दिल्ली के हजारों शिक्षकों को एक ऐसा ऐप डाउनलोड करने को कहा गया है जिससे उनकी हाजिरी लगाई जा सकती है. ऐप का इस्तेमाल शिक्षकों की हाजिरी जानने के लिए किया जा सकता है लेकिन शिक्षक इसका विरोध कर रहे हैं.
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कोविड काल में स्कूल बंद कर दिए गए थे और शिक्षकों की ड्यूटी आपात सेवाओं में लगा दी गई, जिसमें राशन बांटना, टीकाकरण केंद्र में सेवा देना आदि. हालांकि इन सब कामों में उन्हें भी संक्रमण का खतरा रहता है.
लेकिन जब शिक्षको से उनके मोबाइल फोन पर एक हाजिरी ऐप डाउनलोड करने के लिए कहा, जो उनके स्थान को ट्रैक कर सकता है तो राजधानी दिल्ली के कई शिक्षक इस ऐप का विरोध करते हुए अड़ गए. आलोचकों का कहना है कि छात्रों और कर्मचारियों की गोपनीयता का उल्लंघन है.
प्रशासन ने चेतावनी दी है कि अगर शिक्षक पालन करने में विफल रहते हैं तो उनका वेतन रोक दिया जाएगा. लेकिन शिक्षक इसके खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं.
नगर निगम शिक्षक संघ की उपाध्यक्ष विभा सिंह कहती हैं, "इस ऐप पर हमसे सलाह नहीं ली गई थी, हमें इसकी विशेषताओं के बारे में नहीं बताया गया था. हमें सिर्फ एक लिंक भेजा गया था और इसे अपने मोबाइल फोन पर डाउनलोड करने का आदेश दिया गया था."
शिक्षकों द्वारा कई शिकायतों के बाद आखिरकार संघ ने इसको कोर्ट में चुनौती दी. उन्होंने हाई कोर्ट में दलील दी कि ऐप उनकी निजता का हनन करता है. अब मामले पर अगली सुनवाई 27 सितंबर को होगी. विभा के मुताबिक, "ये हमारे निजी फोन हैं और ऐप हर समय हमारे स्थान को ट्रैक करता है. हम नहीं जानते कि यह और कौन सी जानकारी हासिल कर सकता है, या किसके पास डेटा की पहुंच है. अगर यह हैक हो जाता है तो क्या होगा?" वे कहती हैं कि महिला शिक्षक विशेष रूप से जोखिम में हैं.
ऐप लॉन्च होने से पहले ही दिल्ली के कुछ पब्लिक स्कूलों में फेशियल रिकग्निशन टेक्नोलॉजी वाले सीसीटीवी कैमरे लगाए थे. डिजिटल अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस तरह के उपाय निजता का हनन करते हैं.
प्रौद्योगिकी वेबसाइट कंपेरिटेक की रिपोर्ट के मुताबिक प्रति वर्ग मील में सबसे अधिक निगरानी कैमरे (सीसीटीवी कैमरे) लगाने के मामले में दिल्ली दुनिया का पहला शहर है. दिल्ली में प्रति वर्ग मील 1826 कैमरे लगे हुए हैं.
एसडीएमसी में शिक्षा विभाग के उप निदेशक मुक्तामय मंडल कहते हैं, "यह एक गलतफहमी है कि ऐप उनकी गोपनीयता से समझौता कर सकता है. हमने ऐप को समझाने और उनके डर को दूर करने के लिए शिक्षकों के साथ कई दौर की बातचीत की है."
आप अपना पासवर्ड कहां रखते हैं?
एटीएम पिन, बैंक खाता नंबर, डेबिट कार्ड या फिर क्रेडिट कार्ड डिटेल्स हो या आधार और पैन कार्ड जैसी संवेदनशील निजी जानकारी, भारतीय बेहद लापरवाह तरीके से इन्हें रखते हैं. एक सर्वे में यह चौंकाने वाला खुलासा हुआ है.
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33 प्रतिशत भारतीय रखते हैं असुरक्षित तरीके से डेटा
लोकल सर्किल के सर्वे में यह पता चला है कि करीब 33 प्रतिशत भारतीय संवेदनशील डेटा असुरक्षित तरीके से ईमेल या कंप्यूटर में रखते हैं.
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ईमेल और फोन में रखते हैं पासवर्ड
सर्वे में शामिल लोगों ने बताया कि वे संवेदनशील डेटा जैसे कि कंप्यूटर पासवर्ड, बैंक अकाउंट से जुड़ी जानकारी, क्रेडिट और डेबिट कार्ड के साथ ही साथ आधार और पैन कार्ड जैसी निजी जानकारी भी ईमेल और फोन के कॉन्टैक्ट लिस्ट में रखते हैं. 11 फीसदी लोग फोन कॉन्टैक्ट लिस्ट में ऐसी जानकारी रखते हैं.
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याद भी करते हैं और लिखते भी हैं
लोकल सर्किल ने देश के 393 जिलों के 24,000 लोगों से प्रतिक्रिया ली, सर्वे में शामिल 39 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे अपनी जानकारियां कागज पर लिखते हैं, वहीं 21 फीसदी लोगों ने कहा कि वे अहम जानकारियों को याद कर लेते हैं.
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डेबिट कार्ड पिन साझा करते हैं
लोकल सर्किल के सर्वे में शामिल 29 फीसदी लोगों ने कहा कि वे अपने डेबिट कार्ड पिन को अपने परिवार के सदस्यों के साथ साझा करते हैं. वहीं सर्वे में शामिल चार फीसदी लोगों ने कहा कि वे पिन को घरेलू कर्मचारी या दफ्तर के कर्मचारी के साथ साझा करते हैं.
