क्यों बड़ी बात है चांद के दक्षिणी ध्रुव पर लैंडिंग
२४ अगस्त २०२३
भारत ने चांद के दक्षिणी ध्रुव पर यान उतारकर बड़ी जीत हासिल की है. जानिए, क्यों खास है चांद का दक्षिणी ध्रुव.
विज्ञापन
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) के वैज्ञानिकों ने चांद के दक्षिणी ध्रुव पर चंद्रयानको उतारकर अंतरराष्ट्रीय विज्ञान जगत में तो ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल की ही है, दक्षिणी ध्रुव पर जाने को लेकर उत्सुक पूरी दुनिया की एजेंसियों को भी पछाड़ दिया है. यह एक बेहद बड़ी कामयाबी है क्योंकि इसके जरिये चांद के सबसे कीमती संसाधनों तक पहुंचा जा सकता है.
चांद के दक्षिणी ध्रुव पर ऐसा क्या है जिसे लेकर पूरी दुनिया के अंतरिक्ष वैज्ञानिक होड़ में हैं? सबसे बड़ी बात है वहां पानी की मौजूदगी की संभावना. उस पानी के लिए यूरोप, रूस और अमरिका की अंतरिक्ष एजेंसियां ही नहीं बल्कि निजी कंपनियां भी चांद पर पहुंचना चाहती हैं क्योंकि वहां एक कॉलोनी बनाने की संभावना दिखती है और आने वाले समय में मंगल पर जाने के लिए भी वह एक अहम अड्डा बन सकता है.
कैसे मिला चांद पर पानी?
1960 के दशक में चांद पर अमेरिकी यान अपोलो के उतरने से पहले ही वैज्ञानिकों ने संभावना जाहिर कर दी थी कि चांद पर पानी हो सकता है. 1960 और 1970 के दशक में अपोलो अभियान के जरिये चांद से मिट्टी के कई नमूने लाये गये. लेकिन वे सब सूखे थे और उनमें पानी नहीं था.
हमें चांद चाहिए: कहानी, इंसान और चांद की
इंसानी विकास का क्रम, चांद को देखने-समझने की क्रमवार यात्रा भी है. इसके पड़ावों में कौतुक भी है, भक्ति भी. वो कभी प्रेम-कामना का रूपक है, कभी भाग्य बांचने की कक्षा. देखिए इस यात्रा की कुछ झलकियां.
हजारों साल पहले जब हमारे पुरखे रात के आसमां को तकते होंगे, तो दूर ऊंचाई में दिखता होगा एक रोशन गोला. कभी उजली रोशनी में डूबा, कभी मलाई की परत सा पीला, तो कभी बुझा-बुझा, निस्तेज. घटता-बढ़ता. दिन में दिखने वाले उस भभकते गोल से बिल्कुल अलग, जिसकी रोशनी में आंखें चौंधिया जाती हैं. तब चांद विस्मय और कौतुक का विषय रहा होगा.
तस्वीर: darkfoxeluxir/Imago Images
पहला कैलेंडर
सुबह होती है. सूरज उगता है. दिन ढलता है. चांद उगता है. हमारे लिए इस क्रम में कुछ नया नहीं, कोई कौतुहल नहीं. लेकिन प्राचीन मानवों के लिए यह तयशुदा चक्र समय मापने का एक भरोसेमंद जरिया था. इंसानों का सबसे शुरुआती कैलेंडर. कैंब्रिज आर्कियोलॉजिकल जर्नल में छपे एक पेपर में शीत युग के कुछ गुफा चित्रों को चांद पर आधारित कैलेंडरों का सबसे शुरुआती साक्ष्य माना गया.
तस्वीर: BORJA SUAREZ/REUTERS
जब इंसान शिकारी था...
शीत युगीन कई गुफा चित्रों में खास तरह के डॉट और डैश मिलते हैं, जो जानवरों के चित्र के नजदीक बने हैं. शोधकर्ताओं का कहना है कि ये चिह्न अलग-अलग मौसमों में जानवरों के बर्ताव को दिखाते हैं. चूंकि तब मानव शिकार पर निर्भर थे, ऐसे में प्रजनन चक्र जैसी जानकारियां उनके लिए बेहद अहम थीं. अनुमान है कि इन जानकारियों के लिए लूनर कैलेंडर का इस्तेमाल किया जाता था.
