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अरुणाचल प्रदेश में पनबिजली परियोजनाओं पर विरोध तेज

प्रभाकर मणि तिवारी
१७ फ़रवरी २०२३

अरुणाचल प्रदेश सरकार की ओर से राज्य में पनबिजली उत्पादन पर नए सिरे से जोर दिया जा रहा है. लेकिन उसके इस प्रयास ने राज्य के अलावा पड़ोसी असम में पर्यावरणविदों, समाजशास्त्रियों और वैज्ञानिकों की चिंताएं बढ़ा दी हैं.

अरुणाचल को देश में पनबिजली का पावर हाउस कहा जाता है. देश की कुल उत्पादन क्षमता का 34 फीसदी इसी राज्य में है.
अरुणाचल को देश में पनबिजली का पावर हाउस कहा जाता है. देश की कुल उत्पादन क्षमता का 34 फीसदी इसी राज्य में है. तस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

इसी वजह से सरकारी पहल का विरोध हो रहा है. नागरिक संगठनों के विरोध और आपत्तियों की वजह से सरकार ने देश की सबसे बड़ी 3,097 मेगावाट क्षमता वाली इटालीन पनबिजली परियोजना को अस्थायी रूप से रोक दिया है.

अरुणाचल को देश में पनबिजली का पावर हाउस कहा जाता है. देश की कुल उत्पादन क्षमता का 34 फीसदी इसी राज्य में है. यहां छोटी-बड़ी 150 पनबिजली परियोजनाओं का प्रस्ताव है. अब सरकार ने हाल में उनमें से पांच स्थगित परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए उनको सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को सौंपने का फैसला किया है.

पर्यावरणविदों को आशंका है कि इससे न सिर्फ अरुणाचल प्रदेश, बल्कि असम में नदी के किनारे स्थित इलाकों पर भी प्रतिकूल असर पड़ सकता है. साथ ही राज्य की आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन व नदियों का पारिस्थितिकी तंत्र भी प्रभावित हो सकता है.

पांच परियोजनाएं शुरू करने का फैसला

अरुणाचल प्रदेश सरकार ने हाल में पांच परियोजनाओं को सार्वजनिक क्षेत्र की विभिन्न कंपनियों को सौंपने का फैसला किया था, ताकि उनके काम को आगे बढ़ाया जा सके. इनमें से एक हजार मेगावाट क्षमता वाली नेइंग और 500 मेगावाट वाली हीरंग परियोजना को नॉर्थ ईस्टर्न इलेक्ट्रिक पावर कॉर्पोरेशन (नीपको) को सौंपा जाएगा. बाकी तीन यानी 500 मेगावाट वाली एमिनी पनबिजली परियोजना, 420 मेगावाट वाली अमूलीन परियोजना और 400 मेगावाट वाली मीनूंडन परियोजना को सतलुज जल विद्युत निगम को सौंपा जाएगा.

सरकार की दलील है कि इन परियोजनाओं से 2,880 मेगावाट हरित ऊर्जा पैदा होगी और सरकार को मुफ्त बिजली को तौर पर सालाना पांच सौ करोड़ और स्थानीय इलाकों के विकास के मद में सालाना सौ करोड़ का राजस्व मिलेगा.

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पर्यावरण से जुड़ी गंभीर चिंताएं

पर्यावरणविदों का कहना है कि इन परियोजनाओं से असम में संबंधित नदियों के किनारे बसे इलाकों पर प्रतिकूल असर होने का अंदेशा है. असम के पर्यावरणविद केशव कृष्ण महंत कहते हैं, "इससे इन नदियों के पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर राज्य की आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था में बड़े पैमाने पर बदलाव होंगे." उनका कहना है कि ऊपरी इलाकों में लगने वाली इन परियोजनाओं के लिए पहाड़ों के कटने और पेड़ों की कटाई के कारण नदियों में बड़े पैमाने पर मलबा और गाद नीचे की ओर आएगा. उससे नदियों का चरित्र बदल जाएगा. नदियों के पानी के बहाव के नियमन की वजह से बाढ़, सूखा और तट कटाव की घटनाएं और बढ़ जाएंगी.

विशेषज्ञों का कहना है कि सुवनसिरी लोअर पनबिजली परियोजना स्थल पर कई बार बड़े पैमाने पर भूस्खलन हो चुका है. बीते साल मॉनसून के दौरान जमीन धंसने के कारण कई नहरों को भारी नुकसान पहुंचा था. उनके मुताबिक, हिमालय अपेक्षाकृत युवा पहाड़ है और उसकी मिट्टी नरम है. नतीजतन पूरा इलाका भूस्खलन के लिहाज से बेहद संवेदनशील है. उनके साथ हल्की छेड़छाड़ के नतीजे बेहद गंभीर हो सकते हैं.

