पर्यावरण और संरक्षण कार्यकर्ताओं ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय से अरुणाचल की इटालीन परियोजना को दी गई मंजूरी खत्म करने की अपील की है. पूर्वोत्तर में पनबिजली परियोजनाओं के लिए प्रस्तावित बांधों का काफी विरोध होता रहा है.
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अरुणाचल प्रदेश की दिबांग घाटी में इटालीन पनबिजली परियोजना का बड़े पैमाने पर विरोध शुरू हो गया है. दरअसल, दिबांग नदी पर प्रस्तावित 3,097 मेगावाट क्षमता वाली इस परियोजना के लिए इलाके में 2.70 लाख पेड़ों को काटा जाना है. इस क्षेत्र में पक्षियों की करीब सात सौ प्रजातियां पाई जाती हैं. यह भारत में पाई जाने वाली पक्षियों की कुल प्रजातियों का लगभग आधा है. ऐसे में अगर पेड़ों की कटाई होती है तो उसका सीधा असर इन पर पड़ेगा. स्थानीय निवासियों व पर्यावरणविदों का कहना है कि दिबांग घाटी में इस परियोजना के अलावा दिबांग बहुउद्देशीय परियोजना पहले से ही प्रस्तावित हैं. इनके निर्माण के बाद विस्तृत इलाका पानी में डूब जाएगा.
उक्त परियोजना का प्रस्ताव वर्ष 2008 में पेश किया गया था. लेकिन तमाम संगठनों के अलावा स्थानीय लोग उसी समय से इसका विरोध करते रहे हैं. सात संरक्षण कार्यकर्ताओं ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की वन सलाहकार समिति को हाल में भेजे एक पत्र में लिखा है कि इस परियोजना से पारिस्थितिकी और पर्यावरण संबंधी खतरे तो हैं ही, इसके अनुमोदन की प्रक्रिया में भी पारदर्शिता की कमी है.
समिति ने बीती 11 मई को अपनी बैठक में उक्त परियोजना को मंजूरी दी थी. बैठक में कहा गया था कि इटालीन परियोजना के खिलाफ उठाए गए तमाम मुद्दों को सुलझा लिया गया है. लेकिन पर्यावरण कार्यकर्ताओं की दलील है कि इस बयान के समर्थन में कोई दस्तावेजी सबूत नहीं दिए गए हैं. समिति ने कुछ तबकों की ओर से वन्यजीव और इलाके में वनस्पतियों की प्रजातियों के बारे में उठाई गई शंकाओं के समग्र समाधान के लिए एक चार-सदस्यीय समिति भी बनाई है.
समिति की उक्त बैठक के बाद गुवाहाटी स्थित गैर-सरकारी संगठन आरण्यक के फिरोज अहमद समेत कई पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने जैविक विविधता आकलन रिपोर्ट समेत कई मुद्दों पर चिंता जताई थी. उसी रिपोर्ट के आधार पर इस परियोजना को तमाम तरह की मंजूरी मिली है.
बड़े बांध: किसी को बिजली मिली तो किसी को सिर्फ झटके
विशाल बांध बनाने वाले देश खुद को प्रभावशाली और आत्मनिर्भर शक्ति के रूप में दिखाते हैं. लेकिन उनका क्या जो इन बांधों के कारण बर्बाद होते हैं.
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गर्व का प्रदर्शन
नील नदी पर 145 मीटर ऊंचा और करीब दो किलोमीटर लंबा बांध, GERD. पूरा नाम ग्रैंड इथियोपियन रेनेशॉं डैम. नदी के निचले इलाकों में बसे देशों की सहमति के बिना बन रहे इस बांध के लिए वर्ल्ड बैंक ने पैसा देने से इनकार कर दिया. लेकिन इथियोपिया ने क्राउडफंडिग के जरिए 4.8 अरब डॉलर के इस प्रोजेक्ट के लिए पर्याप्त पैसा जुटा लिया. बांध से 5,000 मेगावॉट बिजली पैदा करने के लक्ष्य है.
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नील की तटों पर जीवन
मिस्र और सूडान को लगता है कि GERD का सीधा असर उन पर पड़ेगा. दोनों देश, खेती और पेयजल के लिए काफी हद तक नील नदी पर निर्भर हैं. इथियोपिया ने भरोसा दिया है कि वह सिंचाई के लिए पानी नहीं लेगा, लेकिन जलवायु परिवर्तन के दौर में इस वादे पर पड़ोसी देशों को बहुत भरोसा नहीं है.
