खनन कंपनियों के कारण अपनी आजीविका खो चुके चार किसानों ने एक ऐतिहासिक लड़ाई जीती है. अदालत ने ‘दुर्लभ फैसले’ में कंपनियों को सजा सुनाई है.
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संबलपुर के मनबोध बिस्वाल को उम्मीद है कि उनकी जमीन अब पहले जैसी उपजाऊ हो पाएगी और उन्हें सिंचाई के लिए प्रदूषित नहीं साफ पानी मिलेगा. बिस्वाल और उनके तीन साथियों ने कोर्ट में दो बड़ी निजी कंपनियों को हराकर एक ऐसी लड़ाई जीती है, जिसका असर उनके जैसे लाखों किसानों पर पड़ सकता है.
इसी महीने नेशनल ग्रीन ट्राइब्न्यूनल ने हिंडाल्को इंडस्ट्रीज और रायपुर एनर्जेन को तालाबिरा-1 कोयला ब्लॉक की सफाई के लिए 10 करोड़ रुपये जमा कराने का आदेश दिया है. यह ब्लॉक 2018 में बंद हो गया था. 65 साल के बिस्वाल कहते हैं, "हमारे चारों तरफ खदानें हैं जिन्होंने हमारी जमीन, हवा और पानी सब बर्बाद कर दिया है. इस लड़ाई को मैं दस साल से लड़ रहा हूं और आखिर उम्मीद की एक किरण नजर आई है कि जो थोड़ा बहुत बचा है उसे हम बचा पाएंगे और फिर से खेती कर पाएंगे."
जलवायु परिवर्तन: पहाड़ों के लिए भी है खतरा
ग्लोबल वार्मिंग ने पहाड़ों की प्राकृतिक व्यवस्था को खत्म करना शुरू कर दिया है. इन परिवर्तनों का जल प्रवाह से लेकर कृषि, वन्य जीवन और पर्यटन तक हर चीज पर नकारात्मक असर पड़ रहा है.
दुनिया के पहाड़ जहां बहुत सख्त हैं, वहीं बहुत नाजुक भी हैं. दूर के तराई क्षेत्रों पर भी उनका बहुत बड़ा प्रभाव है, लेकिन वे जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं. पहाड़ों में भी तापमान बढ़ रहा है और प्राकृतिक वातावरण बदल रहा है. नतीजतन जल प्रणालियों, जैव विविधता, प्राकृतिक आपदाओं, कृषि और पर्यटन के परिणामों के साथ बर्फ और ग्लेशियर गायब हो रहे हैं.
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पिघलती बर्फ
इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज का कहना है कि अगर उत्सर्जन बेरोकटोक जारी रहा तो कम ऊंचाई वाले बर्फ के आवरण में 80 प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है. ग्लेशियर भी सिकुड़ रहे हैं. यूरोपीय आल्प्स में कार्बन डाइऑक्साइड के मौजूदा स्तर पर समान पिघलने की आशंका है. विश्व के पर्माफ्रॉस्ट का कम से कम एक चौथाई भाग ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में है.
बदलती आबोहवा का जल प्रणालियों पर गहरा प्रभाव पड़ता है, लेकिन प्रभाव समय के साथ बदलते हैं. ग्लेशियरों से नदियों में पानी बहता था, लेकिन अब उनके पिघलने की गति तेज हो गई है. इससे नदी में पानी का बहाव भी बढ़ गया है. कई पर्वत श्रृंखलाओं में बर्फ पिघलने के कारण ग्लेशियरों का आकार छोटा हो गया है, जैसा कि पेरू के पहाड़ों के मामले में हुआ है.
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जैव विविधता: विकास का बदलता परिवेश
पर्वतीय क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन ने पर्वतीय वन्यजीवों, पक्षियों और जड़ी-बूटियों के विकास के लिए प्राकृतिक वातावरण को भी बहुत बदल दिया है. वनों की कटाई ने तलहटी में वन आवरण को कम कर दिया है. नतीजतन, इन क्षेत्रों में वन्य जीवन बढ़ तो रहा है लेकिन वह इसकी कीमत चुका रहा है.
