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समाज

पुरुष भी झेलते हैं घरेलू हिंसा

हंस फाइफर
१० नवम्बर २०२०

घरेलू हिंसा के शिकार पुरुष समाज में फैली लैंगिक धारणाओं के कारण इसकी शिकायत करने में शर्मिंदगी महसूस करते हैं. ऐसे में तमाम पुरुषों के लिए मदद मांगना कहीं ज्यादा मुश्किल हो जाता है.

घरेलू हिंसा के खिलाफ प्रदर्शन करते भारतीय पुरुष (9 मार्च, 2013 की तस्वीर)
घरेलू हिंसा के खिलाफ प्रदर्शन करते भारतीय पुरुष (9 मार्च, 2013 की तस्वीर)तस्वीर: picture-alliance/A.Qadri

एक लड़का एक लड़की से मिला और वह उसे बहुत पसंद आई. लड़की ने लड़के को बताया कि वह पहले किसी और के साथ संबंध में थी लेकिन उस लड़के के हाथों उसे हिंसा झेलनी पड़ी थी. इस लड़के के मन में आया कि वह अपनी गर्लफ्रेंड की रक्षा करेगा. वह लड़का तब यह सोच भी नहीं सकता था कि एक दिन वह खुद उसी लड़की के हाथों घरेलू हिंसा का शिकार बन सकता है. लेकिन ऐसा हुआ.

जर्मनी में रहने वाले टामी वाइसेनबेर्ग (बदला हुआ नाम) की गर्लफ्रेंड ने बताया था कि उसके पुराने पार्टनर ने उसे पीटा था और इससे वह बहुत दुखी रहती थी. यह दुख भरी दास्तान सुन कर वाइसेनबेर्ग का दिल पिघल गया. उसने ठान लिया कि वह अपनी गर्लफ्रेंड को साबित कर दिखाएगा कि सारे पुरुष वैसे हिंसक नहीं होते. लेकिन टामी को यह जानने में छह साल का समय लग गया कि वह केवल उनका भरोसा जीतने के लिए गढ़ी गई एक कहानी थी.

हिंसा का हथियार बनती है भावनात्मक निर्भरता

वाइसेनबेर्ग एक अच्छी कद काठी और मजबूत शारीरिक गठन वाला युवा पुरुष है. कई लोगों को उसे घरेलू हिंसा का शिकार मानना भी मुश्किल लगेगा. वाइसेनबेर्ग और उनकी गर्लफ्रेंड ने जब एक साथ रहना शुरु किया तो वह उसे भावनात्मक और आर्थिक रूप से संभालने लगा. आगे चलकर वे दोनों एक दूसरे पर इतने निर्भर हो गए कि अपने रोजमर्रा के सारे काम और बैंक खाते तक शेयर करने लगे. दोनों एक दूसरे पर लगभग पूरी तरह निर्भर रहने लगे थे. तभी चीजें खराब होनी शुरु हो गईं.

घरेलू हिंसा झेलने का अपना अनुभव साझा करने वाला एक जर्मन पुरुष. तस्वीर: Robert Richter/DW

वाइसेनबेर्ग बताते हैं, "हम एक बार छुट्टी पर गए थे. हमने एक होटल में कमरा बुक किया था लेकिन जब कमरा मेरी गर्लफ्रेंड को पसंद नहीं आया तो उसने उसका बिल भरने से मना कर दिया." इसके अलावा उनकी गर्लफ्रेंड ने उन पर दबाव डाला कि वह होटल मैनेजर से जाकर कहे कि उसका होटल बेहद घटिया है. वाइसेनबेर्ग बताते हैं, "मैंने ऐसा करने से मना कर दिया. मैं वहां से निकल गया और उसे उसके हाल पर छोड़ दिया."

