कोविड-19 का टीका लगाने वालों की संख्या बढ़ने के साथ साथ इसे न लगाने का इरादा कर चुके लोगों की संख्या भी लगता है कम नहीं है. आखिर टीका न लगाने के पीछे उनकी दलील क्या है?
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नहीं नहीं, फोटो मत खींचिए और नाम न पूछिए, प्लीज़! मैं कोई सनक भरी कॉन्सपरेसी थ्योरी नहीं चला रहा हूं. मुझे ये ठप्पा नहीं चाहिए. मुझे बस वैक्सीन नहीं लगवानी!”
"मुझे लगता है, ठीक है. आइये मिलते हैं...रिचर्ड और सुजान से.”
कोलोन शहर के बाहर एक पार्क में मुझे ये जोड़ा मिला. रिचर्ड पैकेजिंग इंडस्ट्री में काम करते हैं और सुजान एक अस्पताल में प्रशासनिक काम से जुड़ी हैं. दोनों 50 के हैं और कोविड-19 के लिहाज से हाई-रिस्क ग्रुप में आते हैं.
हम मिलने को इसलिए राजी हुए क्योंकि मैं ये भी समझना चाहता था कि आखिर वे वैक्सीन लगाने के खिलाफ क्यों हैं. मै खुद कोरोना के संक्रमण से उबर कर निकला हूं और मैने टीका भी लगवा लिया है.
मैंने वायरस और उसकी वैक्सीनों के बारे में बहुत लिखा है. और मैं सोचता हूं- कुछ लोग वैक्सीन क्यों नहीं लगाना चाहते हैं? उनकी चिंताएं क्या हैं? उन्हें कहां से जानकारी मिलती है और अपनी दलील वे कैसे पेश करते हैं?
शक करने वालों की बढ़ती संख्या
रिचर्ड कहते हैं, "मुझे लगता है कि वैक्सीन मेरी देह में एक बहुत बड़ा दखल है. हर किसी को ये निर्णय करने का हक होना चाहिए. और सिर्फ इसलिए कि आप वैक्सीन नहीं लगवाना चाहते हैं इसका मतलब ये नही है कि आप गैरजिम्मेदार हैं या जिंदगी से थक चुके हैं.” सुजान, रिचर्ड की हां में हां मिलाती हैं.
ऐसा सोचने वाला ये अकेला जोड़ा नहीं है. और भी लोग हैं. 15 जुलाई तक के आंकड़ों के मुताबिक जर्मनी में करीब आधी आबादी (45 प्रतिशत) को टीके की दोनो डोज लग चुकी हैं और आधे से ज्यादा लोगों (59 प्रतिशत) को पहली डोज लग चुकी है. फिर भी टीकाकरण की दर में गिरावट आ रही है.
रिचर्ड और सुजान ये नहीं कहते कि वे वैक्सीन के सिद्धांत के खिलाफ रहे हैं. बचपन में उन्हें नियमित टीके लग चुके हैं. लेकिन उनका कहना है कि कोविड-19 के टीकों पर उन्हें भरोसा नहीं है. उनके दोस्तों और सहयोगियों को ये बात समझ नहीं आती.
वे कहते हैं कि उन्होंने खारिज कर दिए जाने और समझ की कमी का अनुभव किया है. सुजान अपना क्षोभ जाहिर करते हुए कहती हैं, "उन्हें लगता है कि वैक्सीन लगाने से वे अमर हो जाएंगे. लेकिन वैक्सीन लगाने के बावजूद भी उन्हें इंफेक्शन हो सकता है.”
तस्वीरों मेंः कोविड के खिलाफ कुछ कामयाबियां
कोविड के खिलाफ कुछ कामयाबियां
कोविड के खिलाफ वैज्ञानिकों का संघर्ष जारी है. दुनिया भर के वैज्ञानिक अलग-अलग दिशाओं में शोध कर रहे हैं ताकि वायरस को बेहतर समझा जा सके और उससे लड़ा जा सके. जानिए, हाल की कुछ सफलताओं के बारे में.
