घुटने के ऊपर तक दोनों पैर कटे होने पर भी एक शख्स ने एवरेस्ट की चोटी पर विजय पा लिया. मुश्किलों ने कई बार इस भूतपूर्व सैनिक का रास्ता रोकने की कोशिश की लेकिन आखिरकार जीत उनके बुलंद इरादों की हुई.
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दोनों पैर घुटने के ऊपर तक कटे होने पर भी एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ने वाले पहले शख्स ने अपनी बाकी जिंदगी दिव्यांगों की सेवा में गुजारने की शपथ ली है.
ब्रिटेन में रहने वाले भूतपूर्व गुरखा सैनिक हरी बुद्धा मागर ने दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर पिछले हफ्ते फतह हासिल कर ली. मंगलवार को जमीन पर वापस आने के बाद उन्होंने अपनी शपथ के बारे में बताया. काठमांडू में पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने कहा, "मेरे बाकी बचे जीवन का मकसद लोगों को विकलांगता के बारे में जागरूक करना होगा."
ब्रिटिश आर्मी के गुरखा रेजिमेंट के सैनिक के रूप में काम करते हुए मागर ने अपने दोनों पैर अफगानिस्तान में गंवा दिये. 2010 में वो दुर्घटनवश एक आईईडी की चपेट में आ गये थे. एवरेस्ट विजय के बाद काठमांडू एयरपोर्ट पर उनका अभिनंदन करने के लिए मंगलवार को सैकड़ों लोग, अधिकारी और यहां तक कि नेपाल के पर्यटन मंत्री भी मौजूद थे. फूलों से लदे एक खुले ट्रक में उन्हें एयरपोर्ट से ले जाया गया. रास्ते में लोगों उन्हें देखने के लिए जमा थे.
रास्ते की मुश्किलें
मागर का कहना है, "हम सब लोगों में कमजोरियां और अक्षमताएं होती हैं लेकिन अपनी कमजोरियों की बजाय हमें अपनी ताकत पर ध्यान देना चाहिए, और सिर्फ तभी हम एक बेहतर और अर्थपूर्ण जीवन की ओर जा सकेंगे." उन्होंने बताया कि 8,849 मीटर ऊंचे पर्वत पर चढ़ना आसान नहीं था और परिवार का ख्याल करके कई बार उन्होंने इसे बीच में छोड़ने के बारे में सोचा.
मागर कहते हैं, "मैंने वादा किया था कि मेरे बेटे के लिए मुझे वापस आना होगा."
एवरेस्ट की तरफ बढ़ते हुए एक बार उनके पास मौजूद टैंक में ऑक्सीजन खत्म हो गया. उस समय के अनुभव के बारे में मागर ने कहा, "वह पहली बार था जब मुझे अहसास हुआ कि ऑक्सीजन की कमी क्या होती है. मुझे सिहरन हो रही थी, मेरे हाथ पैर ठंडे पड़ गये थे और मुझे सांस लेने में काफी दिक्कत हो रही थी."
साथी पर्वतारोहियों से उन्हें और ऑक्सीजन मिल गई लेकिन जब वो चोटी के करीब पहुंचे तभी मौसम बिगड़ गया. धीमी गति के कारण वो दोपहर बाद देर से वहां पहुंचे थे. ज्यादातर पर्वतारोही चोटी पर सुबह पहुंचने की कोशिश करते हैं क्योंकि दिन चढ़ने के साथ खतरा बढ़ जाता है. मागर ने बताया कि उन्होंने रास्ते में राहतकर्मियों को दो शव ले जाते देखा जो पर्वतारोहियों के थे.
मागर के प्रेस कार्यालय से जारी वीडियो में उन्होंने कहा है, "मैं सारे शेरपाओं के गले लग गया और बच्चे की तरह रोने लगा. मैं बहुत खुश था. मेरे पूरे जीवन का एक ही मकसद है विकलांगता के बारे में लोगों की धारणा बदलना. मेरी जिंदगी पलक झपकते ही बदल गई. हालांकि जो कुछ भी हो आप फिर भी एक भरपूर जिंदगी जी सकते हैं."