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बड़ा वर्ग साझा नहीं करता एटीएम पिन
सर्वे में शामिल एक बड़ा वर्ग यानी 65 प्रतिशत लोगों का कहना है कि उन्होंने एटीएम और डेबिट कार्ड पिन को किसी के साथ साझा नहीं किया. दो फीसदी लोगों ने ही अपने दोस्तों के साथ डेबिट कार्ड पिन साझा किया.
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फोन में अहम जानकारी
कुछ ऐसे भी लोग हैं जो बैंक खातों से जुड़ी जानकारी, आधार या पैन कार्ड जैसी जानकारी फोन में रखते हैं. सर्वे में शामिल सात फीसदी लोगों ने इसको माना है. 15 प्रतिशत ने कहा कि उनकी संवेदनशील जानकारियां ईमेल या कंप्यूटर में है.
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डेटा के बारे में पता नहीं
इस सर्वे में शामिल सात फीसदी लोगों ने कहा है कि उन्हें नहीं मालूम है कि उनका डेटा कहां हो सकता है. मतलब उन्हें अपने डेटा के बारे में पूर्ण जानकारी नहीं है.
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बढ़ रहे साइबर अपराध
ओटीपी, सीवीवी, एटीएम, क्रेडिट या डेबिट कार्ड क्लोनिंग कर अपराधी वित्तीय अपराध को अंजाम दे रहे हैं. ईमेल के जरिए भी लोगों को निशाना बनाया जाता है और संवेदनशील जानकारियों चुराई जाती हैं.
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डेटा सुरक्षा में जागरूकता की कमी
लोकल सर्किल का कहना है कि देश के लोगों में अहम डेटा के संरक्षण को लेकर जागरूकता की कमी है. कई ऐप ऐसे हैं जो कॉन्टैक्ट लिस्ट की पहुंच की इजाजत मांगते हैं ऐसे में डेटा के लीक होने का खतरा अधिक है. लोकल सर्किल के मुताबिक वह इन नतीजों को सरकार और आरबीआई के साथ साझा करेगा ताकि वित्तीय साक्षरता की दिशा में ठोस कदम उठाया जा सके.
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उन्होंने कहा, "हम हर क्षेत्र में डिजिटलीकरण की ओर बढ़ रहे हैं - हम हर रोज इतने सारे ऐप डाउनलोड कर रहे हैं. अगर उनके पास छिपाने के लिए कुछ नहीं है, तो डरने की क्या बात है?"
पिछले साल चंडीगढ़ में नगर निगम के कर्मचारियों ने जीपीएस-आधारित ट्रैकिंग स्मार्टवॉच के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया था. स्मार्टवॉच को प्रदर्शन रेटिंग और वेतन से जुड़े डेटा को फीड करने के लिए पहनने की आवश्यकता थी.
दिल्ली में डिजिटल राइट्स ग्रुप इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन की एसोसिएट काउंसल अनुष्का जैन कहती हैं हाजिरी वाले ऐप के साथ ट्रैकिंग और डेटा तक पहुंच से निगरानी के स्तर को अटेंडेंस लॉग करने के साधन के रूप में उचित नहीं ठहराया जा सकता है.
जैन कहती हैं, "उन्हें पूरे दिन ट्रैक करने की कोई जरूरत नहीं है. वह निगरानी है. यह बहुत ही समस्याग्रस्त है कि इन ऐप्स और तकनीकों को बिना किसी डेटा सुरक्षा दिशा-निर्देशों के लोगों पर थोपा जा रहा है."
एए/सीके (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)
असली जिंदगी का नायकः सड़क को बनाया स्कूल
दीप नारायण नायक पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव जोबा अट्टापाड़ा गांव में स्कूल टीचर हैं. वह नाम से ही नहीं, जज्बे से भी नायक हैं.
लॉकडाउन के कारण स्कूल बंद हो गए तो दीप नायारण नायक को अपने छात्रों के पीछे छूट जाने की चिंता हुई. उन्होंने बच्चों तक पहुंचने का तरीका निकाला. उन्होंने गलियों की दीवारों को रंगकर बोर्ड बना दिया और वहीं क्लास लेने लगे.
तस्वीर: Rupak De Chowdhuri/REUTERS
पढ़ाई भी, सिखाई भी
पिछले कई महीनों से नायक इसी तरह अपने छात्रों को पढ़ा रहे हैं ताकि उनके बच्चे लॉकडाउन के कारण शिक्षा से महरूम न रह जाएं. वह लोक गीतों से लेकर हाथ धोने की जरूरत तक बच्चों को हर तरह का ज्ञान देते हैं.
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कोई बच्चा छूटे नहीं
नायक बताते हैं कि उनकी क्लास में ज्यादातर बच्चे ऐसे हैं जिनके परिवार से पहली बार कोई स्कूल आया. तो वह उन्हें पीछे नहीं छूटने देना चाहते.
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माता पिता भी खुश
बच्चों के माता पिता भी उनकी इस कोशिश से खुश हैं. एक बच्चे के पिता ने बताया कि पहले तो बच्चे यूं ही गलियों में भटकते रहते थे, नायक की इस कोशिश ने उन्हें फिर से पढ़ाई में लगा दिया है.
तस्वीर: Rupak De Chowdhuri/REUTERS
गांव नहीं पहुंची ऑनलाइन पढ़ाई
हाल ही में आए एक सर्वे के मुताबिक भारत के गांवों में सिर्फ 8 प्रतिशत बच्चे ही लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन पढ़ाई कर पाए और 37 फीसदी तो बिल्कुल नहीं पढ़ पाए.