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स्मेल से कोविड टेस्ट
कोरोनावायरस से संक्रमित होने पर अक्सर मरीज की सूंघने की शक्ति चली जाती है. अब वैज्ञानिक इसे कोविड का पता लगाने की युक्ति बनाने पर काम कर रहे हैं. एक स्क्रैच-ऐंड-स्निफ कार्ड के जरिए कोविड का टेस्ट किया गया और शोध में सकारात्मक नतीजे मिले. शोधकर्ताओं का कहना है कि यह नाक से स्वॉब लेकर टेस्ट करने से बेहतर तरीका हो सकता है.
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मां के दूध में वैक्सीन नहीं
कोविड वैक्सीन के अंश मां के दूध में नहीं पाए गए हैं. टीका लगवा चुकीं सात महिलाओं से लिए गए दूध के 13 नमूनों की जांच के बाद वैज्ञानिकों ने पाया है कि यह वैक्सीन किसी भी रूप में दूध के जरिए बच्चे तक नहीं पहुंचती.
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नाक से दी जाने वाली वैक्सीन
कोविड-19 की एक ऐसी वैक्सीन का परीक्षण हो रहा है, जिसे नाक से दिया जा सकता है. इसे बूंदों या स्प्रे के जरिए दिया जा सकता है. बंदरों पर इस वैक्सीन के सकारात्मक नतीजे मिले हैं.
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लक्षणों से पहले कोविड का पता चलेगा
वैज्ञानिकों ने एक ऐसे जीन का पता लगाया है जो कोविड के साथ ही मनुष्य के शरीर में सक्रिय हो जाता है. कोविड के लक्षण सामने आने से पहले ही यह जीन सक्रिय हो जाता है. यानी इसके जरिए गंभीर लक्षणों के उबरने से पहले भी कोविड का पता लगाया जा सकता है. छह महीने चले अध्ययन के बाद IF127 नामक इस जीन का पता चला है.
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कैंसर मरीजों पर वैक्सीन का असर
एक शोध में पता चला है कि कैंसर का इलाज करवा रहे मरीजों पर वैक्सीन का अच्छा असर हो रहा है. हालांकि एंटिबॉडी के बनने में वक्त ज्यादा लग रहा था लेकिन दूसरी खुराक मिलने के बाद ज्यादातर कैंसर मरीजों में एंटिबॉडी वैसे ही बनने लगीं, जैसे सामान्य लोगों में.
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कोविड के बाद की मुश्किलें
वैज्ञानिकों ने एक शोध में पाया है कि जिन लोगों को कोविड के कारण अस्पताल में भर्ती होना पड़ा, उनमें से लगभग आधे ऐसे थे जिन्हें ठीक होने के बाद भी किसी न किसी तरह की सेहत संबंधी दिक्कत का सामना करना पड़ा. इनमें स्वस्थ और युवा लोग भी शामिल थे. 24 प्रतिशत को किडनी संबंधी समस्याएं हुईं जबकि 12 प्रतिशत को हृदय संबंधी.
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नपा-तुला जोखिम?
लेकिन मैं कहता हूं, वैक्सीन आपमें गंभीर संक्रमण का जोखिम कम कर देती है.
रिचर्ड कहते हैं, "हो सकता है ऐसा होता हो लेकिन ये जोखिम के साथ फायदा देखने वाला हिसाब-किताब है बस, और कुछ नहीं. लेकिन ये हो भी जाए...मेरे बहुत से सहकर्मी और दोस्त हैं जिन्हें कोविड-19 था और उनके लक्षण या तो कमजोर थे या वो एक सामान्य फ्लू जैसा था.”
सुजान बीच में टोकती हैं, "मीडिया में गंभीर मामलों और मौतों की खबरें आप सुनते हैं कि लोग या तो सीधे तौर पर या अप्रत्यक्ष तरीके से कोविड-19 की वजह से मरे हैं. लेकिन तब आप पूछें कि उनकी उम्र क्या थी, तो आपको पता चलेगा कि वे 80-90 के हो चुके थे. अब ये दलील मुझे वैक्सीन लेने के लिए नहीं प्रेरित करती.”
