटी शेख हसीना बच गयीं क्योंकि वह देश से बाहर थीं. बाद में पिता की राजनीतिक विरासत को शेख हसीना ने संभाला और आज वह बांग्लादेश की प्रधानमंत्री हैं.
तस्वीर: bdnews24.com
आंग सान सू ची- आंग सान
म्यांमार की नेता आंग सान सू ची के पिता आंग सान को मौजूदा म्यांमार का राष्ट्रपिता माना जाता है. आंग सान सू ची ने पिता की राजनीति विरासत को संभालते हुए लोकतंत्र की पैरवी की और सैनिक शासन का लगातार विरोध करती रहीं. अब उनकी पार्टी सत्ता में है.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/Aung Shine Oo
मेगावती सुकर्णोपुत्री - सुकर्णो
इंडोनेशिया की पहले राष्ट्रपति सुकर्णों की बेटी मेगावती सुकर्णोपुत्री ने भी अपनी पिता की राजनीतिक विरासत को संभाला. वह साल 2001 में देश की पहली महिला राष्ट्रपति बनीं. वह इंडोनेशिया के राजनीतिक दल पीडीआई-पी की प्रमुख नेता है.
तस्वीर: picture-alliance/AA/M. Hendratmo
चंद्रिका कुमारतुंगा-सोलोमन भंडारनायके
साल 1994 में श्रीलंका का राष्ट्रपति पद संभालने वाली चंद्रिका कुमारतंगा ने अपने पिता की राजनीतिक विरासत को बनाये रखा. इनके पिता सोलोमन भंडारनायके देश के प्रधानमंत्री रहे. कुमारतुंगा की मां सिरीमावो भंडारनायके श्रीलंका की प्रधानमंत्री बनी और वह विश्व की पहली महिला प्रधानमंत्री भी थीं.
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इवांका ट्रंप- डॉनल्ड ट्रंप
इस सूची में सबसे युवा नाम है इवांका ट्रंप का. अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की बेटी इवांका राष्ट्रपति की वरिष्ठ सलाहकार हैं. इनके पिता राजनीति में आने से पहले एक नामी कारोबारी रहे हैं और इवांका ने भी पिता की विरासत को संभालते हुए एक नामी बिजनेसवुमन का खिताब हासिल किया है.
बहरहाल, एक फरवरी को देश की नवनिर्वाचित संसद की पहली बैठक होनी थी. अगर सेना के लिहाज से देखें तो सत्ता परिवर्तन का इससे अच्छा तो कोई समय हो नहीं सकता था. अगर सेना की यही घोषणा संसद का सत्र शुरू होने के हफ्ते भर बाद होती तो शायद एनएलडी की स्थिति ज्यादा मजबूत होती और उसके कार्यकर्ताओं और नेताओं में ज्यादा समन्वय भी होता. लेकिन पांच साल सत्ता में रहने के बावजूद भी आज सू ची और उनकी पार्टी फिर उसी जगह खड़े हैं जहां से उन्होंने यह सफर शुरू किया था.
यहां एक सवाल यह भी उठता है कि क्या सेना के इस कदम को रोका नहीं जा सकता था, या क्या वक्त रहते उसका प्रतिरोध नहीं किया जा सकता था? इस सवाल का जवाब हां ही है.
पिछले पांच साल में सू ची और उनकी पार्टी की रणनीति यूएसडीपी से तालेमल बिठा कर और सत्ता का बंटवारा कर राज करने की रही थी. सेना की शक्ति से भला कौन नहीं डरता? सेना को मनाने और शांति से रहने की आस ने सू ची की राजनीतिकि सूझ-बूझ को कुंद कर दिया. राजनीति कौटिल्य, मैकियावली और सुं जू के दिखाए रास्ते वाली शतरंज की चाल है जहां अधमने मन से किया काम पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही है.
शांति से सत्ता पर काबिज रहने की कवायद सू ची को इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस के दरवाजे भी ले गई जहां उन्हें सेना के अधिकारियों के ऊपर लगे रोहिंग्या अल्पसंख्यकों के नरसंहार के आरोपों पर बयान देना था. सू ची ने कोर्ट में वही कहा जो पिछले पांच सालों से उनकी पार्टी कहती आई है.
