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अड़ोस क्या कहे पड़ोस से

७ अप्रैल २०१३

एक ओर भारत में जम्हूरियत की जड़ें बीते 65 सालों में लगातार गहरी हुई हैं, वहीं दूसरी ओर पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की सरज़मीं इन जड़ों के लिए खुद को मुफीद बनाने की जद्दोजहद में लगी है.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

दोनों देशों की आबो हवा तकरीबन एक जैसी होने के बावजूद दोनों की लोकतांत्रिक फिजा में जमीन आसमान का फर्क है. समय की मांग और जरूरतों के आईने में इस अंतर को कई आयाम से देखा जा सकता है.

लंबे अर्से से भारत में चुनाव सुधार की बात जोर शोर से हो रही है. दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का तमगा लिए भारत कीचड़ बन चुकी चुनावी राजनीति के बीच जी रहा है. इस बात से किसी को गुरेज नहीं होगा कि भारत में लोकतंत्र के नाम पर जिस तरह से सत्ता में भ्रष्टाचार और अपराध की चाशनी घोली गयी है, उसी के फलस्वरूप जनता में व्यवस्था के खिलाफ गुस्से का गुबार सड़कों पर उतरने को मजबूर हुआ है. बीते साल समाजसेवी अन्ना हजारे की अगुवाई में हुए ऐतिहासिक आंदोलन इस जनाक्रोश की बानगी बने. अन्ना के आंदोलन में जनलोकपाल के साथ चुनाव सुधार से संबद्ध दो मांगें मुख्य रूप से जुडी थीं. राईट टू रिजेक्ट और राईट टू रिकॉल.

देश के हर राज्य और समाज के हर तबके में सर्वसम्मति से यह बात उभर कर सामने आई कि जनता विकल्पहीनता का शिकार है. इसीलिए पढ़े लिखे यानी मध्यम वर्गीय तबके का मतदान के प्रति खास रुझान नहीं रहा. चुनाव में 50 और 60 फीसदी के बीच झूलता मतदान का स्तर बताता है कि देश की आधी आबादी के लिए वोटिंग का दिन सिर्फ छुट्टी का दिन होता है.

हो भी क्यों नहीं, चुनावी दंगल में दो दो हाथ करने को उतरे नेता, वोटिंग से तौबा कर चुके लोगों के लिए, कहीं से भी खुद से जुड़े नहीं दिखते. वोट मांगने वाले और वोट देने वालों के सरोकारों की लगातार चौड़ी होती खाई, लोकतंत्र की गहरी होती जड़ों में मट्ठा डालने जैसा काम कर रही है. हालांकि चुनाव सुधार की पुरजोर होती मांग के बीच ही शिक्षित पेशेवर युवाओं का सियासत में आना बेहतर भविष्य का संकेत भी दे रहा है. राजस्थान में सरपंच छवि राजावत और अरविंद केजरीवाल इसके उदाहरण कहे जा सकते हैं.

अब बात पाकिस्तान की. पड़ोसी होने के नाते पाकिस्तान की हर छोटी बड़ी घटना भारत में असर करती है. पाकिस्तान में बीते 65 सालों से लोकतंत्र कायम करने का प्रहसन किया जा रहा है. महज एक मौलिक भूल की वजह से इस कवायद को प्रहसन करार दिया जाता है. लोकतंत्र कायम करने की कोशिश में जनता की नैसर्गिक भागीदारी न हो पाना ही मौलिक भूल रही है. पाकिस्तानी अवाम के बजाए भुट्टो, शरीफ और सेना जैसे गैरजरूरी तत्व इस कोशिश में लगे हैं. जिनका मकसद लोकतंत्र कायम करना नहीं बल्कि सत्ता पर काबिज होना है.

तस्वीर: Reuters

इसी तरह भारत में लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत बनाने और पाकिस्तान में लोकतंत्र को कायम करने की कोशिशों में तमाम झंझावातों के बीच एक समानता भी मिलती है. दोनों मुल्कों में कम से कम एक एक घटक ऐसा है जो इस जंग में निर्णायक भूमिका निभा रहा है. भारत में जेपी और लोहिया से लेकर अब तक चल रहे सामाजिक आंदोलन, सोई हुई जनता को जगा रहे हैं. वहीं पाकिस्तान में सेना और कट्टरपंथियों से बेखौफ न्यायपालिका बड़ी ही समझदारी से लोकतंत्र की राह के रोड़े हटा रही है.

जस्टिस इफ्तिखार चौधरी का मुशर्रफ से मोर्चा लेना हो या फिर पिछले पांच साल से कदम दर कदम आगे बढ़ कर जरदारी की हुकूमत पर लगे भ्रष्टाचार के दाग धोना हो. ये सब चुनौती भरे काम करते हुए स्वायत्त सरकार की निगरानी में आम चुनाव कराने की राह, न्यायपालिका ने ही तैयार की है. नतीजा दुनिया के सामने है.

पाकिस्तान में अपनी ईमानदारी के लिए मशहूर रिटायर्ड जज मीर हजर खान खोसो की अगुवाई वाली अंतरिम सरकार का असर एक सप्ताह में ही दिखने लगा है. बुधवार को पाकिस्तान में मतदाताओं को वो अधिकार बैठे बिठाये मिल गया जिसके लिए भारत में आंदोलन किए जा रहे हैं. राईट टू रिजेक्ट यानी उम्मीदवारों को खारिज करने का अधिकार. भारत में राईट टू रिजेक्ट, एक अंतहीन बहस का मुद्दा बनता नजर आ रहा है जबकि पाकिस्तान में यह हकीकत बनने वाला है. पाकिस्तान के चुनाव आयोग ने इस अधिकार को हरी झंडी दिखाते हुए इसे अध्यादेश की शक्ल में लागू करने के लिए राष्ट्रपति के पास भेज दिया है.

दूसरी ओर भारत में सिवाए सियासी जमात के हर तबका राईट टू रिजेक्ट की वकालत कर रहा है. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने बीते साल दिसंबर में अपने पद पर रहते हुए ही राईट टू रिजेक्ट को चुनाव सुधार के लिए बेहद जरूरी बताया और कहा कि सरकार के लिए इसे लागू करना बिलकुल भी मुश्किल नहीं है. लेकिन मौजूदा हालात में जनता की इस जायज मांग का माना जाना मुमकिन नहीं दिखता है. लोकतंत्र के मामले में भारत से काफी पीछे चल रहे पाकिस्तान ने कम से कम चुनाव सुधार की दिशा में कारगर पहल कर भारत को आईना तो दिखा ही दिया है. ऐसे में भारत के लिए पाकिस्तान में राईट टू रिजेक्ट के असर को परखने का सुनहरा मौका है. यह बात सही है कि पाकिस्तान में राईट टू रिजेक्ट लागू होने से सब कुछ दुरुस्त नहीं हो जायेगा लेकिन यह पहल, हताश निराश जनता के लिए उम्मीद की किरण जरूर दिखाती है.

ब्लॉगः निर्मल यादव

संपादनः अनवर जे अशरफ

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