वैक्सीन के ट्रायल में औरतों की भागीदारी क्यों नहीं?
६ अगस्त २०२१
दुनिया भर में पुरुषों के मुकाबले औरतों में कोविड के टीकों के खराब साइड इफेक्ट ज्यादा हुए हैं. लेकिन इस बारे में सटीक डाटा मिल पाना कठिन है- ज्यादातर अध्ययन जेंडर और सेक्स की अनदेखी करते हैं.
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कोविड टीकों के गंभीर दुष्प्रभाव बहुत ही दुर्लभ हैं. अधिकांश लोगों में वैक्सीन लगने के कुछ दिन बाद हल्का-फुल्का रिएक्शन देखने में या, जैसे कि हल्का बुखार या मांसपेशियों में दर्द. स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि ये हमारी देह के वे लक्षण हैं जिनसे पता चलता है कि वह अपनी प्रतिरोधक क्षमता तैयार कर रही है और हम आने वाले संक्रमणों से टीके की मदद से सुरक्षित रह पाएंगे.
अमेरिका में, स्वास्थ्य अधिकारियों का कहना है कि टीका लगवा चुके 0.001 प्रतिशत से भी कम लोगों में बहुत ज्यादा रिएक्शन देखा गया जैसे कि एलर्जी. लेकिन लोगों में साइड इफेक्ट होते हैं. और डाटा बताता है कि महिलाओं में पुरुषों के मुकाबले साइड इफेक्ट के मामले ज्यादा देखे जा रहे हैं. वैक्सीनेशन के पूरे इतिहास में यही ट्रेंड देखा जा रहा है.
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जुदा है महिलाओं की प्रतिरोध प्रणाली
जून में स्विस सरकार ने एक डाटा रिलीज किया था जिसके मुताबिक टीकों से होने वाले 68.7 प्रतिशत साइड इफेक्ट महिलाओं की ओर से बताए गए थे. अमेरिका में पहली एक करोड़ 37 लाख खुराकों में से 79.1 प्रतिशत शिकायतें साइड इफेक्ट की थीं- इनमें से 61.2 प्रतिशत मामले महिलाओं के थे.
नॉर्वे में अप्रैल की शुरुआत में जिन सात लाख 22 हजार लोगों को टीका लगा उनमें 83 प्रतिशत शिकायतें साइड इफेक्ट की आईं. ये कुछ मुट्ठी भर नमूने हैं. महिलाओं को होनेवाले साइड अफेक्ट पर डाटा लगभग है ही नहीं.
लेकिन वियना की मेडिकल यूनिवर्सिटी में न्यूरोइम्यूनोलजिस्ट मारिया टेरेसा फेरेटी कहती हैं कि हमारे पास उपलब्ध डाटा चौंकाता नहीं है. फेरेटी ने विमिन ब्रेन प्रोजेक्ट नाम से गैरसरकारी संगठन शुरू किया था.
वह कहती हैं कि पुरुषों और महिलाओं में वैक्सीनेशन के प्रति अलग अलग प्रतिक्रिया होती है. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "दूसरे वायरसों के टीकों से हम जानते हैं कि टीका लगने के बाद महिलाओं के शरीर में ज्यादा एंटीबॉडी बनती हैं, इसका मतलब ये है कि उन्हें ज्यादा साइड इफेक्ट हो सकते हैं.”
1990 से 2016 के दरमियान, 26 साल के एक अध्ययन के मुताबिक टीकों से जो ऐनफलैक्टिक प्रतिक्रिया वयस्कों में होती हैं उनमें 80 प्रतिशत महिलाएं होती हैं. 2009 में स्वाइन फ्लू की महामारी के दौरान एच1एन1 वैक्सीन से महिलाओं में एलर्जी होने की घटनाएं चार गुना अधिक थीं. दूसरे शोधों से भी पता चलता है कि सेक्स हॉर्मोन मनुष्य की प्रतिरोध प्रणाली को प्रभावित कर सकते हैं.
एक मजबूत इम्यून रिस्पॉन्स के चलते ही महिलाओ में ऑटोइम्यून बीमारियों की आशंका, पुरुषों की तुलना में ज्यादा होती है. ऑटोइम्यून होने का मतलब जब शरीर जरूरत से ज्यादा प्रतिरोध दिखाने लग जाता है और उन चीजों पर ही हमला करने लगता है जिनकी उसे वाकई जरूरत होती है.