जर्मनी के संघीय सांख्यिकीय कार्यालय के मुताबिक पिछले साल देश में कोविड-19 से 36,300 लोगों की मौत हुई थी. अपनी सबसे ताजा रिपोर्ट में कार्यालय कहता है कि 2020 के 30,100 मामलों में कोविड-19 कारण था. और 6,200 मामलों में अन्य बीमारियों के साथ कोविड-19 में भी एक बीमारी थी.
कोविड इंफेक्शन से मरने वाले अधिकांश लोग वाकई उम्रदराज या बुजुर्ग थे. लेकिन मरने वाले अकेले वही नहीं थे. लेकिन रिचर्ड और सुजान का इस पर तर्क है कि इसका संबंध इस बात से भी है कि आपका रहन-सहन कैसा है.
वह कहते हैं, "हम लोग शहर में नहीं रहते हैं, क्लब वगैरा नहीं जाते हैं और हर किसी से मुलाकात में गले नहीं लगते. हम नापतौल कर जोखिम उठाते हैं.”
देखिएः कहां कहां पहुंची वैक्सीन
कहां कहां पहुंची वैक्सीन
कोविड-19 वैक्सीन को लोगों तक पहुंचाने के लिए दुनियाभर के सैकड़ों स्वास्थ्यकर्मी दूभर यात्राएं कर रहे हैं. उनका काम है वैक्सीन को उन जगहों पर ले जाना जहां आना-जाना आसान नहीं है. मिलिए, ऐसे ही लोगों से.
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पहाड़ की चढ़ाई
दक्षिणी तुर्की में दूर-दराज पहाड़ी इलाकों में रहने वाले लोगों तक वैक्सीन पहुंचाने के लिए सिर्फ स्वास्थ्यकर्मी होना काफी नहीं है. उन्हें शारीरिक रूप से तंदुरुस्त और मजबूत भी होना पड़ता है क्योंकि पहाड़ चढ़ने पड़ते हैं. डॉ. जैनब इरेल्प कहती हैं कि लोग अस्पताल जाना पसंद नहीं करते तो हमें उनके पास जाना पड़ता है.
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बर्फीली यात्राएं
पश्चिमी इटली के ऐल्पस पहाड़ी के मारिया घाटी में कई बुजुर्ग रहते हैं जो वैक्सिनेशन सेंटर तक नहीं पहुंच सकते. 80 साल से ऊपर के लोगों को घर-घर जाकर वैक्सीन लगाई जा रही है.
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हवाओं के उस पार
अमेरिका के अलास्का में यह नर्स युकोन नदी के किनारे बसे कस्बे ईगल जा रही है. उसके बैग में कुछ ही वैक्सीन हैं क्योंकि ईगल सौ लोगों का कस्बा है जहां आदिवासी लोग रहते हैं. उन्हें प्राथमिकता दी जा रही है.
तस्वीर: Nathan Howard/REUTERS
मनाना भी पड़ता है
दक्षिणी-पश्चिमी कोलंबिया के पहाड़ी इलाकों में 49 साल के ऐनसेल्मो टूनूबाला का काम सिर्फ वैक्सीन ले जाना नहीं है. उन्हें वैक्सीन की अहमियत भी समझानी पड़ती है क्योंकि कुछ आदिवासी समूह दवाओं से ज्यादा जड़ी-बूटियों पर भरोसा करते हैं.
तस्वीर: Luis Robayo/AFP
कई-कई घंटे चलना
मध्य मेक्सिको नोवा कोलोन्या इलाके में ये लोग चार घंटे पैदल चलकर टीकाकरण केंद्र पहुंचे. ये हुइशोल आदिवासी समूह के लोग हैं.