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विकलांगता पर विजय
मागर का यह भी कहना है, "अगर दोनों घुटनों से ऊपर तक पैर कट जाने के बाद कोई एवरेस्ट पर चढ़ सकता है तो आप जीवन में कोई भी पहाड़ चढ़ सकते हैं, बशर्ते कि आप अनुशासित हों, कड़ी मेहनत करें और अपना सबकुछ उसमें लगा दें."
सैलानियों की भीड़ के साथ बढ़ रहा है हिमालय में खतरा
अमेरिकी पर्वतारोही हिलेरी नेल्सन की मौत ने इस ओर ध्यान खींचा है कि हिमालय पर चढ़ाई गुजरे सालों में खतरनाक होती गई है. गाइड और एक्सपर्ट जलवायु परिवर्तन के साथ ही ज्यादा लोगों के यहां जाने को भी इसकी वजह बताते हैं.
अमेरिकी पर्वतारोही हिलेरी नेल्सन की मौत ने इस ओर ध्यान खींचा है कि हिमालय पर चढ़ाई गुजरे सालों में खतरनाक होती गई है. गाइड और एक्सपर्ट जलवायु परिवर्तन के साथ ही ज्यादा लोगों के यहां जाने को भी इसकी वजह बताते हैं.
तस्वीर: Zoonar/picture alliance
हिलेरी नेल्सन की मौत
49 साल की नेल्सन मनासलू की 8,163 मीटर ऊंची चोटी के पास ही थीं कि फिसल गईं और उनकी जान चली गई. दुनिया की आठवीं सबसे ऊंची चोटी पर वो अपने पार्टनर के साथ स्की करते हुए नीचे आना चाहती थीं.
तस्वीर: Niranjan Shrestha/dpa/picture alliance
हिमालय की चोटियों के लिये मशहूर नेपाल
हिमालय की मशहूर चोटियों का घर नेपाल में है. 1950 से 2021 के बीच यहां कुल 1,042 लोगों की मौत हुई जिनमें से 405 तो इसी सदी में मरे. हिमालय की ज्यादातर चोटियों पर चढ़ाई का रास्ता नेपाल से हो कर जाता है. नेपाल के गाइड और पिट्ठुओं ने तो पर्वतों की चोटियों पर चढ़ाई के रिकॉर्ड बनाये हैं.
तस्वीर: picture alliance/dpa/XinHua
जानलेवा हिमस्खलन
हिमालय के डाटाबेस के मुताबिक इनमें से एक तिहाई मौतों के पीछे हिमस्खलन जिम्मेदार था और एक तिहाई पर्वतारोही फिसल कर गिरने से मारे गये. इसके अलावा बहुत से लोगों की मौत माउंटेन सिकनेस और इसी तरह के दूसरी परेशानियों से हुई.
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सबसे खतरनाक रास्ते
8,091 मीटर ऊंचा अन्नपूर्णा मासिफ इनमें सबसे ज्यादा खतरनाक है. 1950 से अब तक 365 चढ़ाइयों में कुल 72 लोगों की मौत हुई है यानी हर पांच सफल अभियान के लिये एक आदमी ने जान गंवाई मौत. धौलागिरी और कंचनजंघा दोनों में मौत की दर 10 फीसदी है.
खड़ी ढाल वाले दर्रों और हिमस्खलनों ने पाकिस्तान के के2 को भी कुख्यात बना दिया है. 1947 से अब तक कम से कम 70 लोगों की मौत हुई है. सबसे ज्यादा मौत एवरेस्ट पर होती है लेकिन पर्वतारोहियों की ज्यादा संख्या के कारण मौत की दर 2.84 फीसदी है. 1950 से 2021 के बीच एवरेस्ट में 300 से ज्यादा लोगों की मौत हुई है.
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पिघलते ग्लेशियर
2019 की एक स्टडी में चेतावनी दी गई कि हिमालय के ग्लेशियर पिछली सदी की तुलना में दोगुनी तेजी से पिघल रहे हैं. इस साल एक स्टडी से पता ने चला कि एवरेस्ट की चोटी के पास मौजूद बर्फ 2000 साल पुरानी हैं. यानि ग्लेशियर को बनने में जितना समय लगा था उससे 80 गुना ज्यादा तेजी से यह पिघल रहा है.