ग्लेशियरों के पिघलने और पहाड़ों के स्थायी रूप से जमे हुए क्षेत्रों से बर्फ के घटने से पहाड़ी दर्रे और रास्ते अस्थिर हो गए हैं. इससे हिमस्खलन, भूस्खलन और बाढ़ में वृद्धि हुई है. पश्चिमी अमेरिकी पहाड़ों में बर्फ बहुत तेजी से पिघल रही है. इसके अलावा, ग्लेशियरों के पिघलने से भारी धातुएं निकल रही हैं. यह पृथ्वी पर जीवन के लिए बहुत हानिकारक हो सकता है.
दुनिया की लगभग 10 प्रतिशत जनसंख्या ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करती है. लेकिन बिगड़ते आर्थिक अवसरों और प्राकृतिक आपदाओं के उच्च जोखिम के साथ वहां जीवन और अधिक सीमांत होता जा रहा है. पहाड़ के परिदृश्य के सौंदर्य, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पहलू भी प्रभावित होते हैं. उदाहरण के लिए नेपाल में स्वदेशी मनांगी समुदाय ग्लेशियरों के नुकसान को उनकी जातीय पहचान के लिए एक खतरे के रूप में देखता है.
पर्वतीय क्षेत्रों में बढ़ते तापमान ने अर्थव्यवस्था को बहुत ही नकारात्मक स्थिति में डाल दिया है. जलवायु परिवर्तन ने पर्वतीय पर्यटन और जल आपूर्ति को भी प्रभावित किया है. इसके अलावा कृषि को भी नुकसान हुआ है. पहाड़ के बुनियादी ढांचे जैसे रेलवे ट्रैक, बिजली के खंभे, पानी की पाइपलाइन और इमारतों पर भूस्खलन का खतरा है.
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शीतकालीन पर्यटन: बर्फ रहित स्की रिजॉर्ट
कम बर्फबारी के कारण पहाड़ों में हिमपात का आनंद जलवायु परिवर्तन ने भी प्रभावित किया है. स्कीइंग के लिए बर्फ कम होती जा रही है. पर्वतीय मनोरंजन क्षेत्रों में स्कीइंग के लिए कृत्रिम बर्फ का इस्तेमाल किया जा रहा है, जो पर्यावरण के लिए बेहद हानिकारक है. बोलिविया को ही ले लीजिए, जहां पिछले 50 सालों में आधे ग्लेशियर पानी बन गए हैं.
जैसे-जैसे ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं आखिरकार नदियों और घाटियों में बहने वाले पानी की मात्रा कम होती जा रही है. स्थानीय किसानों को कम कृषि उपज का सामना करना पड़ रहा है. नेपाल में किसान सूखे खेतों की चुनौती से जूझ रहे हैं. उनके लिए आलू उगाना मुश्किल हो गया है. इसी तरह के कई अन्य हिल स्टेशन के किसानों ने गर्मियों की फसलों की खेती शुरू कर दी है. (रिपोर्ट: एलिस्टर वॉल्श)
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दोनों ही कंपनियों के वकीलों ने इस मामले पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया. उन्होंने कहा कि उनके मुवक्किन इस फैसले के खिलाफ अपील करने पर विचार कर रहे हैं. मुकदमे के दौरान कंपनियों ने दलील दी थी कि उन्होंने खनन के दौरान सारे नियमों का पालन किया था.
दुर्लभ है फैसला
भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कोयला उत्पादक देश है. हालांकि दुनियाभर में कोयले को अब बुरी नजर से देखा जाने लगा है और कई बड़े देश अपने यहां कोयले का इस्तेमाल बंद कर रहे हैं लेकिन भारत ने आने वाले कुछ दशकों तक कोयला उत्पदान और इस्तेमाल जारी रखने की बात कही है.
एक तथ्य यह भी है कि 2008 से भारत में 123 कोयला खदानें बंद हुई हैं. लेकिन इन खदानों के बंद होने के बाद उन जगहों का पर्यावरण बेहतर हुआ या नहीं, इस बारे में कोई ठोस सबूत उपलब्ध नहीं है. बिस्वाल के वकील सौरभ शर्मा ने एनजीटी के फैसले को इन प्रभावित समुदायों के पुनर्स्थापन की दिशा में एक नए युग की शुरुआत बताया.
