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कानून और न्यायभारत

अहमदाबाद धमाके: 38 को मौत की सजा

चारु कार्तिकेय
१८ फ़रवरी २०२२

2008 में अहमदाबाद में हुए धमाकों के 49 दोषियों में से 38 को मौत की सजा सुनाई गई है. एक विशेष अदालत ने इस फैसले के साथ साथ बाकी 11 दोषियों को मृत्यु तक कारावास की सजा सुनाई है.

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तस्वीर: Nerijus Liobe/Zoonar/picture alliance

26 जुलाई, 2008 को अहमदाबाद में कई स्थानों पर करीब 70 मिनटों के अंदर कुल 22 बम धमाके हुए थे जिनमें 56 लोग मारे गए थे और करीब 200 लोग घायल हो गए थे. 78 लोगों पर इन धमाकों में शामिल होने का आरोप लगा था. इसी साल आठ फरवरी को इस मामले में सुनवाई को जल्दी पूरी करने के लिए नियुक्त की कई विशेष अदालत ने 78 में से 49 को दोषी पाया था.

विशेष जज एआर पटेल ने इन 49 में से 48 दोषियों के ऊपर प्रति व्यक्ति 2.85 लाख रुपयों का जुर्माना भी लगाया. इसके अलावा उन्होंने गंभीर रूप से घायल लोगों को 50,000 रुपए और कम गंभीर रूप से घायल लोगों को 25,000 रुपए हर्जाना दिए जाने का भी आदेश दिया.

इन बम धमाकों में अहमदाबाद के कुछ अस्पतालों, बसों और दूसरे सार्वजनिक स्थानों को निशाना बनाया गया था. पार्क की हुई साइकिलों और गाड़ियों में बम छुपाए गए थे जो 70 मिनटों के अंदर अंदर एक के बाद एक फट पड़े.

तस्वीर: Mahila Housing Trust

धमाकों के बाद कई मीडिया संगठनों ने दावा किया कि उन्हें इंडियन मुजाहिद्दीन नाम के एक संगठन से ईमेल मिली थी जिसमें उसने धमाकों की जिम्मेदारी ली थी. संगठन ने दावा किया था कि ये धमाके 2002 के गुजरात दंगों और 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिरा दिए जाने के बदले में किए गए थे.

उस साल अहमदाबाद से पहले भारत के दो और शहरों में बम धमाके हुए थे. बेंगलुरु में उसके ठीक एक दिन पहले धमाके हुए थे और जयपुर में उससे करीब दो महीने पहले मई में. अहमदाबाद धमाकों के अगले ही दिन सूरत में कई बम बरामद किए गए जिन्हें लगाया तो गया था लेकिन वो फटे नहीं.

अगले कई दिनों तक सूरत में बम मिलते रहे और नौ अगस्त तक इस तरह बरामद हुए बमों की संख्या 29 हो गई थी. पुलिस ने कुल 35 मामले दर्ज किए, जिनमें से 20 अहमदाबाद में और 15 सूरत में दर्ज किए गए.

तस्वीर: Nasir Kachroo/NurPhoto/picture alliance

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में मौत की सजा के संबंध में एक महत्वपूर्ण फैसले के तहत कहा कि जुर्म कितना भी खौफनाक क्यों ना हो, दोषी की मौत की सजा को कम किए जाने के कारणों पर जजों को विचार करना चाहिए.

अदालत ने कहा तहत कि मौत की सजा अपराधियों को डराने का और कई मामलों में कड़ी कार्रवाई की समाज की मांग की प्रतिक्रिया के रूप में जरूर काम करती है, लेकिन अब स्थिति बदल गई है.

सजा देने के सिद्धांतों का अब और विस्तार हो गया है और अब मानव जीवन के संरक्षण के सिद्धांत को भी अहमियत दी जाती है. अदालत ने ने कहा कि मानव जीवन का संरक्षण भी समाज का एक दायित्व है और अदालत के सामने भी आज मौत की सजा के विकल्प मौजूद हैं. जघन्य अपराध के दोषियों को मौत की सजा की जगह बिना किसी छूट के आजीवन कारावास की सजा भी दी जा सकती है.

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