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पूर्वोत्तर में नजर आने लगी है जलवायु परिवर्तन की मार

प्रभाकर मणि तिवारी
४ नवम्बर २०२१

यह विडंबना ही है कि जिस इलाके में दुनिया की सबसे अधिक बारिश वाली जगह है उसे अब पीने के पानी की किल्लत और सूखे से जूझना पड़ रहा है. पूर्वोत्तर भारत जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहा है.

तस्वीर: Prabhakarmani Tewari/DW

भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों और जंगलों से भरा हुआ है लेकिन जलवायु परिवर्तन का असर अब इलाके में साफ नजर आने लगा है. बारिश का पैटर्न भी साल दर साल बदल रहा है. नतीजतन बेमौसम की बरसात और साल में कई बार आने वाली बाढ़ अब नियति बनती जा रही है.

यह विडंबना ही है कि जिस इलाके में दुनिया की सबसे अधिक बारिश वाली जगह है उसे अब पीने के पानी की किल्लत और सूखे से जूझना पड़ रहा है. पर्यावणविदों ने इसके लिए तेजी से बढ़ती आबादी, घटते जंगल और बिजली परियोजनाओं के लिए पहाड़ों की बेतरतीब कटाई को भी जिम्मेदार ठहराया है.

घटती बारिश

बीते कुछ दशकों के दौरान पूर्वोत्तर इलाके में बारिश की प्रकृति में उल्लेखनीय बदलाव आया है. इस साल अब तक इलाके में औसत बारिश में भारी गिरावट दर्ज की गई है. मौसम विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, मणिपुर में सामान्य से 58 फीसदी कम बारिश हुई है. इसी तरह मिजोरम, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश के मामले में यह आंकड़ा क्रमशः 28, 23 और 21 फीसदी रहा है. इलाके के तमाम राज्यों में बारिश पानी का एक प्रमुख स्रोत है.

मौसम विभाग की ओर से जनवरी 2018 में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया था कि इलाके के तमाम राज्यों में बारिश की मात्रा लगातार कम हो रही है. इसमें 1901 से 2015 यानी 115 साल के आंकड़ों का अध्ययन किया गया था. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि इलाके में बारिश के सीजन में अत्यधिक भारी बारिश होने की घटनाएं भी बढ़ी हैं. यही वजह है कि असम जैसे राज्यों में साल में कई बार बाढ़ आने लगी है.

मौसम विभाग के मुताबिक, वर्ष 2001 से 2021 के बीच यानी 21 वर्षों में से 19 में इलाके में सामान्य से कम बारिश दर्ज की गई है. बीते साल इलाके में मानसून सामान्य रहा था. पूरे साल बारिश के लिए मशहूर मेघालय को भी पानी की कमी से जूझना पड़ रहा है.

मेघालय का शाब्दिक अर्थ है ‘बादलों का घर.' लेकिन अगर इस राज्य में ऐसी स्थिति है तो बाकी राज्यों के बारे में अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है. सिक्किम को छोड़ कर इलाके के तमाम राज्यों में इस साल सामान्य से बहुत कम बारिश हुई है.

तिब्बत की सीमा से सटे अरुणाचल प्रदेश का 82 फीसदी हिस्सा जंगल है. बावजूद इसके राज्य के दो जिलों के अलावा बाकी जिलों में बारिश की कमी दर्ज की गई है. ऊपरी सियांग जिले में ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी सियांग तिब्बत से प्रवेश करती है जबकि ऊपरी सुबनसिरी जिले में ब्रह्मपुत्र की एक अन्य सहायक नदी सुबनसिरी का उद्गम स्थल है.

मानसून के दौरान इस इलाके में बारिश के कारण इन दोनों नदियों का जलस्तर तेजी से बढ़ता है. इन नदियों की वजह से ही असम में साल में तीन से चार बार बाढ़ आने लगी है जिनसे जान-माल का भारी नुकसान तो होता है, बड़े पैमाने पर फसलें भी नष्ट हो जाती हैं.

