नीदरलैंड की एक कंपनी ने एक ऐसा ताबूत बनाया है जो दफनाने के बाद ना केवल खुद पूरी तरह से गल कर खत्म हो सकता है बल्कि उसमें रखे शव को भी पूरी तरह विघटित कर सकता है.
विज्ञापन
लूप नामक एक डच कंपनी ने एक नए तरह का ताबूत बनाया है. यह लकड़ी की बजाय फंगस से बना है और मृतक के शरीर समेत खुद को पूरी तरह विघटित कर सकता है. मृत्यु के बाद तो शरीर अपने आप ही धीरे धीरे विघटित होता है. लेकिन कंपनी का कहना है कि इस खास ताबूत की मदद से मृतक के शरीर को इस तरह विघटित किया जा सकेगा कि वह पेड़ पौधों के लिए पोषक तत्व के रूप में बदल जाए. यही कारण है कि कंपनी उसे "जिंदा ताबूत" कह रही है क्योंकि इसमें रखे गए व्यक्ति का शरीर प्राण छोड़ने के बाद भी अनगिनत पेड़-पौधों को जीवन दे सकेगा.
लूप ने जानकारी दी है कि ताबूत की बाहरी दीवारें जिस पदार्थ की बनी हैं उसे मायसीलियम कहते हैं. मशरूम जैसे किसी फंगस का मिट्टी के भीतर जड़ों जैसा दिखने वाला हिस्सा मायसीलियम कहलाता है. इसके अलावा ताबूत के भीतर काई की एक मोटी परत बिछाई गई है, जो विघटन को तेज करने में मदद करती है. समाचार एजेंसी रॉयटर्स से बातचीत में इसके निर्माता बॉब हेंड्रिक्स ने बताया कि असल में मायसीलियम प्रकृति के सबसे बढ़िया रिसाइकिल एजेंटों में से एक है. उन्होंने बताया कि मायसीलियम ”लगातार भोजन की तलाश करता रहता है और उसे पौधों के लिए पोषक पदार्थों में बदलता रहता है."
इसका एक और अहम गुण यह है कि मायसीलियम जहरीले पदार्थों को भी खा सकता है और उन्हें भी पौधों के काम के पोषक तत्वों में बदल देता है. हेंड्रिक्स ने बताया कि कैसे इसी खास गुण के कारण परमाणु हादसा झेलने वाले चेर्नोबिल में मायसीलियम का इस्तेमाल मिट्टी को साफ करने में किया गया.” ताबूत बनाने में इसका इस्तेमाल करने के पीछे भी यही सोच थी. हेंड्रिक्स कहते हैं कि "शवों को दफनाने की जगह पर भी यही होता है. वहां भी मिट्टी बहुत प्रदूषित होती है और वहां मायसीलियम को उसकी पसंदीदा धातुएं, तेल और माइक्रोप्लास्टिक मिल जाते हैं."
इस ताबूत को बनाने की प्रक्रिया भी उतनी ही सजीव है जितना यह उत्पाद. असल में इसे किसी पौधे की ही तरह उगाया जाता है और एक ताबूत को उगाने में एक हफ्ते का समय लग जाता है. नीदरलैंड की डेल्फ्ट टेक्निकल यूनिवर्सिटी में ‘लूप' कंपनी के लैब में इसके लिए एक सामान्य ताबूत के सांचे के ऊपर इसे उगाने का काम होता है, मायसीलियम के फलने फूलने के लिए उसे लकड़ी की पतली पतली परतों के साथ मिला कर इस सांचे पर फैला दिया जाता है. करीब एक हफ्ते के बाद इसे सांचे से निकाल कर सुखाया जाता है और तब वह इतना मजबूत होता है कि 200 किलो तक का भार उठा सके.
एक बार मृत शरीर के साथ मिट्टी में गाड़ दिए जाने के 30 से 45 दिनों में यह ताबूत धरती में मौजूद पानी के संपर्क में आकर गल जाता है. कंपनी का कहना है कि इसके बाद अगले केवल 2 से 3 सालों में ही शव पूरी तरह गल जाएगा. पारंपरिक ताबूतों में दफनाए जाने वाले शवों को इसमें 10 से 20 साल लगते हैं. अब तक कंपनी ने ऐसे दस ताबूत उगाए और बेचे हैं. ऐसे एक ताबूत की कीमत 1,500 यूरो यानि करीब सवा लाख भारतीय रुपये है.
