महाराष्ट्र में चल रहे राजनीतिक उठापटक के दृश्य जाने पहचाने से लग रहे हैं. विधायकों का दल बदलना, रिसॉर्ट प्रवास, राज्यपाल की भूमिका पर सवाल और फिर सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खटखटाना - भारत में यह सब अब दस्तूर बन गया है.
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यूं तो विधायकों का दल बदलना भारत में कोई नई बात नहीं है. बल्कि इस समस्या से निपटने के लिए देश में दल-बदल विरोधी कानून 1985 में ही लाया गया था. उससे भी पहले 1967 में हरियाणा में गया लाल नाम के विधायक ने एक ही दिन में तीन बार पार्टी बदल कर "आया राम गया राम" के मुहावरे को जन्म दिया था.
रिसर्च संस्था पीआरएस के मुताबिक 1967 से 71 के बीच 142 बार सांसदों ने और 1,969 बार अलग अलग विधान सभाओं में विधायकों ने दल बदले. महज इन चार सालों में 32 सरकारें गिरीं. यानी दल बदल कर विधायिकाओं में संवैधानिक संकट पैदा करने की परिपाटी दशकों पुरानी है.
लेकिन अब इस तरह की घटनाओं की आवृत्ति बढ़ गई है. मार्च 2020 में मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरने से ठीक पहले भी सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खटखटाए गए थे. वजह थी कांग्रेस के विधायकों का अपनी ही पार्टी के खिलाफ बागी हो जाना.
उससे पहले नवंबर 2019 में कर्नाटक में भी कांग्रेस के विधायकों की ही बगावत के बाद फिर से सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप की जरूरत पड़ी और बाद में कांग्रेस की सरकार गिर ही गई.
जुलाई 2020 में राजस्थान में भी ऐसी ही उठापटक देखने को मिली, लेकिन कांग्रेस किसी तरह बागी विधायकों को वापस ले आई और राज्य में अपनी सरकार को गिरने से बचा लिया. उस प्रकरण में भी राजस्थान हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों को हस्तक्षेप करना पड़ा था.
बार बार इस तरह विधायकों का दल बदलना उनका लोभ और पार्टियों में सत्ता का लालच दिखाता है. हालांकि कोई भी विधायक लोभ के आरोप को स्वीकार नहीं करता है. आप अक्सर विधायकों को कहते हुए पाएंगे कि वो अपनी पार्टी का दामन छोड़ दूसरी पार्टी में शामिल इसलिए हो गए क्योंकि उनके हिसाब से उनकी पुरानी पार्टी अपने लक्ष्यों से भटक गई थी. दोनों पार्टियों की बिलकुल विपरीत विचारधारा की विसंगति पर कोई विधायक प्रकाश नहीं डालता.
दल बदल के इस नए दौर के संभवतः यही मायने हैं कि भारत में राजनीति में विचारधारा नेपथ्य में चली गई है. राजनेताओं के लिए पार्टियों के बीच की सीमा लांघना कोई दुविधा का विषय नहीं रह गया है. कोई भी नेता किसी भी दिन किसी भी पार्टी में जा सकता है, कोई भी पार्टी किसी भी दिन किसी भी दूसरी पार्टी के साथ गठबंधन जोड़ सकती है और तोड़ भी सकती है.
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लोकतंत्र पर सवाल
विचारधारा की राजनीति के कमजोर होने का समाज पर क्या असर पड़ा है, यह तो राजनीतिशास्त्रियों और सामजशास्त्रियों के लिए अध्ययन का विषय है, लेकिन लोकतंत्र के लिए इसके मायने स्पष्ट हैं. याद कीजिए आपने पिछली बार कब मतदान किया था. अपना वोट किसको देना है ये किसी न किसी आधार पर तो तय किया होगा.
या आपको वो उम्मीदवार पसंद होगा, या उसकी पार्टी पसंद होगी. चुनाव जीतने के बाद अगर उम्मीदवार की सोच में बदलाव आ जाए और वो उन सब बातों से मुकर जाए जिन से संतुष्ट हो कर आपने उसे वोट दिया था तो आपको कैसा लगेगा. विशेष रूप से चुनाव जीतने के बाद पार्टी बदलना एक तरह की ठगी है, मतदाता के साथ धोखाधड़ी है.
इसी पर लगाम लगाने के लिए दल बदल विरोधी कानून लाया गया था. लेकिन स्पष्ट है कि वह कानून बुरी तरह से असफल हो चुका है. ऐसे में कैसे यह परिपाटी रुकेगी और कैसे चुनावी लोकतंत्र की शुचिता बढ़ेगी, इस सवाल का जवाब खोजने की जरूरत है.
भारत में सत्ता और संवैधानिक संकट
राजस्थान में कांग्रेस विधायकों के विद्रोह के कारण एक संवैधानिक संकट उत्पन्न हो गया है, जिसमें स्पीकर को हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ा. हाल में और किन राज्यों में हुआ है सत्ता को लेकर संवैधानिक संकट?
तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Singh
मध्य प्रदेश
नवंबर 2018 में हुए विधान सभा चुनावों में जीत हासिल कर कांग्रेस ने सरकार बनाई गई थी और कमल नाथ मुख्यमंत्री बने थे. लेकिन मार्च 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल हो गए और उनके साथ कांग्रेस के 22 विधायकों ने भी इस्तीफा दे दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कमल नाथ सरकार को फ्लोर टेस्ट का सामना करने का आदेश दिया. इसके कमल नाथ ने इस्तीफा दे दिया और शिवराज नए मुख्यमंत्री बने.
तस्वीर: imago images/Hindustan Times
कर्नाटक
2018 में हुए विधान सभा चुनावों के बाद राज्यपाल ने बीजेपी के बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के लिए निमंत्रण दे दिया. कांग्रेस इस कदम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई और आधी रात को अदालत में सुनवाई हुई. बाद में अदालत ने राज्यपाल के फैसले को गलत ठहराते हुए फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया. येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और जेडी (एस) के एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने.
तस्वीर: IANS
कर्नाटक (दोबारा)
जुलाई 2019 में जेडी (एस) और कांग्रेस के विधायकों के इस्तीफे से मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी की सरकार अल्पमत में आ गई. विधायक जब मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गए तब अदालत ने स्पीकर को विधायकों का इस्तीफा मंजूर करने का आदेश दिया और बाद में उन्हें अयोग्य घोषित किए जाने से सुरक्षा भी प्रदान की. विधान सभा में फ्लोर टेस्ट हुआ और कुमारस्वामी की सरकार गिर गई. बीजेपी के येदियुरप्पा फिर से मुख्यमंत्री बन गए.
तस्वीर: picture-alliance/robertharding/S. Forster
महाराष्ट्र
नवंबर 2019 में महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों के नतीजे आ जाने के दो सप्ताह तक रही अनिश्चितता के बीच एक दिन अचानक राज्यपाल ने बीजपी नेता देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी. कांग्रेस और एनसीपी ने राज्यपाल के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी. अदालत के फ्लोर टेस्ट के आदेश देने पर फडणवीस ने इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस, एनसीपी और शिव सेना ने मिलकर सरकार बनाई.
तस्वीर: P. Paranjpe/AFP/Getty Images
जम्मू और कश्मीर
जून 2018 में जम्मू और कश्मीर में बीजेपी और पीडीपी की गठबंधन सरकार से बीजेपी के अचानक समर्थन वापस ले लेने से राजनीतिक और संवैधानिक संकट खड़ा हो गया. मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को इस्तीफा देना पड़ा. राज्य में राज्यपाल का शासन लगा दिया गया. छह महीने बाद राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया और अगस्त 2019 में केंद्र ने जम्मू और कश्मीर का राज्य का दर्जा ही खत्म कर दिया और उसकी जगह दो केंद्र-शासित प्रदेश बना दिए.
तस्वीर: Getty Images/S. Hussain
बिहार
जुलाई 2017 में बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने इस्तीफा दे दिया और आरजेडी और कांग्रेस के साथ गठबंधन वाली अपनी ही सरकार गिरा दी. कुमार को बीजेपी के विधायकों का समर्थन मिल गया और राज्यपाल ने उन्हें फिर से मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने का निमंत्रण दे दिया. आरजेडी ने पटना हाई कोर्ट में इसके खिलाफ याचिका दायर कर दी जो खारिज कर दी गई और कुमार फ्लोर टेस्ट में बहुमत साबित कर फिर से मुख्यमंत्री बन गए.
तस्वीर: IANS
गोवा
मार्च 2017 में गोवा विधान सभा चुनावों के बाद जब राज्यपाल ने बीजेपी नेता मनोहर परिकर को सरकार बनाने का निमंत्रण दे दिया, तब सबसे ज्यादा विधायकों वाली पार्टी कांग्रेस ने राज्यपाल के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी. सुप्रीम कोर्ट ने फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया, जिसमें मुख्यमंत्री पद के शपथ ग्रहण करने के बाद परिकर ने बहुमत साबित कर दिया.
तस्वीर: Getty Images/AFP
अरुणाचल प्रदेश
दिसंबर 2015 में सत्तारूढ़ कांग्रेस के कुछ विधायकों और डिप्टी स्पीकर ने विद्रोह के बाद स्पीकर पर महाभियोग लगाने का प्रस्ताव पारित कर दिया गया. स्पीकर ने हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी. जनवरी 2016 में राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. फरवरी में कलिखो पुल ने सरकार बना ली. जुलाई में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन को गैर-कानूनी करार दिया और कांग्रेस की सरकार को बहाल किया.
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उत्तराखंड
मार्च 2016 में सत्तारूढ़ कांग्रेस के विद्रोही विधायकों ने विपक्ष के साथ मिलकर बजट पर वोटिंग की मांग की, लेकिन स्पीकर ने ध्वनि मत से बजट पारित करा दिया. विद्रोही विधायक राज्यपाल के पास चले गए और उनकी अनुशंसा पर केंद्र ने मुख्यमंत्री हरीश रावत की सरकार बर्खास्त कर दी. राष्ट्रपति शासन लागू हो गया. रावत की याचिका पर उत्तराखंड हाई कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन हटा दिया और रावत सरकार को बहाल किया.