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जलवायु परिवर्तन और मौत
जलवायु परिवर्तन और लोगों की मौत के संबंध के बारे में विस्तृत अध्ययन नहीं हुआ है लेकिन पर्वतारोहियों का कहना है कि हिम दरारें चौड़ी हो रही हैं, पहले जहां बर्फ होती थी वहां पानी बह रहा है और ग्लेशियरों के पिघलने से बनने वाली झीलों की संख्या बढ़ रही है. इन सबके कारण खतरा बढ़ रहा है.
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हिमस्खलनों का बढ़ता खतरा
ग्लेशियर अप्रत्याशित हो गये हैं जिससे हिमस्खलनों का खतरा बढ़ सकता है. 2014 में भारी संख्या में बर्फ और चट्टानों के सरकने से 16 नेपाली गाइडों की मौत हो गई. यह हादसा खुंभु आइसफॉल में हुआ और हिमालय में अब तक हुए सबसे बड़े हादसों में एक है.
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बढ़ती भीड़ भी जिम्मेदार
विशेषज्ञों का कहना है कि मौत के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है कम अनुभवी और कम तैयारी के साथ यहां आ रहे पर्वतारोही सैलानी. रोमांच की चाहत में हर साल सैकड़ों की संख्या में ऐसे लोग नेपाल, पाकिस्तान और तिब्बत पहुंच रहे हैं. बढ़ती संख्या ने कंपनियों के बीच प्रतियोगिता बढ़ा दी है और इस चक्कर में सुरक्षा से समझौता हो रहा है.
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एवरेस्ट में ट्रैफिक जाम
नेपाल ने इस साल मनासलू की चोटी के लिए 404 और पाकिस्तान ने के2 के लिये 200 परमिट दिये ये दोनों संख्या सामान्य से दोगुनी हैं. 2019 में तो एवरेस्ट में ऐसी भीड़ पहुंची कि ट्रैफिक जाम लग गया और लोग जमाने वाली सर्दी में फंस गये. ऑक्सीजन का लेवल घटने से कई लोग रास्ते में ही बीमार हो गये. हर साल 11 में से कम से कम चार मौतों के लिये भीड़ जिम्मेदार होती है.
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बचाव के उपाय
बहुत सी टूर कंपनियां ड्रोन का इस्तेमाल कर जोखिम का अंदाजा लगाती हैं, वो पर्वतारोहियों के वाइटल डाटा पर रियल टाइम में नजर रखती हैं और बहुत से पर्वतारोही तो जीपीएस ट्रैकर भी पहनते हैं. यात्रा का इंतजाम करने वालों ने ज्यादा ऑक्सीजन की व्यवस्था रखनी शुरू की है और मौसम समाचार की स्थिति पहले से काफी बेहतर हुई है. हालांकि इन सबके बावजूद खतरा बढ़ रहा है.
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नेपाल के एक सुदूर पहाड़ी गांव में पैदा हुए मागर को बाद में ब्रिटिश सेना ने गुरखा के रूप में भर्ती कर लिया. अब वो अपने परिवार के साथ इंग्लैंड के कैंटरबरी में रहते हैं. सैकड़ों नेपाली युवाओं को हर साल गुरखा सैनिकों के रूप में सेना में भर्ती किया जाता है. ये लोग अपने युद्ध कौशल और बहादुरी के लिए जाने जाते हैं.
मागर को एवरेस्ट की चढ़ाई के लिए सिर्फ अपनी शारीरिक दिक्कतों से ही नहीं जूझना था. उनके सामने कानूनी अड़चने भी थीं क्योंकि नेपाल की सरकार ने विकलांगों के पहाड़ पर चढ़ने पर रोक लगा रखी थी. इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई. सुनवाई के बाद कोर्ट ने सरकार की रोक को खत्म कर दिया, और मागर को एवरेस्ट पर चढ़ने की अनुमति मिली. कोरोना वायरस की महामारी के दौरान सरकार ने पर्वतारोहण पर अस्थायी रोक लगाई थी इसकी वजह से भी मागर की योजना के पूरा होने में देर हुई.