वह आगे बताते हैं कि जब उनकी गर्लफ्रेंड कार में आई तो उसने उनके चेहरे पर अनगिनत तमाचे जड़ दिए और उन पर चीखने लगी. इस घटना के बाद लड़की ने भी अपने ऐसे व्यवहार के लिए यह सफाई दी कि उनका बचपन बहुत खराब बीता था और उसे कभी भी प्यार या सुरक्षा नहीं मिली. इसके बाद वाइसेनबेर्ग ने तय किया कि आगे कभी वह अपनी गर्लफ्रेंड को ऐसे हाल में नहीं छोड़ेंगे.

जैसे जैसे साल बीतते गए, भावनात्मक निर्भरता भी बढ़ती गई. वाइसेनबेर्ग को लगा "जैसे मैं कोई नौकर बन गया हूं जिसे हर समय सब कुछ सही सही करना ही है." उनके जीवन का सबसे बड़ा मकसद बन गया था कि कैसे वह अपनी गर्लफ्रेंड के सारे नियमों का पूरी तरह पालन करें और उसे खुश रखें. उनके रोजमर्रा के जीवन में हर काम के लिए तय नियम थे. मिसाल के तौर पर अगर फल खाना हो, तो उनके लिए तय था कि पेड़ से कौन सा फल चुनना है, उसे कैसे तोड़ना है, उसे कैसे पेश किया जाना है. इसमें से कुछ भी इधर से उधर हो जाए तो "मुझे उसका नतीजा भुगतने के लिए तैयार रहना होता."

अकसर उनके सारे प्रयास काफी नहीं होते और इसके जवाब में उन्हें अपनी गर्लफ्रेंड के हाथों मारपीट झेलनी पड़ती थी. फिर ऐसी नौबत भी आई कि वाइसेनबेर्ग को उनकी टूटी हड्डियों और चोटों के कारण इमरजेंसी में अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा. इस पर भी वाइसेनबेर्ग ने कभी ना तो खुद को बचाने की कोशिश की और ना ही बदले में अपनी गर्लफ्रेंड पर हाथ उठाया. वह किससे मिल सकते हैं और किससे नहीं, यह भी गर्लफ्रेंड ही तय करती. परिवार के जिन सदस्यों को उनके संबंधों को लेकर कुछ भी शक होता, वह उससे दूर हो जाते. कई सालों तक वह सोचते रहे कि एक दिन वह खुद अपनी गलती समझेगी लेकिन वह दिन नहीं आया.

खतरे में हैं पुरुष

टामी वाइसेनबेर्ग के साथ जो हुआ उससे मिलती जुलती कहानी एक साल के भीतर जर्मनी के करीब 26,000 पुरुषों ने पुलिस के पास दर्ज की शिकायत में बताई है. जर्मनी के आधिकारिक आंकड़े दिखाते हैं कि देश में घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज कराने वाले करीब 20 फीसदी पीड़ित पुरुष ही हैं.

उत्तरी इंग्लैंड की कम्ब्रिया यूनिवर्सिटी में रिसर्चर एलिजाबेथ बेट्स बताती हैं कि समाज पुरुषों को अपराधी मानने में बिल्कुल देर नहीं लगाता लेकिन उन्हें पीड़ित मानने में उसे बड़ी दिक्कत होती है. वह कहती हैं, "टीवी या कॉमेडी शो में कई बार लोगों को हंसाने के लिए पुरुषों पर अत्याचार होते दिखाया जाता है." इसलिए किसी महिला के हाथों पुरुष की पिटाई होते देख हमारा समाज हंसता है, जिसका हिंसा के असल पीड़ितों पर बुरा असर पड़ता है.

कई बार इससे जुड़ी शर्मिंदगी और मजाक उड़ाए जाने के डर से पुरुष सामने नहीं आते, हिंसा झेलते रहते हैं और मदद मांगने से शर्माते हैं. बेट्स की रिसर्च दिखाती है कि समाज में इसे जिस तरह देखा जाता है उसका असर घरेलू हिंसा के शिकार पुरुषों पर पड़ता है. वह बताती हैं कि ऐसे पीड़ितों में "हिंसा झेलने के कारण कई लॉन्ग टर्म मानसिक और शारीरिक समस्याएं सामने आती हैं."