तस्वीर: Ulises Ruiz/AFP/Getty Images
नाव में सेंटर
ब्राजील के रियो नेग्रो में नोसा सेन्योरा डो लिवरामेंटो समुदाय के लोगों तक वैक्सीन नाव पर बने एक टीकाकरण केंद्र के जरिए पहुंची है.
तस्वीर: Michael Dantas/AFP
अंधेरे में उजाला
ब्राजील के इस आदिवासी इलाके में बिजली नहीं पहुंची है लेकिन वैक्सीन पहुंच गई है. 70 साल की रैमुंडा नोनाटा को वैक्सीन की पहली खुराक मोमबत्ती की रोशनी में मिली.
तस्वीर: Tarso Sarraf/AFP
झील के उस पार
यूगांडा की सबसे बड़ी झील बनयोन्यनी के ब्वामा द्वीप पर रहने वालों को वैक्सीन लगवाने के लिए नाव से आना पड़ता है.
तस्वीर: Patrick Onen/AP Photo/picture alliance
सब जल-थल
जिम्बाब्वे के जारी गांव में पहुंचने के लिए बनी सड़क टूट गई है. नदी पार करने का यही तरीका है लेकिन वैक्सीन तो पहुंचेगी.
तस्वीर: Tafadzwa Ufumeli/Getty Images
जापान के गांव
जापान में शहर भले चकाचौंध वाले हों, आज भी बहुत से लोग दूर-दराज इलाकों में रहते हैं. जैसे किटाएकी में इस बुजुर्ग के लिए स्वास्थ्यकर्मी घर आए हैं टीका लगाने.
तस्वीर: Kazuhiro Nogi/AFP
बेशकीमती टीके
इंडोनेशिया में टीकाकरण जनवरी में शुरू हो गया था. बांडा आचेह से मेडिकल टीम नाव के रास्ते छोटे छोटे द्वीपों पर पहुंची. टीके इतने कीमती हैं कि सेना मेडिकल टीम के साथ गई.
तस्वीर: Chaideer Mahyuddin/AFP
दूसरी लहर के बीच
भारत में जब कोरोना वायरस चरम पर था, तब वैक्सीनेशन जारी था. लेकिन ब्रह्मपुत्र नदी पर स्थित बहाकजरी गांव में मेडिकल टीम के पास पहुंचे लोग मास्क आदि से बेपरवाह दिखाई दिए. (ऊटा श्टाइनवेयर)
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वैक्सीन के प्रति इच्छा पर कोस्मो का अध्ययन
वैक्सीन लगाने के प्रति जर्मनी में लोगों की दिलचस्पी कम हो रही है. कोस्मो नाम के एक अध्ययन में 41 फीसदी लोगों ने कहा कि वे वैक्सीन लगावाना चाहते हैं. जून की शुरुआत में ये संख्या ज्यादा थी. तब 57 प्रतिशत लोगों को वैक्सीन लगवाने से कोई गुरेज नहीं था.
रॉबर्ट कोष इन्स्टीट्यूट और दूसरी शोध संस्थाओं के साथ एरफुर्ट यूनिवर्सिटी के इस अध्ययन में 1011 लोग शामिल किए गए थे.
इनमें से कई लोग, ठीक रिचर्ड और सुजान की तरह, नफा नुकसान तौलना चाहते थे. उन्हें टीके में भरोसा नही था या उन्हें लगता था कि दूसरे बहुत से लोगों को टीका लग जाने के बाद उन्हें चिंतित होने की जरूरत नहीं.
सुजान कहती हैं, "अगर आपको कोविड-19 की चिंता है तो वैक्सीन लगवा लीजिए. लेकिन मुझे संक्रमण होने की आशंका काफी कम है, क्योंकि इतने सारे लोगों ने टीका जो लगवा लिया है.”
तस्वीरों मेंः टीका लगवाने पर दावत
कोरोना का टीका लगाने पर "दावत"
लंबे समय के बाद लॉकडाउन खत्म हुआ है, इसलिए सर्बिया में रेस्तरां खुल गए हैं. हालांकि, पूरे देश में अभी भी टीकाकरण गतिविधियां जारी हैं. ऐसे में शहर के एक रेस्तरां ने एक खास पेशकश की है.