संयुक्त राष्ट्र संघ और दूसरी सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं के कहने के बावजूद एनएलडी और म्यांमार की सेना यह मानने को तैयार नहीं हैं कि रोहिंग्या अल्पसंख्यक मुस्लिम और हिंदूओं का नरसंहार हुआ है या लाखों की संख्या में वे देश छोड़ कर भाग कर रहे हैं. लोकतांत्रिक व्यवस्था के रवायती मुद्दों को छोड़ दें तो पिछले पांच सालों में म्यांमार को सू ची वह सब नहीं दे सकीं जिसकी उम्मीद की गई थी.
निंदा और आलोचना
बहरहाल देश में तनाव और अनिश्चितता का माहौल है. अमेरिका की कड़ी आलोचनाओं के बीच कहीं न कहीं सेना को अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का डर भी सता रहा है. साथ ही ये चिंताएं भी कि आगे की चाल कैसे चली जाए कि सब कुछ निर्बाध चलता रहे.
दूसरी ओर लोग सड़कों पर अपने-अपने तरीके से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. देश के डॉक्टरों ने अनौपचारिक तौर पर एक असहयोग आंदोलन का बिगुल फूंक दिया है और अप्रवासी म्यांमारी नागरिक जहां भी हैं वहां से म्यांमार के दूतावासों के सामने लोकतांत्रिक विरोध प्रदर्शनों में लगे हैं.
सोशल मीडिया पर विरोध की आग धधक रही है लेकिन यांगोन और मांडले जैसे शहरों में गहरा सन्नाटा पसरा है. म्यांमार में लोकतंत्र के हर समर्थक को शायद यही डर है कि जैसे जैसे समय बीतता जाएगा, वैसे वैसे इस चुनाव की जीत की प्रासंगिकता पर सवाल भी उठते जाएंगे और शायद लोकतांत्रिक व्यवस्था की ओर वापसी भी.
जेल की सलाखें अपराधियों के लिए अंधेरी दुनिया है. लेकिन दुनिया के कई लोगों के लिए शोहरत और सत्ता के शिखर तक पहुंचने का रास्ता जेल से होकर गुजरा है. डालते हैं ऐसी ही शख्सियतों पर एक नजर:
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महात्मा गांधी
भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान महात्मा गांधी कई बार जेल गए. इससे पहले वह दक्षिण अफ्रीका में भी जेल जा चुके थे. आज भी बहुत से लोग उनके सत्य और अहिंसा के रास्ते का लोहा मानते हैं.
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जवाहर लाल नेहरू
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर नेहरू ने आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया. इस दौरान उन्हें भी कई बार जेल जाना पड़ा.
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नेल्सन मंडेला
दक्षिण अफ्रीकी नेता नेल्सन मंडेला को रंगभेद विरोधी आंदोलन के लिए 27 साल जेल में रहने पड़ा. लेकिन अपने देश में वह रंगभेद का खात्मा करने में कामयाब रहे और दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने.
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आंग आन सू ची
म्यांमार में लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू ची को 1990 से 2010 तक जेल या नजरबंदी में रहना पड़ा. अब म्यांमार की सत्ता उनकी पार्टी के हाथ में है. 1991 में उनके संघर्ष के लिए उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/Khin Maung Win
मार्टिन लूथर किंग जूनियर
अमेरिका में अश्वेत लोगों के लिए बराबर अधिकारों की आवाज उठाने वाले मार्टिन लूथर किंग जूनियर को कई बार जेल जाना पड़ा. बर्मिंघम की जेल से लिखे उनके खतों ने आंदोलन में नई जान फूंकी.
तस्वीर: Imago/UPI Photo
लियु शियाओबो
चीन में लोकतंत्र समर्थक और मानवाधिकार कार्यकर्ता लियू शियाओबो को 2010 में नोबेल शांति पुरस्कार दिया. लेकिन चीन की सरकार उन्हें देशद्रोही मानती रही. कैंसर से पीड़ित लियु ने जेल में ही आखिरी सांस ली.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/L. Xia
किम दाए जुंग
दक्षिण कोरिया में किम दाए जुंग को 1976 से 1979 तक जेल में रहना पड़ा. 1980 में उन्हें अमेरिका निवार्सित कर दिया गया. 1985 में उन्होंने वापसी की और 1998 में वह देश के राष्ट्रपति बने.
तस्वीर: picture alliance/dpa/A.Dedert
अनवर इब्राहिम
मलेशिया में पूर्व उप प्रधानमंत्री अनवर इब्राहिम यौन दुराचार के आरोपों में तीन साल तक जेल में रहे. इसी साल रिहा होने वाले इब्राहिम को अब मलेशिया के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखा जा रहा है.