चमगादड़ों का सुपरपावर
06:33
बायोलॉजिकल सेक्स और जेंडर ‘इंटरसेक्ट'
ये फर्क उस अपेक्षाकृत बड़ी तस्वीर का हिस्सा है कि कैसे जैविक सेक्स और जेंडर- दोनों हमारी सेहत पर असर डालते हैं. ये कहना है अमेरिका के जॉन्स होपकिन्स ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ में जेंडर और हेल्थ रिसर्चर रोजमेरी मॉर्गन का.
महिलाओ में वैक्सीन के सबसे बुरे साइड इफेक्ट दिखने की ज्यादा संभावना होती है, तो पुरुषों में कोविड के गंभीर मामलों में अस्पताल में भर्ती होने की आशंका ज्यादा होती है. और ज्यादा पुरुष कोविड से मरते हैं.
देखिएः कोविड इलाज पर कितना खर्च
कितना खर्च हुआ कोविड के इलाज पर
एक नए अध्ययन में पाया गया है कि भारत में कोविड के इलाज पर हुआ औसत खर्च आम आदमी की सालाना आय से परे है. आइए जानते हैं आखिर कितना खर्च सामने आया इस अध्ययन में.
तस्वीर: Adnan Abidi/REUTERS
भारी खर्च
पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया और ड्यूक ग्लोबल हेल्थ इंस्टिट्यूट के इस अध्ययन में सामने आया कि अप्रैल 2020 से जून 2021 के बीच एक औसत भारतीय परिवार ने जांच और अस्पताल के खर्च पर कम से कम 64,000 रुपए खर्च किए. अध्ययन के लिए दामों के सरकार द्वारा तय सीमा को आधार बनाया गया है.
तस्वीर: Adnan Abidi/REUTERS
महीनों की कमाई
भारत में एक औसत वेतन-भोगी, स्वरोजगार वाले या अनियमित कामगार के लिए कोविड आईसीयू का खर्च कम से कम उसके सात महिने की कमाई के बराबर पाया गया. अनियमित कामगारों पर यह बोझ 15 महीनों की कमाई के बराबर है.
तस्वीर: Pradeep Gaur/Zuma/picture alliance
आय के परे
आईसीयू में भर्ती कराने के खर्च को 86 प्रतिशत अनियमित कामगारों, 50 प्रतिशत वेतन भोगियों और स्वरोजगार करने वालों में से दो-तिहाई लोगों की सालाना आय से ज्यादा पाया गया. इसका मतलब एक बड़ी आबादी के लिए इस खर्च को उठाना मुमकिन ही नहीं है.
तस्वीर: Pradeep Gaur/Zumapress/picture alliance
सिर्फ आइसोलेशन भी महंगा
सिर्फ अस्पताल में आइसोलेशन की कीमत को 43 प्रतिशत अनियमित कामगार, 25 प्रतिशत स्वरोजगार वालों और 15 प्रतिशत वेतन भोगियों की सालाना कमाई से ज्यादा पाया गया. अध्ययन में कोविड की वजह से आईसीयू में रहने की औसत अवधि 10 दिन और घर पर आइसोलेट करने की अवधि को सात दिन माना गया.
तस्वीर: Reuters/F. Mascarenhas
महज एक जांच की कीमत
निजी क्षेत्र में एक आरटीपीसीआर टेस्ट की अनुमानित कीमत, यानी 2,200 रुपए, एक अनियमित कामगार के एक हफ्ते की कमाई के बराबर पाई गई. अमूमन अगर कोई संक्रमित हो गया तो एक से ज्यादा बार टेस्ट की जरूरत पड़ती है. साथ ही परिवार में सबको जांच करवानी होगी, जिससे परिवार पर बोझ बढ़ेगा.
अध्ययन में कहा गया कि इन अनुमानित आंकड़ों को कम से कम खर्च मान कर चलना चाहिए, क्योंकि सरकार रेटों में कई अपवाद हैं और इनमें से अधिकतर का पालन भी नहीं किया जाता. इनमें यातायात, अंतिम संस्कार आदि पर होने वाले खर्च को भी नहीं जोड़ा गया है.
