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क्या होते हैं चुनावी बॉन्ड और क्यों उन पर छिड़ी है जंग

३० अक्टूबर २०२३

चुनावी बॉन्ड के खिलाफ दायर किये गए मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है. 2018 में लाई गई इस योजना के तहत राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग के लिए 12,000 करोड़ रुपयों से भी ज्यादा की धनराशि दी जा चुकी है.

पश्चिम बंगाल
भारत में चुनावतस्वीर: Satyajit Shaw/DW

सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की एक पीठ चुनावी बॉन्ड के खिलाफ दायर किए गए इस मुकदमे की सुनवाई कर रही है. सीपीएआई और गैर सरकारी संस्थाओं कॉमन कॉज और एडीआर ने इस योजना के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. याचिकाओं में कहा गया है कि यह योजना एक "गुप्त फंडिंग प्रणाली है जिस पर किसी भी संस्था का नियंत्रण नहीं है."

याचिकाकर्ताओं का मानना है कि इस योजना की वजह से राजनीतिक दलों की फंडिंग अपारदर्शी हो गई है, जबकि केंद्र सरकार का कहना है कि राजनीतिक दलों की फंडिंग के बारे में जानने का नागरिकों को कोई अधिकार नहीं है.

क्या है चुनावी बॉन्ड

चुनावी बॉन्ड की घोषणा 2017 के केंद्रीय बजट में की गई थी और इन्हें लागू 2018 में किया गया था. यह मूल रूप से भारत में राजनीतिक दलों को चंदा देने की एक योजना है. यह एक किस्म का वित्तीय इंस्ट्रूमेंट है जिसके जरिये कोई भी राजनीतिक दलों को गुमनाम रूप से चंदा दे सकता है. इन पर कोई ब्याज भी नहीं लगता.

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यह 1,000, 10,000, एक लाख, दस लाख और एक करोड़ रुपयों के मूल्य में उपलब्ध हैं. इन्हें सिर्फ स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) से खरीदा जा सकता है. चंदा देने वाले को बांड के मूल्य के बराबर की धनराशि एसबीआई की अधिकृत शाखा में जमा करवानी होती है. यह भुगतान सिर्फ चेक या डिजिटल प्रक्रिया के जरिए ही किया जा सकता है.

बॉन्ड कोई भी व्यक्ति और कोई भी कंपनी खरीद सकती है. कोई कितनी बार बॉन्ड खरीद सकता है, इसकी कोई सीमा नहीं है. जिस पार्टी के नाम से बांड लिए गया है उसे 15 दिनों में इसे भुना लेना होता है. 15 दिनों के बाद एसबीआई बांड की धनराशि को प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा करा देती है.

क्यों लाए गए बॉन्ड

सरकार में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने बजट भाषण में कहा था कि इस योजना को राजनीतिक दलों की फंडिंग में पारदर्शिता लाने के लिए लाया जा रहा है. मुख्य रूप से केंद्र सरकार आज भी योजना का समर्थन इसी आधार पर करती है.

आलोचकों का कहना है कि राजनीतिक दलों की फंडिंग और ज्यादा गोपनीय हो गई हैतस्वीर: Raminder Pal Singh/NurPhoto/imago images

इसका लाभ पाने के लिए केवल वही पार्टी योग्य होती है जो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत पंजीकृत होती है. इसके अलावा एक और शर्त अनिवार्य होती है कि उस पार्टी को पिछले लोक सभा या विधान सभा चुनावों में कुल पड़े मतों का कम से कम एक प्रतिशत मिला हो.

योग्य पार्टियों को अपने बैंक खाते की जानकारी चुनाव आयोग को देनी होती है. बांड के जरिए पाए हुए पैसों को पार्टी ने कैसे खर्च किया, इसकी जानकारी भी चुनाव आयोग को देनी होती है. यानी किसको, कितने पैसे मिले और उन पैसों को कैसे खर्च किया गया उसकी पूरी जानकारी चुनाव आयोग को देनी होती है. सरकार की दलील है यह इससे पारदर्शिता आती है.

आलोचकों की दलीलें

लेकिन बॉन्ड के खिलाफ मुकदमा करने वाले याचिकाकर्ताओं का कहना है कि असलियत इसके ठीक विपरीत है. उनका कहना है कि एक तरफ तो चुनावी बांड आम लोगों को चंदा देने वालों की कोई जानकारी नहीं देते और दूसरी तरफ सरकारी बैंक के शामिल होने की वजह से सरकार के पास हमेशा यह जानकारी हासिल करने का विकल्प मौजूद रहता है.

आम लोगों को दलों की फंडिंग की जानकारी का अधिकार नहीं मिल पा रहा हैतस्वीर: Saqib Majeed/ZUMA Wire/imago images

ऐसे में सत्तारूढ़ पार्टी यह पता कर सकती है कि विपक्षी पार्टियों को कौन चंदा दे रहा है और उन पर दबाव बना सकती है. इसके अलावा कंपनियों कितना राजनीतिक चंदा दे सकती हैं इसकी सीमा को भी हटा दिया गया है. कंपीज एक्ट, 2013 के तहत कोई भी कंपनी पिछले तीन साल औसत नेट लाभ के 7.5 प्रतिशत मूल्य के बराबर ही राजनीतिक चंदा दे सकती थी.

लेकिन चुनावी बॉन्ड लाते समय इस सीमा को हटा दिया गया, जिसकी वजह से अब बड़े कॉर्पोरेट घराने असीमित राजनीतिक चंदा दे सकते हैं, जिससे याराना पूंजीवाद के और पनपने की संभावनाएं मजबूत हो सकती हैं. अब देखना यह है कि सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ इन याचिकाओं पर क्या कहती है.

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