तस्वीर: RAMI AL SAYED/AFP
चंद्र देवता
आगे चलकर जब मानव सभ्यताएं विकसित हुईं, तो कई जगहों पर चांद धार्मिक-आध्यात्मिक मान्यताओं का हिस्सा बना. मसलन प्राचीन मिस्र में खोंसू, चंद्रमा के देवता माने जाते थे. विश्वास था कि इंसान के मरने के बाद की यात्रा में खोंसू उन्हें बुरी शक्तियों से बचाते हैं. सुमेरियन सभ्यता में नाना/सेन को चंद्रमा का देवता माना जाता था. वो सबसे लोकप्रिय देवताओं में थे.
तस्वीर: MAURO PIMENTEL/AFP
आज भी होती है चंद्रमा की पूजा
कई संस्कृतियों में चांद को पूजे जाने का भी चलन रहा है. प्राचीन रोम में देवी लूना, चंद्रमा का ही दिव्य रूप थीं. रूस ने चंद्रमा पर जो मिशन भेजा, उसका नाम भी लूना ही था. भारत के कई हिस्सों में आज भी चंद्रमा की पूजा होती है. यहूदी परंपरा में "रोश होदेश" चांद का महीना माना जाता है. इसकी शुरुआत शुक्लपक्ष के चांद की पहली झलक से शुरू होती है. इस्लाम में भी रमजान और ईद का चांद के देखे जाने से नाता है.
तस्वीर: MARTIN BERNETTI/AFP
गीत, साहित्य, कविताएं...
लोक परंपरा और साहित्य में चांद के दर्जनों रूप हैं. बच्चों की लोरी में वो चंदा मामा है. बाल कृष्ण की कहानी में यशोदा चांद दिखाकर उन्हें बहलाती हैं. पुराने समय से लेकर आज तक, साहित्य और गीत-संगीत में चांद कई तरह के रूपकों में इस्तेमाल होता आ रहा है. हिंदी फिल्मी गानों को ही लीजिए, तो चांद की उपमा वाले दर्जनों गाने आपको मुंहजुबानी याद होंगे.
1960 के दशक में जब चांद पर जाने की होड़ शुरू हुई, तो यह वाकई मानव सभ्यता के लिए बड़ी छलांग थी. सोवियत संघ और अमेरिका, दोनों दौड़ जीतना चाहते थे. सितंबर 1959 में सोवियत संघ का लूना2 चांद पर लैंड होने वाला पहला अंतरिक्षयान बना. इसके बाद कई "फर्स्ट" वाले पल आए. जैसे, पहली सॉफ्ट लैंडिंग. चांद की सतह की पहली तस्वीर. चांद के पास से पहली बार गुजरना.
तस्वीर: NASA/CNP/AdMedia/picture alliance
वन स्मॉल स्टेप फॉर अ मैन...
फिर आई चांद के इतिहास की सबसे यादगार तारीख: 16 जुलाई, 1969. इसी दिन नासा के अपोलो 11 मिशन ने पहली बार इंसान को चांद की सतह पर उतारा. नील आर्मस्ट्रॉन्ग और बज आल्ड्रिन ने चांद की जमीन पर पैर धरा. बाद में अपना अनुभव बताते हुए नील ने ऐतिहासिक पंक्ति कही: वन स्मॉल स्टेप फॉर अ मैन, वन जाइंट लीप फॉर मैनकाइंड. तस्वीर में: चांद की जमीन पर नील आर्मस्ट्रॉन्ग के जूते का निशान.
तस्वीर: NASA/Heritage Images/picture alliance
इतना अविश्वसनीय कि बहुतों को अब भी संदेह
यह इतनी अद्भुत उपलब्धि थी, इतनी हैरतअंगेज कि कई लोग आज तक इसपर यकीन नहीं कर पाए हैं. कन्सपिरेसी थिअरीज के कई मुरीद आज भी कहते हैं कि वो लैंडिंग एक झूठ थी. उनके तर्कों की एक मिसाल: जब चांद पर गुरुत्वाकर्षण नहीं है, तो झंडा फहराया कैसे? 2019 का एक चर्चित वायरल वीडियो है, जिसमें बज आल्ड्रिन ऐसे ही एक "लैंडिंग डिनायर" से नाराज होकर उसे घूंसा मारते हैं.
तस्वीर: NASA/Zuma/picture alliance
फिर से दौड़ लगी है...