जैविक फैक्टर हमारे प्रतिरोध तंत्र को प्रभावित करते हैं- जैविक तौर पर हम पुरुष के रूप में पैदा हुए हैं, स्त्री के रूप में या उभयलिंगी के रूप में. मिसाल के लिए पुरुषों की प्रतिरोध प्रणाली के अपने खास मुद्दे होते हैं जो स्त्री देह पर लागू नहीं होते हैं. उदाहरण के लिए, टेस्टोस्टेरोन इम्यूनो-सप्रेसिव हो सकते हैं.
लेकिन जेंडर- जिसे कि एक सामाजिक रचना माना जाता है, हमारे जेहन का एक ख्याल- वो भी लोगों के व्यवहार और हेल्थकेयर तक पहुंच को प्रभावित कर सकता है. जैसे पुरुषों में एक रवैया परवाह न करने का देखा जाता है जिसके चलते उनमें खराब प्रतिक्रिया होने की संभावना कम होती है.
मॉर्गन ने डीडब्ल्यू को बताया, "अध्ययन बताते हैं कि पुरुष मास्क कम पहनेंगे या हाथ नहीं धोएंगे. अगर ये चीजें उनके जैविक जोखिम से जोड़ दी जाएं तो यही वो जटिल इंटरसेक्शन है जिसकी वजह से पुरुषों को कोविड-19 की चपेट में आने की ज्यादा संभावना बन जाती है.”
इंटरसेक्स, नॉन-बाइनरी और ट्रांसजेंडरों में कोविड की आशंका पर डाटा सीमित है. लेकिन कुछ रिसर्चों से पता चलता है कि लैंगिक और यौनिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव का मतलब ये हो सकता है वे कोविड से गैर-आनुपातिक तौर पर प्रभावित हैं. और दुनिया में हर कहीं ये मुमकिन है. रिसर्च के मुताबिक कुछ खास जनसमूह, जरूरी हेल्थकेयर से बाहर रखे गए हैं.
तस्वीरों मेंः कुत्तों को भी हो सकता है कोरोना
कुत्तों और बिल्लियों को भी हो सकता है कोरोना
कोविड-19 के मरीजों से कोरोना का संक्रमण उनके पालतू कुत्तों और बिल्लियों में भी फैल सकता है. उनमें भी लक्षण दिखते हैं लेकिन वे अक्सर मामूली होते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/imageBroker
कोरोना में दूरी रखना ही बेहतर
अगर इंसानों को कोविड-19 है तो उन्हें कुत्तों से घुलने-मिलने और चिपटने से परहेज करना चाहिए. उटरेष्ट के शोधकर्ताओं ने उन 48 बिल्लियों और 54 कुत्तों की नाक और खून के सैंपल लिए जिनके मालिकों को पिछले 200 दिन में कोविड-19 संक्रमण हुआ था. और गजब! 17.4% मामलों में कोरोना निकला. 4.2% जानवरों में लक्षण भी दिखे.
तस्वीर: Darrin Zammit Lupi/REUTERS
जानवर भी बीमार पड़ सकते हैं
संक्रमित होने वाले एक चौथाई जानवर भी बीमार पड़े थे. अधिकांश जानवरों में बीमारी हल्की थी, तीन की हालत ज्यादा गंभीर थी. फिर भी चिकित्सा विशेषज्ञ ज्यादा चिंतित नहीं हैं. वे कहते हैं कि महामारी में पालतू जानवरों की खास भूमिका नहीं है. बड़ा खतरा तो मनुष्यों के बीच संक्रमण का है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/C. Delmas
जानवर पालें या नहीं?
ये तो मार्च 2020 में ही पता चल गया था कि बिल्लियों में भी कोरोना हो सकता है. ये बात पहली बार बताई थी, चीन के हार्बिन में वेटेरिनरी रिसर्च इन्स्टीट्यूट ने. उसी ने ये भी बताया था कि कोरोना एक बिल्ली से दूसरी बिल्लियों में भी जा सकता है. लेकिन पशु चिकित्सक हुआलान शेन कहते हैं, ये इतना आसान नहीं.