तस्वीर: MARKO DJURICA/REUTERS
टीका लगवाओ और भुना गोश्त पाओ
वैक्सीनेशन को बढ़ावा देने के लिए सर्बिया के क्रागुएवात्स शहर में रेस्तरां मालिक स्ताव्रो रासकोविच ने उन लोगों को मुफ्त में स्थानीय व्यंजन खाने का मौका दिया जिन लोगों ने कोरोना की वैक्सीन लगवा ली. इसके जरिए रासकोविच ने लोगों को धन्यवाद करने की कोशिश की.
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वैक्सीन और खाना
लॉकडाउन की वजह से देश के रेस्तरां, कैफे और बार बुरी तरह प्रभावित हुए. इस साल भी कोरोना को लेकर पाबंदियां लगाई गई थीं, अब पाबंदियां हटा ली गईं हैं और ऐसे में स्ताव्रो रासकोविच ने इस मौके पर लोगों को रेस्तरां के बाहर खाना पेश किया, रेस्तरां के भीतर लोगों को वैक्सीन दी जा रही.
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रेस्तरां में दो टीके
स्थानीय स्वास्थ्य अधिकारियों ने रेस्तरां के मुख्य हॉल को एक टीकाकरण केंद्र में बदल डाला है. यहां पर लोगों को फाइजर-बायोएनटेक की वैक्सीन और चीन की सिनोफार्म वैक्सीन दी जा रही है. टीका लगवाने के बाद लोग भुने गोश्त का आनंद ले सकते हैं.
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टीकाकरण पर जोर
सर्बिया ने पिछले साल दिसंबर में ही पूरे देश में टीकाकरण अभियान की शुरुआत की थी. उसने जनता को फाइजर-बायोएनटेक, एस्ट्राजेनेका, स्पुतनिक वी या फिर सिनोफार्म की वैक्सीन लेने का विकल्प दिया.
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इतिहास का हिस्सा
बीयर के साथ रोस्टेड मीट का आनंद लेते 63 साल के बेन यायिक रासकोविच की पहल की सराहना करते हैं और कहते हैं, "एक दिन कोई कहेगा कि बेन अंकल ने यहीं टीका लगवाया था." 70 लाख की आबादी वाले देश में करीब एक तिहाई लोगों को कोरोना वैक्सीन की पहली खुराक दी जा चुकी है.
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डिस्काउंट वाउचर
सर्बिया की राजधानी बेलग्रेड में तो एक शॉपिंग मॉल ने वैक्सीनेशन को बढ़ावा देने के लिए डिस्काउंट वाउचर देने का ऐलान किया. मॉल में वैक्सीन लगवाने वालों की भीड़ लग गई और पहले 100 लोगों को करीब 30 डॉलर का वाउचर भी मिला.
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कोरोना टेस्ट पर बीयर
डेनमार्क की राजधानी कोपनहेगन में एक बार ऐसे लोगों को बीयर पिलाता है जो उनके बार में कोरोना के लिए एंटीजेन टेस्ट करवाने के लिए आते हैं. बार का मानना है कि इस तरह से उसका कारोबार चल पड़ेगा.
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मीडिया में तोड़मरोड़ कर पेश सूचनाएं
रिचर्ड और सुजान को ये भी लगता है कि मीडिया ने कोविड-19 के खतरों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया है.
रिचर्ड के मुताबिक, "हर बार वही एक्सपर्ट और वही बार वही राय.” वह कहते हैं, "जाहिर है, भारत से आई तस्वीरें स्तब्ध कर देने वाली थीं लेकिन क्या हम वाकई अपने हालात की तुलना उनके साथ कर सकते हैं? वहां के हाइजीन का स्तर देखिए और उनके अस्पतालों की भीषण बदहाली देखिए! मुझे तो लगता है कि वहां हर बीमारी तबाही में तब्दील हो जाती होगी. लेकिन यहां तो ऐसा नहीं है.”