अगस्त 2007 में एक रूसी झंडे की खूब चर्चा हुई. यह झंडा आर्कटिक की तलछटी में लगाया गया था. वहां के संसाधनों में हिस्सेदारी के लिए यह रूस की सांकेतिक दावेदारी मानी गई. तब पश्चिमी देशों ने रूस को याद दिलाया कि ये 15वीं सदी नहीं है कि झंडा गाड़ो और कहो, आज से ये जमीन हमारी! हाल के दशकों में चंद्रमा के लिए फिर से एक दौड़ शुरू हुई है. तो क्या चंदा किसी दिन रूप और शीतलता के रूपकों से हटकर संसाधन बन जाएगा?
तस्वीर: ingimage/IMAGO
10 तस्वीरें1 | 10
2008 में ब्राउन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने उन नमूनों का आधुनिक तकनीक से दोबारा विश्लेषण किया और उसमें हाइड्रोजन की मौजूदगी की पुष्टि की. यह हाइड्रोजन ज्वालामुखी की राख में मिली चमकदार शीशों के भीतर मिली थी. 2009 में नासा ने इसरो के चंद्रयान-1 के जरिये कुछ उपकरण चांद पर भेजे, जिनका मकसद उपग्रह की सतह पर पानी की मौजूदगी का पता लगाना था.
उसी साल नासा ने एक अन्य अभियान भेजा जो चांद के दक्षिणी ध्रुव पर उतरा तो नहीं, लेकिन ऊपर से तस्वीरें ले लीं. उस अभियान ने चांद की सतह के नीचे बर्फ का पता लगाया. उससे पहले 1998 में नासा का लुनार प्रोस्पेक्टर भी चांद का चक्कर लगाते हुए दक्षिणी ध्रुव पर छाया में छिपे गड्ढों में बर्फ की जानकारी जुटा चुका था.
विज्ञापन
क्यों अहम है चांद का पानी?
चांद पर जमे हुए रूप में जो पानी मौजूद है वो बर्फ की प्राचीन सिल्लियों के रूप में है. वैज्ञानिकों की उन सिल्लियों में खासी दिलचस्पी है क्योंकि उनमें चांद के ज्वालामुखियों के बारे में बेशकीमती जानकारी हो सकती है. उनमें वे पदार्थ हो सकते हैं जो उल्कापिंडों के जरिये पृथ्वी पर आये. और उस जानकारी में महासागरों के जन्म की कहानी भी छिपी हो सकती है.
अगर पानी की उपलब्धता प्रचुर मात्रा में है तो उसका इस्तेमाल पीने के लिए किया जा सकता है और उससे चांद पर शोध के लिए ले जाये गये उपकरण भी ठंडे किये जा सकते हैं. उस पानी से हाइड्रोजन अलग करके उसे ईंधन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है जो मंगल ग्रह पर जाने वाले यानों के काम आ सकता है.
1967 में संयुक्त राष्ट्र की एक संधि हुई थी जिसे यूएन बाह्य अंतरिक्ष संधि कहा जाता है. उस संधि के तहत कोई भी देश चांद की मिल्कियत का दावा नहीं कर सकता. लेकिन उस संधि में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो व्यवसायिक गतिविधियों को रोक सके.
इसके अलावा अमेरिका की कोशिशों पर 27 देशों ने भी एक समझौता किया है जिसके जरिये चांद पर शोध और उसके संसाधनों के इस्तेमाल के लिए नियम बनाये गये हैं. हालांकि चीन और रूस ने उस संधि पर दस्तखत नहीं किये हैं.
दक्षिणी ध्रुव में ऐसा क्या खास है?
दक्षिणी ध्रुव पर उतरना बेहद पेचीदा है क्योंकि वहां की सतह विशाल गड्ढों और खाइयों से भरी हुई है. इस वजह से वहां यान का उतरना बेहद कठिन और चुनौतीभरा है.
चांद पर पहुंच गया भारत
02:05
चांद के दक्षिणी ध्रुव पर यान को उतारने में सफल रहने वाला भारत पहला देश है. इससे पहले बहुत से अभियान विफल रहे हैं. हाल ही में रूस ने अपने लुना-25 यान इसी मकसद से भेजा था लेकिन वह विफल हो गया था. अमेरिका का अपोलो अभियान भी ऐसा करने में विफल रहा था. 2019 में भारत का चंद्रयान भी वहां उतरने में विफल रहा था.
अब भी चीन और अमेरिका दक्षिणी ध्रुव पर अपने-अपने यान उतारने की कोशिशों में हैं. लेकिन भारत ने इस मामले में सबको पछाड़ दिया है.