बिल्लियां पालने वाले लोग घबराएं नहीं. बिल्लियां वायरस के खिलाफ तुरंत एंटीबॉडी बना लेती हैं इसलिए लंबे समय तक संक्रमित नहीं रहतीं. कोविड-19 के गंभीर मरीज अपनी पालतू बिल्लियों को कुछ समय के लिए बाहर न जाने दें. और जो लोग स्वस्थ हैं वे अंजान जानवरों को थपथपाने के बाद करीने से हाथ धो लें.
तस्वीर: Susanne Danegger/Zoonar/picture alliance
कौन किसे संक्रमित करता है?
रोम में घूमते निकले इस पालतू सुअर को क्या कुत्ते से एक सुरक्षित दूरी बनाकर चलना चाहिए? इस सवाल पर भी फिर से गौर करना होगा. सुअर कोरोना वायरस के कैरियर नहीं हैं, ये दावा 2020 में हार्बिन के शोधकर्ताओं ने किया था. लेकिन तब उन्होंने कुत्तों के मामले में भी यही कहा था. क्या आज भी वे ऐसा कह सकते हैं?
तस्वीर: Reuters/A. Lingria
जब इंसान ही बन जाएं खतरा
मलेशिया की चार साल की बाघिन नादिया, न्यू यार्क के एक चिड़ियाघर में रहती है. 2020 में उसमें कोरोना मिला था. चिड़ियाघर के प्रमुख पशु चिकित्सक ने नेशनल ज्योगॉफ्रिक पत्रिका को बताया कि ये मनुष्यों से जंगली जानवरों में होने वाला, कोविड-19 का पहला मामला था.
तस्वीर: Reuters/WCS
चमगादड़ों पर बेकार का दोष?
माना जाता है कि वायरस जंगल से आया. चमगादड़ ही सार्स-कोवि-2 के सबसे पहले कैरियर मान लिए गए. लेकिन पशु चिकित्सक कहते हैं कि दिसंबर 2019 में वुहान में चमगादड़ों और इंसानों के बीच कोई और प्रजाति बतौर इंटरमीडियट होस्ट रही होगी. ये कौनसा जानवर होगा, अभी ठीक से पता नहीं चला है.
ये रकून, ज्ञात सार्स वायरसों का वाहक है. वायरोलॉजिस्ट क्रिस्टियान ड्रॉस्टन इसे एक गंभीर वायरस कैरियर मानते हैं. वो कहते हैं कि चीन में बड़े पैमाने पर फर के लिए रकून का शिकार होता है या फार्मों में उनकी ब्रीडिंग की जाती है. उनके मुताबिक रकून पर ही सबसे ज्यादा शक है.
तस्वीर: picture-alliance/ImageBroker/C. Krutz
या ये नन्हा जानवर है जिम्मेदार?
पैंगोलिन पर भी वायरस फैलाने का शक है. हांगकांग, चीन और ऑस्ट्रेलिया के रिसर्चरों ने मलेशियाई पैंगोलिन में सार्स-कोवि-2 से हूबहू मिलतेजुलते वायरस की पहचान की है.
तस्वीर: Reuters/Kham
गंधबिलावों का क्वारंटाइन
हुआलान शेन ने फैरेट यानी गंधबिलावों पर भी प्रयोग किए. नतीजा ये निकला कि इनमें भी कोरोना वायरस उसी तरीके से पनपता है जैसा आम बिल्लियों में.
विशेषज्ञों ने मुर्गीपालन से जुड़े लोगों को क्लीन चिट दी है. जैसे कि चीन के वुहान का ये व्यापारी. वैज्ञानिक मानते हैं कि, 2019 में वायरस का पहला मामला, वुहान में ही आया था. इंसानों को घबराने की जरूरत नहीं, क्योंकि मुर्गियों में सार्स-कोवि-2 के खिलाफ इम्युनिटी होती है. और बत्तखों और दूसरे परिंदों में भी.
तस्वीर: Getty Images/China Photos
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शोध से बाहर चुनिंदा समूह
फेरेटी का कहना है कि शोधकर्ताओं को वैक्सीन और दवाएं बनाते समय और उनके परीक्षणों के दौरान, कुछ लोगों को शामिल न करने और उनके साथ होने वाले भेदभाव के प्रभावों को भी ध्यान में रखना चाहिए- चाहे वो कोविड हो या कोई और बीमारी.