जर्मनी के पारिवारिक मामलों के मंत्रालय की एक पायलट स्टडी से पता चला था कि देश में हर छठे आदमी को उसके पार्टनर ने गुस्से में धक्का दिया है और करीब 10 फीसदी पुरुषों को या तो थप्पड़ पड़े हैं, या उन पर चीजें फेंक कर मारी गई हैं या फिर दर्दनाक तरीके से किक किया गया है. सबसे आम शिकायतें भावनात्मक आक्रामकता दिखाने की हैं. इस स्टडी के सह लेखक राल्फ पुशेर्ट बताते हैं, "जीवन में कभी ना कभी अपने पार्टनर के हाथों हिंसा झेलने वालों में महिलाओं और पुरुषों की तादाद लगभग बराबर है. हालांकि गंभीर हिंसा के मामले पुरुषों में महिलाओं के मुकाबले थोड़े कम होते हैं."

वैश्विक समस्या

आंकड़े दिखाते हैं कि ऐसा केवल जर्मनी में ही नहीं होता. मेक्सिको में तो घरेलू हिंसा के कुल पीड़ितों में करीब 25 फीसदी पुरुष होते हैं. केन्या, नाइजीरिया और घाना जैसे अफ्रीकी देशों में महिलाएं अपने पार्टनर को उसकी बेरोजगारी या गरीबी को कारण बना कर अकसर पीटती हैं. ऐसे पीड़ितों के लिए ज्यादातर देशों में अच्छा सपोर्ट सिस्टम नहीं है, खासकर ग्रामीण इलाकों में तो यह लगभग गायब ही है.

पिछले कुछ सालों से भारत में भी ऐसे शिकायतें बढ़ी हैं, जिसमें पुरुषों को घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ा है. पुरुषों में इस बात को लेकर मलाल दिखता है कि उनकी ऐसी शिकायतों को ना तो समाज जल्दी स्वीकार करता है और ना ही उनका गंभीरता से निपटारा होता है. घरेलू हिंसा से परेशान कई पुरुष आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं. भारत में महिलाओं के लिए घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2015 जैसे कड़े कानून हैं, कभी कभी जिनके दुरुपयोग की भी खबरें आती हैं. लेकिन घरेलू हिंसा के शिकार पुरुषों की शिकायत रही है कि उनके लिए देश में पर्याप्त कानूनी और सामाजिक ढांचे नहीं बने हैं.

जर्मनी में हालात धीरे धीरे बदल रहे हैं. इसी साल देश में पुरुषों के लिए पहली टेलिफोन हेल्पलाइन शुरु हुई. बीलेफेल्ड शहर में स्थित इस 'मैन-ओ-मान' सलाह केंद्र में काम करने वाले आंद्रेआस हासे बताते हैं कि फोन लगातार बजता रहता है. वह कहते हैं कि "पुरुष ऐसी जगह खोज रहे हैं जहां कोई उनकी बात सुने." एक्सपर्ट बताते हैं कि सबसे पहले पुरुषों को यह समझना होगा कि वह भी पीड़ित हो सकते हैं और वह दुनिया में ऐसे अकेले पुरुष नहीं हैं. बीलेफेल्ड की हेल्पलाइन में भी सबसे पहले फोन करने वाले को यही समझाया जाता है, जिस समझ के कारण उन्हें फौरी राहत महसूस होती है.

टामी वाइसेनबेर्ग ने भी जब खुद यह समझा तभी उन्होंने इससे बाहर निकलने की ठानी और वह घर ही छोड़ दिया. बाद में उन्होंने खुद एक सेल्फ-हेल्प समूह बनाया जिससे बाकियों की भी मदद हो सके. यह सच है कि महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा अकसर कहीं ज्यादा गंभीर रूप ले लेती है लेकिन ऐसा नहीं है कि पुरुषों को इससे नहीं गुजरना पड़ता. और हर पीड़ित को अपनी आपबीती बताने और मदद पाने का मौका तभी मिल सकता है कि जब समाज में इसे लेकर समझ बने.

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