मृत्यु क्या है और इंसान क्यों मरता है, मनुष्य इन सवाल का जवाब हजारों साल से खोज रहा है. चलिये देखते हैं आखिर विज्ञान मृत्यु और उसकी प्रक्रिया के बारे में क्या कहता है.
तस्वीर: J. Rogers
विकास से विघटन तक
30 की उम्र में इंसानी शरीर में ठहराव आने लगता है. 35 साल के आस पास लोगों को लगने लगता है कि शरीर अब कुछ गड़बड़ करने लगा है. 30 साल के बाद हर दशक में हड्डियों का द्रव्यमान एक फीसदी कम होने लगता है.
तस्वीर: colourbox/S. Darsa
भीतर खत्म होता जीवन
30 से 80 साल की उम्र के बीच इंसान का शरीर 40 फीसदी मांसपेशियां खो देता है. जो मांसपेशियां बचती हैं वे भी कमजोर होती जाती है. शरीर में लचक कम होती चली जाती है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Murat
कोशिकाओं का बदलता संसार
जीवित प्राणियों में कोशिकाएं हर वक्त विभाजित होकर नई कोशिकाएं बनाती रहती हैं. यही वजह है कि बचपन से लेकर जवानी तक शरीर विकास करता है. लेकिन उम्र बढ़ने के साथ कोशिकाओं के विभाजन में गड़बड़ी होने लगती है. उनके भीतर का डीएनए क्षतिग्रस्त हो जाता है और नई कमजोर या बीमार कोशिकाएं पैदा होती हैं.
तस्वीर: Colourbox
बीमारियों का जन्म
गड़बड़ डीएनए वाली कोशिकाएं कैंसर या दूसरी बीमारियां पैदा होती हैं. हमारे रोग प्रतिरोधी तंत्र को इसका पता नहीं चल पाता है, क्योंकि वो इस विकास को प्राकृतिक मानता है. धीरे धीरे यही गड़बड़ियां प्राणघातक साबित होती हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/A. Warmuth
लापरवाही से बढ़ता खतरा
आराम भरी जीवनशैली के चलते शरीर मांसपेशियां विकसित करने के बजाए जरूरत से ज्यादा वसा जमा करने लगता है. वसा ज्यादा होने पर शरीर को लगता है कि ऊर्जा का पर्याप्त भंडार मौजूद है, लिहाजा शरीर के भीतर हॉर्मोन संबंधी बदलाव आने लगते हैं और ये बीमारियों को जन्म देते हैं.
तस्वीर: Imago
शट डाउन
प्राकृतिक मौत शरीर के शट डाउन की प्रक्रिया है. मृत्यु से ठीक पहले कई अंग काम करना बंद कर देते हैं. आम तौर पर सांस पर इसका सबसे जल्दी असर पड़ता है. स्थिति जब नियंत्रण से बाहर होने लगती है तो दिमाग गड़बड़ाने लगता है.
तस्वीर: picture-alliance/Klaus Rose
आखिरकार मौत
सांस बंद होने के कुछ देर बाद दिल काम करना बंद कर देता है. धड़कन बंद होने के करीब चार से छह मिनट बाद मस्तिष्क ऑक्सीजन के लिए छटपटाने लगता है. ऑक्सीजन के अभाव में मस्तिष्क की कोशिकाएं मरने लगती हैं. मेडिकल साइंस में इसे प्राकृतिक मृत्यु या प्वाइंट ऑफ नो रिटर्न कहते हैं.
तस्वीर: Imago/epd
मृत्यु के बाद
मृत्यु के बाद हर घंटे शरीर का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस गिरने लगता है. शरीर में मौजूद खून कुछ जगहों पर जमने लगता है और बदन अकड़ जाता है.
तस्वीर: Fotolia/lassedesignen
विघटन शुरू
त्वचा की कोशिकाएं मौत के 24 घंटे बाद तक जीवित रह सकती हैं. आंतों में मौजूद बैक्टीरिया भी जिंदा रहता है. ये शरीर को प्राकृतिक तत्वों में तोड़ने लगते हैं.
तस्वीर: racamani - Fotolia.com
बच नहीं, सिर्फ टाल सकते हैं
मौत को टालना संभव नहीं है. ये आनी ही है. लेकिन शरीर को स्वस्थ रखकर इसके खतरे को लंबे समय तक टाला जा सकता है. वैज्ञानिकों के मुताबिक पर्याप्त पानी पीना, शारीरिक रूप से सक्रिय रहना, अच्छा खान पान और अच्छी नींद ये बेहद लाभदायक तरीके हैं.