मौसम विभाग के आंकड़ों से साफ है कि मेघालय में वर्ष 2005 से ही बारिश में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है. इसी तरह त्रिपुरा में सबसे कम बारिश हो रही है. इसका असर राज्य की 10 प्रमुख नदियों पर पड़ने लगा है जो अपने पानी के लिए बारिश पर ही निर्भर हैं. मिजोरम में स्थिति कुछ हद तक सामान्य जरूर है. लेकिन अब वहां भी बदलाव का असर नजर आने लगा है.

आजीविका पर असर

पूर्वोत्तर में नदियां इलाके के लोगों की आजीविका का साधन भी हैं. इसलिए जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले किसी भी बदलाव का आम लोगों के जीवन पर सीधा असर पड़ता है. मानसून के दौरान अनियमित बारिश की वजह से असम की नदियां रास्ता बदलने लगी हैं. इसका असर इंसानी बस्तियों पर पड़ने लगा है और हर साल हजारों की तादाद में लोगों का विस्थापन हो रहा है.

मौसम विभाग के एक अधिकारी बताते हैं कि बीते कुछ वर्षों के दौरान विस्थापन की यह प्रक्रिया तेज हुई है. बारिश के घटने का असर पहाड़ी झरनों पर भी नजर आने लगा है. इनमें से ज्यादातर झरने सूख जाते हैं. खासकर दुर्गम पर्वतीय इलाकों के लोग पीने के पानी के लिए इन झरनों पर ही निर्भर हैं. अतिवृष्टि या अनावृष्टि से हर साल इन राज्यों में फसलों को भी भारी नुकसान होता है. खासकर पर्वतीय इलाकों में झूम खेती बारिश के बिना संभव ही नहीं है. झूम खेती का तरीका ऐसा है कि कृत्रिम साधनों के जरिए वहां पैदा होने वाली फसलों की सिंचाई संभव नहीं है.

मौसम विज्ञानी डॉ. प्रथमेश हाजरा कहते हैं, "बारिश की कमी के कारण पैदा होने वाली सूखे की स्थिति का असर वानस्पतिकी कवच पर भी पड़ता है. इससे भूमि कटाव बढ़ता है जिसका सीधा असर इलाके की जैव-विविधता पर पड़ता है.” पूर्वोत्तर इलाका अपनी जैव-विविधता के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है. लेकिन मौसम के बदलते मिजाज की वजह से दुर्लभ किस्म की कई वनस्पतियों का अस्तित्व खत्म होने की कगार पर पहुंच गया है.

एक गैर सरकारी संगठन के महासचिव पार्थ प्रतिम दास कहते हैं, "इलाके में तेजी से कटते जंगल और आबादी का बढ़ता घनत्व पारिस्थितिकी तंत्र को और बिगाड़ रहा है. जंगल घट रहे हैं लेकिन उनकी भरपाई नहीं हो रही है. इसका असर मौसम पर पड़ रहा है. हर साल आने वाली बाढ़ असम की उपजाऊ मिट्टी को बहा ले जाती है और खेतों पर बालू की मोटी परत छोड़ जाती है. इससे खासकर धान की पैदावार घटने लगी है.”

कोलकाता में मौसम वैज्ञानिक डॉ. भूमिधर बर्मन कहते हैं, "पूर्वोत्तर में जलवायु परिवर्तन के असर के सटीक आकलन के लिए हमारे पास आंकड़ों की कमी है. दरअसल यह समस्या जितनी नजर आती है उससे कहीं ज्यादा गंभीर है. दुर्गम इलाकों से आंकड़े जुटाने का कोई ठोस इंतजाम नहीं है. ऐसे में ज्यादातर इलाकों के आकलन में अनुमानों का ही सहारा लिया जाता है.”

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