बात को आगे बढ़ाती हुई सुजान कहती हैं, "एस्ट्राजेनेका को लेकर वो सारा टंटा देखिए- विरोधाभासी बयान आ रहे थे. या मिली-जुली वैक्सीन का मामला देखिए.” वह इस ओर इशारा करती हैं कि कैसे जानकार और एजेंसियां पहले मिली-जुली वैक्सीन के खिलाफ थे लेकिन अब आंशिक रूप से उसका समर्थन करते हैं.
वह आगे कहती हैं, "और बच्चों के लिए वैक्सीन... अमेरिका में कुछ सौ सवा सौ बच्चों पर कोशिश की गई. और इसका आधार ये था कि एफडीए (अमेरिका का फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन) ने ये तय कर लिया था कि सभी बच्चों और किशोरों को टीका लगाना सही है. यूरोप के कुछ देश भी बच्चों को टीका लगाने को तैयार हैं लेकिन कई एजेंसियां अब भी मानती हैं कि ये काफी जोखिम भरा है. और इसे ‘विज्ञान पर आधारित' बताया जा रहा है है, क्या वाकई ऐसा है?”
बार बार अपनी दलीलें दोहराते हुए दोनों काफी उत्तेजित भी हो रहे थे. समझा जा सकता है कि इस बारे में अक्सर लोगों से उनकी कहा-सुनी हो जाती होगी.
सुजान कहती हैं, "हम दोनों ने बेशक इन तमाम मुद्दों के बारे में सोचने में काफी सारा समय लगाया है. किसी नासमझ की तरह जाकर टीका नहीं ले लिया.”
तस्वीरों मेंः वैक्सीन के साइड इफेक्ट
कोरोना वैक्सीन के हैं ये साइड इफेक्ट
कोरोना की वैक्सीन जितनी जल्दबाजी में बनी हैं, उसे देखते हुए कई लोगों के मन में सवाल उठ रहा है कि इसे लेना ठीक भी रहेगा या नहीं. जानिए कौन सी कंपनी की वैक्सीन के क्या साइड इफेक्ट हैं ताकि आपके सभी शक दूर हो जाएं.
कुछ सामान्य साइड इफेक्ट
कोई भी टीका लगने के बाद त्वचा का लाल होना, टीके वाली जगह पर सूजन और कुछ वक्त तक इंजेक्शन का दर्द होना आम बात है. कुछ लोगों को पहले तीन दिनों में थकान, बुखार और सिरदर्द भी होता है. इसका मतलब होता है कि टीका अपना काम कर रहा है और शरीर ने बीमारी से लड़ने के लिए जरूरी एंटीबॉडी बनाना शुरू कर दिया है.
तस्वीर: Robin Utrecht/picture alliance
बड़े साइड इफेक्ट का खतरा?
अब तक जिन जिन टीकों को अनुमति मिली है, परीक्षणों में उनमें से किसी में भी बड़े साइड इफेक्ट नहीं मिले हैं. यूरोप की यूरोपियन मेडिसिन्स एजेंसी (ईएमए), अमेरिका की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) और विश्व स्वास्थ्य संगठन तीनों ने इन्हें अनुमति दी है. एक दो मामलों में लोगों को वैक्सीन से एलर्जी होने के मामले सामने आए थे लेकिन परीक्षण में हिस्सा लेने वाले बाकी लोगों में ऐसा नहीं देखा गया.
तस्वीर: Mark Lenninhan/AFP/Getty Images
बायोनटेक फाइजर
जर्मनी और अमेरिका ने मिलकर जो टीका बनाया है वह बाकी टीकों से अलग है. वह एमआरएनए का इस्तेमाल करता है यानी इसमें कीटाणु नहीं बल्कि उसका सिर्फ एक जेनेटिक कोड है. यह टीका अब कई लोगों को लग चुका है. अमेरिका में एक और ब्रिटेन में दो लोगों को इससे काफी एलर्जी हुई. इसके बाद ब्रिटेन की राष्ट्रीय दवा एजेंसी एमएचआरए ने चेतावनी दी कि जिन लोगों को किसी भी टीके से जरा भी एलर्जी रही हो, वे इसे ना लगवाएं.