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मेकॉन्ग पर बड़े-बड़े बांध
1990 के दशक से अब तक चीन ने मेकॉन्ग नदी पर कम से कम 11 बड़े बांध बनाए हैं. इन बांधों ने चीन को दुनिया में सबसे ज्यादा हाइड्रोपावर पैदा करने वाला देश बनाया है. हालांकि चीन में अब भी बिजली उत्पादन में कोयला पहले नंबर पर है. मेकॉन्ग पर बने इतने बांधों का सीधा असर निचले इलाके में बसे लाओस, थाइलैंड, वियतनाम और कंबोडिया पर पड़ा है.
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कंबोडिया में सूखा
चीन के बांधों ने मेकॉन्ग के प्रवाह को कमजोर कर दिया है. निचले इलाके में मौजूद देशों के फिश स्टॉक पर भी इसका असर पड़ा है. कंबोडिया और थाइलैंड में अब बार बार सूखा पड़ने लगा है. सैटेलाइट डाटा के मुताबिक बांधों के बनने के बाद से चीन में बर्फ पिघलने की रफ्तार तेज हुई है और बारिश भी ज्यादा होने लगी है.
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विदेशों में चाइनीज फॉर्मूला
लाओस, पुर्तगाल, कजाखस्तान और अर्जेंटीना समेत कई अफ्रीकी देशों के हाइड्रो प्रोजेक्ट्स में चीन का पैसा लगा है. पहले ऐसे बड़े प्रोजेक्ट आम तौर पर वर्ल्ड बैंक द्वारा फाइनेंस किए जाते थे. वर्ल्ड बैंक से पैसा पाने के लिए दूसरे देशों के साथ सहमति भी एक शर्त होती है. लेकिन चीन, पड़ोसियों की चिंता किए बगैर दूसरे देशों को डैम बनाने के लिए पैसा दे देता है.
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बांध के विस्थापित
गिनी के सौआपिती डैम को चाइना इंटरनेशनल वॉटर एंड इलेक्ट्रिसिटी कॉर्पोरेशन ने पैसा दिया है. बांध 450 मेगावॉट बिजली पैदा करेगा, जो देश के बहुत ही छोटे वर्ग को मिलेगी. ह्यूमन राइट्स वॉच के मुताबिक इस बांध को बनाने के लिए 100 से ज्यादा गांव खाली कराए गए और करीब 16,000 लोगों को विस्थापित होना पड़ा.
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बॉर्डर के बांध
पराना नदी पर बना इतापू बांध, ब्राजील और पराग्वै की सीमा पर है. इस बांध से निकलने वाले पानी को देखने के लिए बड़ी संख्या में सैलानी भी पहुंचते हैं. बांध बनाते समय दोनों देशों के बीच बिजली और पानी बांटने के समझौता हुआ था. लेकिन ब्राजील को पराग्वै के मुकाबले ज्यादा बिजली मिलती है और इस कारण अनबन सामने आ जाती है.
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कोलोराडो के बांध
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप मेक्सिको से आने वालों को रोकने के लिए लंबी दीवार बनाना चाहते थे. लेकिन उन अमेरिकी बांधों का क्या, जो कोलोराडो नदी से इतना पानी निकाल लेते हैं कि नीचे बसे मेक्सिको को बहुत ही कम पानी मिलता है. कोलोराडो नदी अमेरिका के सात राज्यों से गुजरती है. इस दौरान कई बांध इसे निचोड़ सा लेते हैं. (रिपोर्ट: रूबी रसेल)
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अब सात संरक्षण कार्यकर्ताओं ने अपने पत्र में कहा है, "वन सलाहकार समिति को जैविक विविधता से भरपूर इस इलाके में पनबिजली परियोजना के लिए जंगल की जमीन के इस्तेमाल से बचना चाहिए.” इन लोगों में नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्डलाइफ के कई पूर्व सदस्यों के अलावा वन्यजीव संरक्षण कार्यकर्ता भी शामिल हैं.
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लंबा है बांधों के विरोध का इतिहास
पूर्वोत्तर भारत में बांधों के खिलाफ आंदोलन का लंबा इतिहास रहा है. वर्ष 1950 में भयावह भूकंप से असम की तबाही और ब्रह्मपुत्र के रास्ता बदलने के बाद इलाके में पहली बार बांधों की जरूरत महसूस की गई थी. इनका दूसरा मकसद सूखे के सीजन में सिंचाई के लिए पानी की सप्लाई और इलाके में बिजली की कमी को दूर करना था.