वह कहती है, "आप सोचेंगे कि वे इन चीजों का ध्यान रखते ही होंगे. लेकिन लगता यही है कि उन्होंने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया है.”
जुलाई में नेचर कम्युनिकेशन्स जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक कोविड-19 के इलाज से जुड़े करीब साढ़े चार हजार क्लिनिकल अध्ययनों में सिर्फ चार प्रतिशत ने सेक्स और/या जेंडर की भूमिका को मद्देनजर रखने की योजना का उल्लेख किया है.
इन अध्ययनों में टीकों और दवाओं के क्लिनिकल ट्रायल से लेकर मानसिक सेहत पर लॉकडाउन के असर और हेल्थकेयर तक पहुंच जैसी चीजों के पर्यवेक्षणों तक के अध्ययन शामिल थे.
क्या है लॉन्ग कोविड
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केवल एक स्टडी ऐसी थी जिसमें विशेष रूप से ट्रांसजेंडर लोगों पर कोविड के असर का अध्ययन किया गया था. कुछ अध्ययनो में महिलाएं शामिल थीं और वे ज्यादातर कोविड और गर्भावस्था से जुडी थीं. दिसंबर 2020 तक प्रकाशित रैंडम और नियंत्रित 45 ट्रायलों मे से सिर्फ आठ में सेक्स और/या जेंडर का संदर्भ दिया गया था.
नीदरलैंड्स की रैडबाउड यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर में जेंडर और हेल्थ रिसर्चर साबीने ओरटेल्ट-प्रिगियोने कहती हैं कि वैज्ञानिक तुरंत नतीजे प्रकाशित करने का दबाव महसूस कर सकते हैं. वह कहती हैं, "शोधकर्ताओं को कभी कभी ये चिंता होने लगती है कि अध्ययन में सेक्स अंतरों का विश्लेषण करने का मतलब भागीदारी बढ़ानी पड़ सकती है और लक्ष्यों को पूरा करने के लिए रिक्रूटमेंट में लंबा समय खर्च हो सकता है.”
सेक्स और जेंडर का ये ब्रेकडाउन, संक्रमण के मामलों और वैक्सीनों की सामान्य गिनती में भी अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है. ग्लोबल हेल्थ 50/50 एनजीओ के सेक्स-विशेष रिसर्च के ग्लोबल ट्रैकर- सेक्स, जेंडर एंड कोविड-19 प्रोजेक्ट में दिखाया गया है कि जून 20201 में सिर्फ 37 प्रतिशत देशों ने मौत के डाटा में व्यक्ति के सेक्स का भी उल्लेख किया था और 18 प्रतिशत वैक्सीनेशन डाटा में सेक्स के अंतर स्पष्ट किए गए थे.
तस्वीरों मेंः वैक्सीन काम करती है
वैक्सीन काम करती है, इसका सबूत है इन बीमारियों पर विजय
दुनिया में कोविड-19 के खिलाफ टीकाकरण अभियान के बीच याद रखना जरूरी है कि मानव जाति ने वैक्सीन की बदौलत ही कई बीमारियों पर विजय हासिल की है. हो सकता है जल्द कोरोना वायरस भी उतना सिमट जाए जितने ये बीमारियां सिमट चुकी हैं.
तस्वीर: Ciro Fusco/ANSA/picture alliance
पोलियो
1988 में दुनिया में पोलियो के तीन लाख से भी ज्यादा मामले थे, और आज 200 से भी कम मामले हैं. दो बूंद जिंदगी की - इस अभियान ने भारत से पोलियो को पूरी तरह हटाने में बड़ी भूमिका निभाई. पाकिस्तान, अफगानिस्तान और अफ्रीका के कुछ हिस्सों को छोड़ कर आज बाकी पूरी दुनिया पोलियो मुक्त हो चुकी है, टीके की बदौलत.