तस्वीर: Jacob King/REUTERS
मॉडेर्ना
अमेरिकी कंपनी मॉडेर्ना का टीका भी काफी हद तक फाइजर के टीके जैसा ही है. परीक्षण में हिस्सा लेने वाले करीब दस फीसदी लोगों को थकान महसूस हुई. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जिनके चेहरे की नसें कुछ वक्त के लिए पेरैलाइज हो गई. कंपनी का कहना है कि अब तक यह साफ नहीं हो पाया है कि ऐसा टीके में मौजूद किसी तत्व के कारण हुआ या फिर इन लोगों को पहले से ऐसी कोई बीमारी थी जो टीके के कारण बिगड़ गई.
तस्वीर: Dado Ruvic/Reuters
एस्ट्रा जेनेका
ब्रिटेन और स्वीडन की कंपनी एस्ट्रा जेनेका के टीके के परीक्षण को सितंबर में तब रोकना पड़ा जब उसमें हिस्सा लेने वाले एक व्यक्ति ने रीढ़ की हड्डी में सूजन की बात बताई. इसकी जांच के लिए बाहरी एक्सपर्ट भी बुलाए गए जिन्होंने कहा कि वे यकीन से नहीं कह सकते कि सूजन की असली वजह वैक्सीन ही है. इसके अलावा बाकी के टीकों की तरह यहां भी ज्यादा उम्र के लोगों में बुखार, थकान जैसे लक्षण कम देखे गए हैं.
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स्पूतनिक वी
रूस की वैक्सीन स्पूतनिक वी को अगस्त में ही मंजूरी दे दी गई थी. किसी भी टीके को तीन दौर के परीक्षणों के बाद ही बाजार में लाया जाता है, जबकि स्पूतनिक के मामले में दूसरे चरण के बाद ही ऐसा कर दिया गया. रूस के अलावा यह टीका भारत में भी दिया जाना है. जानकारों की शिकायत है कि इसके पूरे डाटा को सार्वजनिक नहीं किया गया है, इसलिए साइड इफेक्ट्स के बारे में ठीक से नहीं बताया जा सकता.
भारत बायोटेक की कोवैक्सीन भी स्पूतनिक की तरह विवादों में घिरी है. सरकार ने इसे इमरजेंसी इस्तेमाल के लिए अनुमति दी है लेकिन इसके भी तीसरे चरण के परीक्षणों के बारे में जानकारी नहीं है और ना ही यह बताया गया है कि यह कितनी कारगर है. भारत में महामारी पर नजर रख रही संस्था सेपी की अध्यक्ष गगनदीप कांग ने कहा है कि वे सरकार के फैसले को समझ नहीं पा रही हैं और अपने करियर में उन्होंने कभी ऐसा होते नहीं देखा.
तस्वीर: Sajjad Hussain/AFP/Getty Images
बच्चों के लिए टीका?
आम तौर पर पैदा होते ही बच्चों को टीके लगने शुरू हो जाते हैं लेकिन कोरोना के टीके के मामले में ऐसा नहीं होगा. इसकी दो वजह हैं: एक तो बच्चों पर इसका परीक्षण नहीं किया गया है और ना ही इसकी अनुमति है. और दूसरा यह कि महामारी की शुरुआत से बच्चों पर कोरोना का असर ना के बारबार देखा गया है. इसलिए बच्चों को यह टीका नहीं लगाया जाएगा. साथ ही गर्भवती महिलाओं को भी फिलहाल यह टीका नहीं दिया जाएगा.
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सुरक्षित टीका क्या होता है?