इनमें दिबांग बहुउद्देशीय परियोजना और लोअर सुबनसिरी मेगा बांध परियोजना शामिल थी. लेकिन अरुणाचल व असम के सीमावर्ती इलाकों में इन दोनों का बड़े पैमाने पर विरोध शुरू हो गया. दशकों बाद अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने 1985 में पहली बार संगठित रूप से अरुणाचल में प्रस्तावित बांधों के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन शुरू किया. यह जल्दी ही आम लोगों के आंदोलन में बदल गया.
जून, 2008 में अरुणाचल के लोअर सुबनसिरी जिले में रंगानदी पर बने बांध से अतिरिक्त पानी छोड़े जाने के कारण असम की तबाही के बाद यह आंदोलन और तेज हो गया. इस पानी को छोड़ने से पहले कोई चेतावनी भी जारी नहीं की गई थी. नतीजतन गर्मी के सीजन में आई भयावह बाढ़ से कम से कम दस लोगों की मौत हो गई और तीन लाख विस्थापित हो गए थे.
दिबांग बहुउद्देशीय परियोजना के लिए भी लाखों पेड़ों को काटा जाना है और घाटी के कम से कम 39 गांवों को हटा कर दूसरी जगह बसाया जाना है. इसके लिए 1,165 हेक्टेयर जंगल साफ किए जाएंगे. यह इलाका इदु मिश्मी प्रजाति का घर और जैविक विविधता से भरपूर है.
वर्ष 2008 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस परियोजना का शिलान्यास किया था. लेकिन इदु मिश्मी प्रजाति के लोगों के भारी विरोध के कारण नेशनल हाइड्रो पावर कारपोरेशन (एनएचपीसी) इसके निर्माण को आगे नहीं बढ़ा सका. भारी विरोध के कारण अगले पांच साल यानी वर्ष 2013 तक परियोजना का काम ठप रहा. बाद में आंदोलनकारियों को बल प्रयोग के जरिए दबा दिया गया और वर्ष 2015 में केंद्रीय वन व पर्यावरण मंत्रालय ने इसे हरी झंडी दिखा दी. वर्ष 2018 में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने भी इस परियोजना को मंजूरी दे दी.
बांध के खिलाफ आंदोलन करने वाली इदु मिश्मी समुदाय के संगठन 'दिबांग मल्टीपरपज प्रोजेक्ट डैम अफेक्टेड एरिया कमिटी' के अध्यक्ष नोगोरो मेलो कहते हैं, "आदिवासी लोग जमीन की कीमत समझते हैं. लेकिन सरकार मामूली मुआवजा देकर हमारी चार हजार हेक्टेयर जमीन छीनना चाहती है. सरकार को इस जमीन के एवज में लगभग 16 सौ करोड़ का मुआवजा देना है. लेकिन एनएचपीसी ने यह कह कर इसे अदालत में चुनौती दी है कि यह जमीन आदिवासियों की नहीं है.”
यहां इस बात का जिक्र जरूरी है कि वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव से पहले अरुणाचल प्रदेश सरकार ने उक्त परियोजना से प्रभावित होने वाले परिवारों के लिए एक पुनर्वास पैकेज का एलान किया था. लेकिन चुनाव के बाद एनएचपीसी ने इस फैसले को अदालत में चुनौती दे दी. अब एक बार फिर इस मुद्दे के गरमाने के आसार हैं.
पर्यावरण को बांधने वाले बांध
आम तौर पर बांधों को पर्यावरण सम्मत माना जाता है. इनसे नवीकरणीय ऊर्जा तो पैदा होती है लेकिन बड़े बड़े बांधों का उनके आसपास के पर्यावरण पर बुरा असर भी पड़ता है.
तस्वीर: picture alliance/Photoshot/W. Song
कहां कितने बांध
पर्यावरणविदों को डर है कि कहीं आर्थिक विकास की आंधी में ताबड़तोड़ बनाए जा रहे विशाल बांध हाशिए पर आ गए समुदाय और जैव विविधता दोनों को ही ना उड़ा ना ले जाएं. खासकर दक्षिण एशिया में विशाल बांध परियोजनाओं पर काम लगातार जारी है. ग्लोबल डैम वॉच के आंकड़ों को देखें तो इस समय दुनियाभर में 3700 के आसपास बड़े स्तर के बांध बन रहे हैं, जिनमें से 2800 से अधिक केवल एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में ही हैं.