1980 में दुनिया भर में मीजल्स वायरस 25 लाख से भी ज्यादा लोगों की मौत का कारण बना था, लेकिन 2014 आते आते यह संख्या 75,000 से भी नीचे आ गई. मीजल्स के टीके को कई देशों में दूसरे टीकों के साथ मिला कर भी दिया जाता है और इसे काफी सफल टीका माना जाता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/J.P. Müller
चेचक
इसे आधुनिक दुनिया की सबसे खतरनाक बीमारी कहा जाता रहा है. चेचक पीड़ित 30 फीसदी लोगों की जान चली जाती थी. टीका बन जाने के बाद भी इस बीमारी को पूरी तरह खत्म करने में करीब दो सौ साल का वक्त लग गया. 1970 के दशक में दुनिया को चेचक से मुक्ति मिली.
तस्वीर: Getty Images/CDC
स्पेनिश फ्लू
1918 में शुरू हुए इंफ्लुएंजा या स्पेनिश फ्लू का टीका 1945 में जा कर बना. दुनिया की एक तिहाई आबादी इससे संक्रमित हुई और पांच करोड़ लोगों की जान गई. अगर टीका ना बना होता, तो आज दुनिया काफी अलग दिखती.
तस्वीर: picture-alliance/Everett Collection
टेटनस
जब भी कभी चोट लगती है, तो लोग टेटनस का इंजेक्शन लेने भागते हैं. डॉक्टर कहते हैं कि हर दस साल में एक बार टेटनस का टीका लगवाना चाहिए. टेटनस एक जानलेवा बीमारी है और हालांकि अब टेटनस के मामले ना के बराबर हैं, लेकिन रोकथाम के लिए टीका अब भी दिया जाता है.
तस्वीर: Imago Images
डिप्थेरिया
नवजात शिशुओं को डीपीटी का टीका दिया जाता है. डी से डिप्थेरिया, टी से टेटनस और पी से पर्टुसिस. ये तीनों बीमारियां बैक्टीरिया के कारण होती हैं. 1948 में डीपीटी का टीका विकसित हुआ लेकिन इसके काफी साइड इफेक्ट हुआ करते थे. 1990 के दशक में इसके फॉर्मूला में बदलाव किए गए.
तस्वीर: picture-alliance/OKAPIA KG/G. Gaugler
इबोला
2014 में फैले इबोला संक्रमण को टीके की मदद से ही रोका जा सका. दो साल तक इस बीमारी ने पश्चिमी अफ्रीका में कहर मचाया. इस दौरान वहां ग्यारह हजार से ज्यादा लोगों की जान गई.
तस्वीर: picture-alliance/AP/S. Alamba
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पुरुष यानी मनुष्य
मॉर्गन कहती हैं कि मेडिकल और क्लिनिकल रिसर्च में सेक्स और जेंडर एनालिसिस की ऐतिहासिक तौर पर कमी रही है. उनके मुताबिक 1993 मे अमेरिका में पहली बार महिलाओं को क्लिनिकल ट्रायल में शामिल किया गया था.
कहा जाता है कि शोधकर्ता इस बात से चिंतित हो जाते थे कि महिलाओं के हॉर्मोन कहीं नतीजों को खराब न कर दें. इसलिए मेडिकल रिसर्च के लिए वे पुरुष शरीरों को ही डिफॉल्ट यानी सर्वस्वीकृत मनुष्य मानकर इस्तेमाल कर लेते थे.
मॉर्गन कहती हैं कि और बाकी चीजों के अलावा इससे ये भी पता चलता है कि दवा और उपचार की खुराक सिर्फ पुरुषों को ध्यान में रखते हुए बनाई गयी है. और इसका मतलब ये भी है कि डॉक्टर पक्के तौर पर, महिला मरीजों या दूसरे अ-पुरुष समूहों को दवा की सही खुराक नहीं दे पाते हैं.
इसका मतलब ये भी है कि हम पक्के तौर पर नहीं कह सकते है कि संभावित साइड इफेक्टों के चलते ही, महिलाएं कोविड वैक्सीन लेने से हिचकती होंगी. हम निश्चित रूप से कुछ नहीं जानते हैं. मॉर्गन के मुताबिक खुराक के मामले में हमारे पास वही "वन साइज फिट्स ऑल” वाली अप्रोच है लेकिन वो जरूरी नहीं कि महिलाओं के लिए भी सही हो.
