दुनिया में ऐसे देशों की संख्या तेजी से बढ़ रही है जहां लोकतंत्र की जड़ें कमजोर हो रही हैं. इनमें भारत भी शामिल है. ऐसा इंटरनेशनल इंस्टिट्यूटन फॉर डेमोक्रेसी ऐंड इलेक्टोरल असिस्टेंस (IDEA) की एक रिपोर्ट में कहा गया है.
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लोकतांत्रिक मूल्यों पर काम करने वाली संस्था आइडिया के मुताबिक ऐसे देशों की संख्या जिनमें लोकतांत्रिक मूल्य खतरे में हैं इस वक्त जितनी अधिक है उतनी कभी नहीं रही. इसकी एक रिपोर्ट के मुताबिक लोक-लुभावन राजनीति, आलोचकों को चुप करवाने के लिए कोविड-19 महामारी का इस्तेमाल, अन्य देशों के अलोकतांत्रिक तौर-तरीकों को अपनाने का चलन और समाज को बांटने के लिए फर्जी सूचनाओं का प्रयोग जैसे कारकों के चलते लोकतंत्र खतरे में है.
आइडिया ने 1975 से अब तक जमा किए गए आंकड़ों के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की है. रिपोर्ट कहती है,”पहले से कहीं ज्यादा देशों में अब लोकतंत्र अवसान पर है. ऐसे देशों की संख्या इतनी अधिक पहले कभी नहीं रही, जिनमें लोकतंत्र में गिरावट हो रही हो.”
भारत का भी नाम
अपनी रिपोर्ट में आइडिया ने सरकार और न्यायपालिका की आजादी एक अलावा मानवाधिकार व मीडिया की आजादी जैसे मूल्यों को भी ध्यान राख है. 2021 में सबसे ज्यादा नाटकीय बदलाव अफगानिस्तान में देखा गया जहां पश्चिमी सेनाओं के विदा होने से पहले ही तालिबान ने सत्ता पर कब्जा कर लिया. म्यांमार में 1 फरवरी 2020 को हुए तख्तापलट ने भी लोकतंत्र को ढहते देखा.
तस्वीरेंः अफ्रीका में तख्तापलट
अफ्रीकी देशों में बार-बार क्यों हो रहा तख्तापलट
अफ्रीकी देशों में सैन्य तख्तापलट की घटनाएं बढ़ रही हैं. इसी साल सूडान में दो बार तख्तापलट की कोशिश हुई, एक बार वह विफल हो गया लेकिन दूसरी बार जनरल आब्देल-फतह बुरहान इसमें कामयाब हुए.
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सूडान
सूडान ने इस साल दो ऐसी घटनाओं का अनुभव किया है, एक सितंबर में जो विफल रही और सबसे नया जिसमें जनरल आब्देल-फतह बुरहान ने सरकार और सेना व नागरिक प्रतिनिधियों को मिलाकर बनाई गई संप्रभु परिषद को भंग कर दिया. 25 अक्टूबर 2021 को सूडान में सेना ने तख्तापलट कर देश में आपातकाल लागू कर दिया.
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गिनी
5 सितंबर 2021 को पश्चिची अफ्रीकी देश गिनी में विद्रोही सैनिकों ने तख्तापलट करने के बाद राष्ट्रपति अल्फा कोंडे को हिरासत में ले लिया और संविधान को अवैध घोषित कर दिया.
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माली
मई 2021 में सेना ने विद्रोह करते हुए चुनी हुई सरकार को उखाड़ दिया और सत्ता खुद संभाल ली. एक साल के भीतर ही माली में सेना ने दो बार सरकार के कामकाज में दखल देने की कोशिश की.
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चाड
इदरीस डेबी इस साल अप्रैल में सरकार विरोधी उग्रवादियों से लड़ते हुए मारे गए थे जिसके बाद उनके बेटे महामत इदरीस डेबी देश के अंतरिम राष्ट्रपति बने. डेबी की मौत के बाद फैसला लिया गया था कि महामत के नेतृत्व में बनी एक सैन्य परिषद अगले 18 महीनों तक शासन करेगी.
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जिम्बाब्वे
अफ्रीकी देशों में तख्तापलट पिछले एक दशक से जारी है. साल 2017 में सेना ने सत्ता अपने हाथ में ले ली और रॉबर्ट मुगाबे को गिरफ्तार कर लिया.
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बुरकीना फासो
पश्चिमी अफ्रीका में बुरकीना फासो ने सबसे सफल तख्तापलट का झेला जिसमें सात सफल अधिग्रहण और केवल एक असफल तख्तापलट हुआ है.
तस्वीर: Ahmed Ouoba/AFP/Getty Images
मध्य अफ्रीकी गणराज्य
खनिज संपन्न मध्य अफ्रीकी गणराज्य में 2013 में तख्तापलट हुआ था. सेलाका विद्रोहियों ने तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रेंकोइस बोजोजी को पद से हटा दिया था.
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तख्तापलट से बढ़ी चिंता
सितंबर में यूएन महासचिव अंटोनियो गुटेरेश ने चिंता व्यक्त की कि "सैन्य तख्तापलट वापस आ गए हैं." उन्होंने सैन्य हस्तक्षेपों के जवाब में अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच एकता की कमी को जिम्मेदार ठहराया था.
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माली में तो दो बार सरकार का तख्ता पलटा गया जबकि ट्यूनिशिया में राष्ट्रपति ने संसद भंग कर आपताकालीन शक्तियां हासिल कर लीं.