तस्वीर: DW/M. Gerth-Niculescu
जलवायु परिवर्तन को बढ़ाते बांध
बांधों के समर्थक इनके निर्माण को बेहद जरूरी बताते हैं क्योंकि यह सस्ती और साफ ऊर्जा का एक उपयोगी स्रोत है. इससे फॉसिल फ्यूल पर इंसान की निर्भरता कम करने में मदद मिलती है और पानी की लगातार आपूर्ति भी सुनिश्चित की जा सकती है. हालांकि बांध वाले बड़े इलाके में पानी को फैला कर रखे जाने से सतह से पानी का वाष्पीकरण बहुत ज्यादा होता है, जिससे पीने योग्य पानी का नुकसान होता है.
तस्वीर: Getty Images/B.Kara
सिमटता जलीय जीवन
पानी के रुकने से नीचे के इलाकों में केवल पानी ही नहीं उसके साथ बह कर जाने वाला ठोस पदार्थ जैसे मिट्टी, बालू और जैव सामग्री भी कम हो जाती है. इससे नीचे के इलाकों में जमीन कम उपजाऊ हो जाती है, नदियों का तल और गहरा होता जाता है और मिट्टी का खूब अपरदन होता है. एक अनुमान के मुताबिक बड़े बांध के कारण नीचे जाने वाले तलछट में 30 से 40 की कमी आती है.
तस्वीर: picture-alliance/blickwinkel
पानी की कमी
जल ही जीवन है और चूंकि बांध इसी जल को बांधते हैं , वे नीचे की ओर होने वाले जलप्रवाह के जीवन को प्रभावित करते हैं. ग्रैंड इथियोपियन रेनेसां बांध को ही लीजिए. इथियोपिया में बन रहा यह बांध अफ्रीका में पनबिजली का सबसे बड़ा प्रोजेक्ट है. लेकिन इससे प्रवाह के नीचे की ओर स्थित मिस्र को खेती के लिए पर्याप्त पानी ना मिलने की चिंता है.
तस्वीर: DW/Negassa Desalegen
बदलता ईकोसिस्टम
पानी के साथ घुली मिट्टी पर नदी की मछलियां अपने भोजन के लिए निर्भर होती हैं. इसी पानी में घुली चीजों से नदी के अंदर पलने वाले सभी पौधों को पोषण मिलता है. इस सबको बांध के कारण ऊपर ही रोक लिए जाने की वजह से धीरे धीर नीचे के प्रवाह वाले हिस्से की नदी मरने लगती है. फिर वहां एक नए तरह का ईकोसिस्टम विकसित होता है, जो कि पहले से बिल्कुल अलग होता है.
तस्वीर: naturepl.com/Frei/ARCO/WWF
गायब होती जैवविविधता
सन 2018 की एक स्टडी में पाया गया कि एशिया की मेकॉन्ग नदी में बांधों के कारण मछलियों की तादाद में 40 फीसदी तक की कमी आ सकती है. इसके साथ ही इलाके में पाए जाने वाले धरती के सबसे दुर्लभ कपि - तापानुली ओरांगउटान भी मिट सकते हैं. इनकी कुल संख्या 500 के आसपास है. ऐसा ही खतरा कई जगहों पर कुछ दूसरी प्रजातियों पर भी मंडरा रहा है.
भविष्य में तापमान बढ़ते जाने के कारण पानी को लेकर लड़ाइयां बढ़ना तो तय है, खासकर मध्यपूर्व के देशों में पानी का संकट और गहराएगा. ऊपर से कई इलाकों में बाढ़ आने से तमाम धरोहरों के डूबने का खतरा बढ़ेगा. तुर्की में टिगरिस नदी में बाढ़ के कारण 12,000 साल पुराना हसनकेइफ शहर हमेशा हमेशा के लिए पानी में डूब सकता है.
तस्वीर: STR/AFP/Getty Images
कोई विकल्प है?
अगर विशाल बांधों की जगह छोटे बांध बनाए जाएं तो भी नुकसान वैसे ही होंगे. इनकी जगह पर इन-स्ट्रीम टरबाइनों से ऊर्जा पैदा करने का विचार सामने आया है. वहीं, पर्यावरण कार्यकर्ताओं का मानना है कि सारा का सारा ध्यान सौर और वायु ऊर्जा की क्षमता को बढ़ाने पर लगाया चाहिए, जिनका पर्यावरण पर इतना बुरा असर नहीं होता.