फेरेटी कहती हैं कि ये एक उथली सी दवा है- "शैलो मेडिसिन.” ये शब्दावली अमेरिकी कार्डियोलजिस्ट एरिक टोपोल ने ईजाद की थी. फेरेटी का कहना है कि इस धारणा को बदलने की जरूरत है. और हमें और अधिक गहराई में जाने की जरूरत है. "हम ये मान बैठे हैं कि सभी मरीज कमोबेश एक जैसे ही होते हैं, लेकिन ऐसा नहीं होता है.”
रिपोर्टः चार्ली एलेन शील्ड
देखिएः भारत में कोरोना की कितनी किस्में
कोरोना की कितनी किस्में हैं भारत में
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि सबसे पहले भारत में सामने आई कोरोना वायरस की किस्म अब 53 देशों में फैल चुकी है. आखिर वायरस के कितने वेरिएंट हैं भारत में?
तस्वीर: Francis Mascarenhas/REUTERS
क्या होते हैं वेरिएंट
वायरस म्युटेशन की बदौलत हमेशा बदलते रहते हैं और इस परिवर्तन से उनकी नई किस्मों का जन्म होता है जिन्हें वेरिएंट कहते हैं. कभी कभी नए वेरिएंट उभर कर गायब भी होते हैं और कभी कभी वो मौजूद रहते हैं. कोविड-19 महामारी के दौरान दुनिया में इस संक्रमण को फैलाने वाले कई वेरिएंट पाए गए हैं.
तस्वीर: Adnan Abidi/REUTERS
यूके वेरिएंट
इसका वैज्ञानिक नाम बी.1.1.7 है और यह सबसे पहले यूके में पाया गया था. दिसंबर 2020 से लेकर मार्च 2021 तक यह कई देशों में पाया गया. इंग्लैंड के बाहर इसे इंग्लिश वेरिएंट या यूके वेरिएंट के नाम से जाना जाता है.
तस्वीर: Oli Scarff/AFP/Getty Images
दक्षिण अफ्रीका वेरिएंट
बी.1.351 को दक्षिण अफ्रीका वैरिएंट के नाम से जाना जाता है. यह सबसे पहले अक्टूबर 2020 में दक्षिण अफ्रीका में पाया गया था. धीरे धीरे यह भारत समेत कई देशों में फैल गया और फरवरी 2021 में यह भारत में भी पाया गया.
इसका वैज्ञानिक नाम पी.1 है और यह सबसे पहले जनवरी 2021 में ब्राजील में पाया गया था. इस ब्राजील में आई घातक दूसरी लहर के लिए जिम्मेदार माना जाता है. फरवरी 2021 में यह भारत में भी पाया गया.
इसके वैज्ञानिक रूप से बी.1.618 के नाम से जाना जाता है. मार्च में पश्चिम बंगाल में यह बड़ी संख्या में संक्रमण के मामलों के लिए जिम्मेदार पाया जा रहा था, जिसकी वजह से इसे पश्चिम बंगाल वैरिएंट भी कहा जा रहा था. लेकिन वैज्ञानिक मानते हैं कि अब यह वेरिएंट कमजोर हो गया है.
तस्वीर: Prabhakar
'भारतीय' वेरिएंट
यह एक ऐसा वेरिएंट है जो जीनोमिक अध्ययन में पहली बार भारत में ही पाया गया था. इसे बी.1.617 का नाम दिया गया है. भारत में अप्रैल से फैली संक्रमण की घातक लहर के लिए इसी वेरिएंट को बड़े स्तर पर जिम्मेदार माना जा रहा है. इसमें वायरस के स्पाइक प्रोटीन में दो म्युटेशन पाए जाते हैं. स्पाइक प्रोटीन वो प्रोटीन होता है जिसकी मदद से वायरस मानव शरीर की कोशिकाओं में घुसता है और शरीर को संक्रमित करता है.
तस्वीर: PRAKASH SINGH/AFP
सब-वेरिएंट
वैज्ञानिकों का मानना है कि बी.1.617 के अपने तीन उप-वेरिएंट भी बन चुके हैं. बी.1.617 को अब बी.1.617.1 के नाम से जाना जाता है. इसके अलावा बी.1.617.2 और बी.1.617.3 नाम के दो और उप-वेरिएंट देखे गए हैं. माना जा रहा है कि इनमें से बी.1.617.2 यूके में सामने आने वाले सबसे ज्यादा नए मामलों के लिए जिम्मेदार है.