जर्मनी में कोरोना पर नजर रखने वाले रॉबर्ट कॉख इंस्टीट्यूट की वैक्सीनेशन कमिटी के सदस्य के सदस्य क्रिस्टियान बोगडान बताते हैं कि किसी टीके से अगर एक वृद्ध व्यक्ति की उम्र 20 प्रतिशत घटती है लेकिन साथ ही अगर 50 हजार में से सिर्फ एक व्यक्ति को उससे एलर्जी होती है, तो वे ऐसे टीके को सुरक्षित मानेंगे. उनके अनुसार यूरोप में इसी पैमाने पर टीकों को अनुमति दी जा रही है.
तस्वीर: Sven Hoppe/dpa/picture alliance
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नौकरी के लिए जरूरी टीकाकरण
कोस्मो अध्ययन के शोधकर्ता कहते हैं कि कार्यस्थलों या शिक्षा सेक्टर में अभियान चलाने से टीकाकरण हासिल करने में सुधार आएगा. अपनी रिपोर्ट में जानकारों ने लिखा है कि इसके जरिए लोगों के उन विभिन्न समूहों तक पहुंचने में आसानी होगी जो दूसरे बहुत से लोगों के संपर्क में रहते हैं.
जब मैंने सुजान और रिचर्ड से कहा कि कुछ दफ्तरों में तो वैक्सीनेशन को अनिवार्य बनाया जा रहा है तो वे संजीदा हो गए. सुजान कहती हैं, "ये तो बड़ी दिक्कत की बात है. हर किसी को तो वैक्सीन नहीं चाहिए, लेकिन समझा जा सकता है कि हमारे नियोक्ता इसकी मांग करे. और अगर आप मना करें तो उनके पास आपको हटाने का आधार हो जाएगा या आपका कॉन्ट्रेक्ट नहीं बढ़ाया जाएगा. रूस में यही हुआ. यहां ये शायद कानूनी न हो लेकिन संभव तो है.”
सुजान आगे कहती हैं, "मैं अपने इम्प्लॉयर के जरिए अभी इस वक्त टीका ले सकती हूं.”
और ऐसा कहने के बाद कुछ पल के लिए खामोशी छा गई. हम लोगों ने पार्क में दूसरे लोगों की ओर देखा जो लगता था कि अपनी फिर से हासिल सामान्य जीवन का आनंद उठा रहे हैं.
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अलविदा के शब्द और उलझनें कायम
स्वस्थ रहिए,” सुजान और रिचर्ड से विदा लेते हुए मैंने कहा.
थोड़ा खिन्न से दिखते जोड़े ने कहा, हां में सिर हिलायाः "आप भी,” उन्होंने कहा. "और प्लीज हमें सनकी मत लिखिएगा. हमें बस यही लगता है कि हर किसी को अपने बारे में फैसला करने का हक है कि उन्हें टीका लेना है या नहीं. ये फैसला हमारा है, जोखिम हमारा है और बाकी हर किसी को भी इसे मान लेना चाहिए.”
मैंने पार्क में बैठे दोनों लोगों से विदा ली और सोचने लगा कि क्या उन्हें अपनी राय बदलने के लिए मुझे जोर देना चाहिए था. और अगर हां तो कैसे? मै सोचता हूं कि उनका वैक्सीन स्टेटस मेरी चिंता होनी भी चाहिए या नहीं और उन्हें किस हद तक अपने बारे में फैसला करने की छूट मिलनी चाहिए.
सुजान और रिचर्ड के साथ अपनी बातचीत से मैंने ये नतीजा निकाला कि मीडिया में आ रही भ्रामक और एकतरफा सूचनाओं से दोनों खासे परेशान और खिन्न हैं और उन्हीं वजहों से चिंतित और असुरक्षित महसूस करते हैं.
लेकिन उनकी बहुत सी दलीलें अब भी मेरी समझ से बाहर हैं. मेरे तर्क भी उन्हें विचलित या प्रभावित नहीं कर पाए. मैं खुद भी उलझन में हूं और आखिरकार कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है. शायद वे भी महसूस कर रहे होंगे.