तस्वीर में दिख रही सियांग नदी, अरुणाचल प्रदेश के पूर्वी सियांग जिले की प्रमुख नदी है. असम में इसे ब्रह्मपुत्र कहा जाता है. तस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

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संवेदनशील हैं पहाड़

भूगर्भशास्त्री प्रोफेसर सुशील गोस्वामी कहते हैं, "अरुणाचल प्रदेश का तीन चौथाई हिस्सा भूस्खलन के लिहाज से काफी संवेदनशील है. इलाके में ऐसी परियोजनाओं के लिए बांधों के निर्माण के दौरान जलाशय की वजह से संभावित आपदा के खतरों को ध्यान में नहीं रखा गया है. इन परियोजनाओं के तहत सड़कों के निर्माण के लिए पहाड़ों की कटाई और विस्फोट के कारण नदियों में भारी मलबा जमा होगा, जो निचले इलाके में असम की ओर आएगा. इससे राज्य में नदियों की गहराई कम हो जाएगी.” उनका कहना है कि इन परियोजनाओं की वजह से नदियों में जमा होने वाली गाद के बारे में कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. प्रोफेसर गोस्वामी कहते हैं, "अरुणाचल प्रदेश का विकास और हरित ऊर्जा जरूरी है. लेकिन मिट्टी के संरक्षण और मलबा प्रबंधन के लिए रकम का प्रावधान किया जाना चाहिए.”

पर्यावरण संरक्षण की दिशा में काम करने वाले असम के एक गैर-सरकारी संगठन के कार्यकर्ता दिनेश भट्टाचार्य कहते हैं, "अरुणाचल के ऊपरी इलाकों में बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई से असम के मैदानी इलाकों में नदियों की तलछट का बोझ बढ़ने के कारण उनकी गहराई कम हो गई है.”

उनका कहना है कि बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई से इलाके में मॉनसून के दौरान बारिश अनियमित और अप्रत्याशित हो गई है. नतीजतन असम के विभिन्न इलाकों में बाढ़ और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ गई हैं. भट्टाचार्य की दलील है कि एक ओर तो सरकार आपदा प्रबंधन पर ध्यान दे रही है और दूसरी ओर संभावित खतरों के किसी ठोस और वैज्ञानिक आकलन के बिना ही विनाशकारी परियोजनाओं पर पैसा लगा रही है.

पर्यावरणविदों का कहना है कि अरुणाचल प्रदेश में लोअर सुबनसिरी, दिबांग और ऐसी दूसरी बड़ी परियोजनाओं का निर्माण अरुणाचल के साथ असम के लिए भी चिंता का विषय है. इन परियोजनाओं के खतरों से निपटने के लिए कोई ठोस इंतजाम नहीं किया गया है.

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परियोजना पर रोक

अरुणाचल प्रदेश में विभिन्न सामाजिक और गैर-सरकारी संगठनों के बारी विरोध के बावजूद वन सलाहकार समिति (एफएसी) ने फिलहाल इस पर अस्थायी रोक लगा दी है और पुनर्विचार करने को कहा है.

दिबांग घाटी जिले में प्रस्तावित इस परियोजना के लिए बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई पर्यावरणरणविदों और स्थानीय लोगों के लिए गहरी चिंता का विषय है. यह परियोजना उसी दिबांग नदी पर बनाई जा रही है, जहां हाल ही में 2,880 मेगावाट की दिबांग बहुउद्देशीय परियोजना शुरू की गई थी. इदु मिश्मी यूथ नामक स्थानीय संगठन ने एफएसी को भेजे ज्ञापन में कहा था कि इलाके के लोगों, नदियों और पहाड़ों के लिए इन परियोजनाओं के गंभीर, अपरिवर्तनीय और विनाशकारी परिणाम होंगे.

दरअसल, दिबांग नदी पर प्रस्तावित 3,097 मेगावाट क्षमता वाली इस परियोजना के लिए इलाके में 2.70 लाख पेड़ों को काटा जाना है. इस क्षेत्र में पक्षियों की करीब 700 प्रजातियां पाई जाती हैं. यह भारत में पाई जाने वाली पक्षियों की कुल प्रजातियों का लगभग आधा है. ऐसे में अगर पेड़ों की कटाई होती है, तो सीधा असर इनके जीवन पर पड़ेगा. स्थानीय निवासियों व पर्यावरणविदों का कहना है कि दिबांग घाटी में इस परियोजना के अलावा दिबांग बहुउद्देशीय परियोजना पहले से ही प्रस्तावित है. इनके निर्माण के बाद बड़ा इलाका पानी में डूब जाएगा.

परियोजना का प्रतिकूल असर

उधर, नीपको की कामेंग पनबिजली परियोजना अरुणाचल प्रदेश में बिचोम नदी के नीचे के गांवों को प्रभावित कर रही है. 600 मेगावाट क्षमता वाली इस परियोजना ने इस गहरी नदी को अब मात्र एक पतली धारा में बदल दिया है. नदी के निचले इलाकों में रहने वाले ग्रामीणों का दावा है कि नीपको की परियोजना के कारण पानी का प्रवाह कम हुआ है और बिचोम नदी से मछलियां लगभग गायब हो गई हैं. साथ ही, इलाके के लोग पानी की भारी किल्लत से जूझ रहे हैं.

यहां इस बात का जिक्र प्रासंगिक है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते साल 19 नवंबर को इस परियोजना को राष्ट्र को समर्पित किया था.

निचले इलाकों में पानी की कमी के कारण बागवानी और खेती से जुड़ी गतिविधियां धीरे-धीरे कम हो रही हैं. इससे लोगों को आर्थिक नुकसान हो रहा है. केएचईपी डाउनस्ट्रीम पीपुल्स अफेक्टेड फोरम (केडीपीएएफ) ने इस मामले में सरकारी हस्तक्षेप की अपील की है.

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