शर्मा कहते हैं, "कंपनियों को इस तरह सजा मिलना बहुत दुर्लभ है. यह फैसला खदानों के इर्द-गिर्द रहने वाले समुदायों की समस्याओं को भी मान्यता देता है. हम उम्मीद करते हैं कि बिस्वाल और अन्य किसान अपने वातावरण और आजीविका के रूप में जो कुछ खनन के हाथों खो चुके हैं, उसका कुछ हिस्सा वापस पा सकेंगे.”
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विकास किसका हुआ?
बिस्वाल का घर संबलपुर जिले में हैं जहां खनिज भरपूर मात्रा में हैं. देश में ऐसे तमाम खनिज प्रधान इलाकों में बीते दशकों में आर्थिक और सामाजिक विकास नाममात्र को हुआ है और ये देश के सबसे गरीब और सबसे प्रदूषित इलाकों में शामिल हैं.
सखी ट्रस्ट नामक संस्था चलाने वालीं एम भाग्यलक्ष्मी कहती हैं कि खनन से प्रभावित समुदायों का पुनर्स्थापन सिर्फ एक दिखावा है. वह बताती हैं, "खदानों के बंद हो जाने के बाद भी समुदाय बेचारे ही रह जाते हैं और उन्हें पीने के साफ पानी जैसी मूलभूत चीजें भी नहीं मिल पातीं.”
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गरीब समुदायों की मदद के लिए स्थापित विशेष फंड आमतौर पर खर्च ही नहीं होता लिहाजा खनन प्रभावित क्षेत्र अविकसित रहते हैं. बिस्वाल इस बात की ताकीद करते हैं कि उनके समुदाय को खनन से कोई लाभ नहीं हुआ.
वह बताते हैं, "पहले हम साल में दो फसल उगाते थे. अब मुश्किल से कुछ सब्जियां उगा पाते हैं. खदानों से निकली मिट्टी से खड़े हुए पहाड़ों ने खेतों तक पहुंचना मुश्किल कर दिया है. हर जगह कोयले की धूल है. सिंचाई का पानी प्रदूषित हो चुका है.”
कैसे बंद हो खदान?
ट्राइब्यूनल ने सरकार को आदेश दिया है कि विशेषज्ञों की एक समिति बनाई जाए जो तालाबिरा-1 ब्लॉक में प्रभावितों को मुआवजा तय कर सके. समिति को तीन महीने के भीतर जीर्णोद्धार योजना भी तैयार करनी होगी. शर्मा बताते हैं कि बिस्वाल जैसे प्रभावित किसान समिति से अपने नुकसान के लिए मुआवजा मांग सकते हैं.
कोई भी कंपनी जब किसी कोयला खदान को बंद करती है तो उसके एक साल पहले उसे बताना होता है कि क्षेत्र का जीर्णोद्धार कैसे होगा, और इसके लिए पेड़ लगाने आदि जैसे क्या क्या कदम उठाए जाएंगे.
एनएफआई की रिपोर्ट तैयार करने वालों में शामिल काव्या सिंघल कहती हैं कि जब भी कोई खदान बंद होती है तो सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले वहां के मजदूर और आसपास रहने वाले समुदाय ही होते हैं. वह कहती हैं, "जब भी किसी कोयला खदान को बंद किया जाए तो सबसे पहला कदम उस क्षेत्र में मौजूद सारे खतरों को दूर करना होना चाहिए क्योंकि खनन के दौरान इलाके की हवा, पानी और जमीन बर्बाद हो चुकी होती है.”
कोल कंट्रोलर्ज ऑर्गनाइजेशन खदानों के बंद होने से जुड़े मामलों के लिए जिम्मेदार है. इस संबंध में ऑर्गनाइजेशन को खनन कंपनियों की जिम्मेदारी के संबंध में कुछ सवाल भेजे गए थे जिनका उन्होंने जवाब नहीं दिया.
वीके/एए (रॉयटर्स)
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