रिपोर्ट में ब्राजील, भारत और अमेरिका जैसे स्थापित लोकतंत्रों को लेकर भी चिंता जताई गई है. रिपोर्ट कहती है कि ब्राजील और अमेरिका में राष्ट्रपतियों ने ही देश के चुनावी नतीजों पर सवाल खड़े किए जबकि भारत में सरकार की नीतियों की आलोचना करने वालों को प्रताड़ित किया जा रहा है.
महामारी ने बढ़ाई तानाशाही
आइडिया की रिपोर्ट में हंगरी, पोलैंड, स्लोवेनिया और सर्बिया ऐसे यूरोपीय देश हैं जिनें लोकतंत्र को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा है. तुर्की ने 2010 से 2020 के बीच लोकतांत्रिक मूल्यों में सबसे ज्यादा गिरावट देखी है.
रिपोर्ट कहती है, "सच्चाई यह है कि 70 प्रतिशत आबादी ऐसे मुल्कों में रहती है जहां या तो लोकतंत्र है ही नहीं, या फिर नाटकीय रूप से घट रहा है.”
देखेंः अफगान औरतों के लिए क्या बदला
अफगान औरतों के लिए 20 साल में क्या बदला
पिछले 20 साल अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा नहीं था. उसके शासन में औरतों की स्थिति बेहद खराब बताई जाती है. क्या बीते 20 साल में महिलाओं के लिए कुछ बदला है?
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वाकई कुछ बदला क्या?
अफगानिस्तान में महिलाएं अब अलग-अलग भूमिकाएं निभाती नजर आती हैं. लेकिन वाकई उनके लिए पिछले 20 साल में कुछ बदला है या नहीं, आइए जानते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/M. Hossaini
काम के अवसर
ब्रिटेन के नेशनल स्टैटिस्टिक्स एंड इन्फॉरमेशन अथॉरिटी के आंकड़ों के मुताबिक 2004 में 51,200 महिलाएं सरकारी दफ्तरों में काम कर रही थीं. 2018 में इनकी संख्या बढ़कर 87 हजार हो गई.
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पुरुषों से ज्यादा कर्मचारी
सरकारी दफ्तरों में काम करने में महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा बढ़ी है. सरकारी कर्मचारी पुरुषों की संख्या जबकि 41 प्रतिशत बढ़ी, महिलाओं की संख्या में 69 प्रतिशत का इजाफा हुआ.
तस्वीर: Wakil Kohsar/AFP/Getty Images
राजनीति में महिलाएं
2018 के आम चुनाव में 417 महिला उम्मीदवार थीं, जो एक रिकॉर्ड है. तालिबान के नियंत्रण से पहले की संसद में 27 प्रतिशत महिला सांसद थीं, जो अंतरराष्ट्रीय औसत (25 फीसदी) से ज्यादा है.
तस्वीर: Stringer/REUTERS
न्यायपालिका में महिलाएं
2007 में अफगानिस्तान में 5 फीसदी महिला जज थीं जिनकी संख्या 2018 में बढ़कर 13 प्रतिशत हो गई.
तस्वीर: Aykut Karadag/AA/picture alliance
कॉलेजों में लड़कियां
अफगान सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2002 से 2019 के बीच सरकारी कॉलेज और यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या सात गुना बढ़ी. यह इजाफा लड़कों की संख्या से ज्यादा था.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Berry
शिक्षक महिलाएं
अफगानिस्तान में अब पहले से कहीं ज्यादा महिला शिक्षक हैं. 2018 में देश के कुल शिक्षकों का लगभग एक तिहाई महिलाएं थीं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Berry
स्कूलों में लड़कियां
ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट कहती है कि 2001 में 90 हजार बच्चे स्कूल जाते थे जो 2017 में बढ़कर 92 लाख हो गए. इनमें से 39 प्रतिशत लड़कियां थीं.
तस्वीर: Paula Bronstein/Getty Images
कानूनी हक
2009 में अफगानिस्तान में एलिमिनेशन ऑफ वायलेंस अगेंस्ट विमिन कानून पास किया गया जिसके तहत 22 गतिविधियों को अपराध की श्रेणी में डाला गया. इन गतिविधियों में महिलाओं को मारना, बलात्कार, जबरन शादी आदि शामिल हैं.
तस्वीर: REUTERS
पुलिस में महिलाएं
अमेरिका सरकार की लैंगिक समानता पर रिपोर्ट के मुताबिक 2005 में अफगानिस्तान में 180 महिला पुलिसकर्मी थीं जो 2019 में बढ़कर 3,560 हो गईं.
तस्वीर: DW/S. Tanha
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रिपोर्ट के मुताबिक कोविड-19 महामारी के दौरान शासकों और सरकारों का रवैया ज्यादा तानाशाही हुआ है. अध्ययन कहता है कि ऐसा कोई सबूत नहीं है कि तानाशाही शासकों ने महामारी से निपटने में दूसरी सरकारों से बेहतर काम किया हो.
रिपोर्ट कहती है, "महामारी ने तो बेलारू, क्यूबा, म्यांमार, निकारागुआ और वेनेजुएला जैसे देशों में दमन को सही ठहराने के लिए और असहमति को चुप करवाने के लिए अतिरिक्त तौर-तरीके उपलब्ध करवा दिए.”